श्रीकृष्ण चैतन्यदेव का पृथ्वी पर अवतरण विक्रम संवत् 1542 (सन् 1486 ई.) के फाल्गुन मास की पूर्णिमा को संध्याकाल में चन्द्र-ग्रहण के समय सिंह-लग्न में बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में भगवन्नाम-संकीर्तन की महिमा स्थापित करने के लिए हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ तथा माता का नाम शची देवी था।
पतित पावनी गंगा के तट पर स्थित नवद्वीप में श्री चैतन्य महाप्रभु के जन्म के समय चन्द्रमा को ग्रहण लगने के कारण बहुत से लोग शुद्धि की कामना से श्रीहरिका नाम लेते हुए गंगा-स्नान करने जा रहे थे। पण्डितों ने जन्मकुण्डली के ग्रहों की समीक्षा तथा जन्म के समय उपस्थित उपर्युक्त शकुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की-इस बालक ने जन्म लेते ही सबसे श्री हरि नाम का कीर्तन कराया है अत:यह स्वयं अतुलनीय भगवन्नाम-प्रचारक होगा।
वैष्णव इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। देवी पुराण-भगवन्नाम ही सब कुछ है। इस सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए श्रीकृष्ण भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से प्रकट होंगे। गंगा के किनारे नवद्वीप ग्राम में वे ब्राह्मण के घर में जन्म लेंगे। जीवों के कल्याणार्थ भक्ति-योग को प्रकाशित करने हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ही संन्यासी वेश में श्री चैतन्य नाम से अवतरित होंगे। गरुडपुराण-कलियुग के प्रथम चरण में श्री जगन्नाथजी के समीप भगवान श्रीकृष्ण गौर-रूप में गंगाजी के किनारे परम दयालु कीर्तन करने वाले गौराङ्ग नाम से प्रकट होंगे। मत्स्यपुराण-कलियुग में गंगाजी के तट पर श्री हरिदयालु कीर्तनशील गौर-रूप धारण करेंगे। ब्रह्मयामल-कलियुग की शुरुआत में हरिनाम का प्रचार करने के लिए जनार्दन शची देवी के गर्भ से नवद्वीपमें प्रकट होंगे। वस्तुत:जीवों की मुक्ति और भगवन्नाम के प्रसार हेतु श्रीकृष्ण का ही चैतन्य नाम से आविर्भाव होगा।
विक्रम संवत् 1566 में मात्र 24 वर्ष की अवस्था में श्री चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास ले लिया। इनके गुरु का नाम श्री केशवभारती था। संन्यास लेने के उपरान्त श्रीगौरांग(श्रीचैतन्य)महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो वहां जगन्नाथजी का दर्शन करके वे इतना आत्मविभोर हो गए कि प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य व कीर्तन करते हुए मन्दिर में मूर्छित हो गए। संयोगवश वहां प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उपस्थित थे। वे महाप्रभु की अपूर्व प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। वहां शास्त्र-चर्चा होने पर जब सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्री गौर ने ज्ञान के ऊपर भक्ति की महत्ता स्थापित करके उन्हें अपने षड्भुज रूप का दर्शन कराया। सार्वभौम गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने जिन १०० श्लोकों से श्री गौर की स्तुति की थी, वह रचना चैतन्यशतक नाम से विख्यात है।
विक्रम संवत् 1572(सन् 1515 ई.) में विजयादशमी के दिन चैतन्य महाप्रभु ने श्री वृन्दावन धाम के निमित्त पुरी से प्रस्थान किया। श्री गौरांग सडक को छोडकर निर्जन वन के मार्ग से चले। हिंसक पशुओं से भरे जंगल में महाप्रभु श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए निर्भय होकर जा रहे थे। पशु-पक्षी प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन्मत्त होकर उनके साथ ही नृत्य करने लगते थे। एक बार श्री चैतन्य देव का पैर रास्ते में सोते हुए बाघ पर पड गया। महाप्रभु ने हरे कृष्ण हरे कृष्ण नाम-मन्त्र बोला। बाघ उठकर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहकर नाचने लगा। एक दिन गौरांग प्रभु नदी में स्नान कर रहे थे कि मतवाले जंगली हाथियों का एक झुंड वहां आ गया। महाप्रभु ने कृष्ण-कृष्ण कहकर उन पर जल के छींटे मारे तो वे सब हाथी भी भगवन्नाम बोलते हुए नृत्य करने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य श्री चैतन्यदेव की ये अलौकिक लीलाएं देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। कार्तिक पूर्णिमा को श्री महाप्रभु वृन्दावन पहुंचे। वहां आज भी प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को श्री चैतन्य देव का वृन्दावन-आगमनोत्सव मनाया जाता है। वृन्दावन के माहात्म्य को उजागर करने तथा इस परम पावन तीर्थ को उसके वर्तमान स्वरूप तक ले जाने का बहुत कुछ श्रेय श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों को ही जाता है।
एक बार श्री अद्वैत प्रभु के अनुरोध पर श्री गौरांग महाप्रभु ने उन्हें अपने उस महा महिमामय विश्वरूप का दर्शन कराया, जिसे द्वापरयुगमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय दिखाया था। श्री नित्यानन्द प्रभु की मनोभिलाषा थी कि उन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य देव के परम ऐश्वर्यवान विराट स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो। महाप्रभु ने उनको अपने अनन्त ब्रह्माण्ड रूपी दिव्य रूप का साक्षात्कार करवाया। माता शची देवी ने इनको श्रीकृष्ण रूप में देखा था। वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे वेदान्ती भी इनके सत्संग से श्रीकृष्ण नाम-प्रेमी बनकर भगवन्नाम का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु की सामीप्यता से बडे-बडे दुराचारी भी सन्त हो गए। इनके स्पर्श से अनेक असाध्य रोगी ठीक हो गए। श्री गौरांग अवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ हैं। इनमें श्री चैतन्य चरितामृत, श्री चैतन्यभागवत, श्री चैतन्यमंगल, अमिय निमाइचरित आदि विशेष रूप से पठनीय हैं। महाप्रभु की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए हैं।
द्वापरयुग में श्रीकृष्ण और राधा ने पृथक देह धारण करके श्री वृन्दावन धाम में लीलाएं की थीं। एक दूसरे के सौन्दर्य-माधुर्य को बढाते हुए प्रिया-प्रियतम ने स्थावर-जंगम सबको आनन्द दिया। यह ध्यान रहे कि प्रेम के विषय श्रीकृष्ण हैं परन्तु प्रेम का आश्रय राधाजी हैं। परस्पर एकात्मा होते हुए भी वे दोनों सामान्य प्राणियों को दो भिन्न स्वरूप लगे। श्रीकृष्ण को राधा के प्रेम, अपने स्वरूप के माधुर्य तथा राधा के सुख को जानने की इच्छा हुई। श्रीकृष्ण के मन में आया कि जैसे मेरा नाम लेकर राधा भाव-विह्वल होती हैं, वैसे मैं भी अपने नाम-रस की मधुरिमा का आस्वादन करूंगा। मैं जब राधा-भाव ग्रहण करूंगा, तभी मुझे राधा के प्रेम का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सकेगा। अस्तु राधा-भाव को अंगीकार करने के लिए ही श्री गौरांग का अवतार हुआ था।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने 32 अक्षरों वाले तारक ब्रह्महरिनाम महामन्त्र को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
कलिपावनावतार, प्रेम्भूति,भाव निधि श्री गौरांगदेव के उपदेशों का सार यह है-मनुष्य को निज कुल, विद्या, रूप, जाति और धनादि के अहंकार को त्यागकर सर्वस्व समर्पण के भाव से भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करना चाहिए। अन्त: करण की शुद्धि का यह सबसे सरल व सर्वोत्तम उपाय है। भक्त कीर्तन करते समय भगवत्प्रेम में इतना मग्न हो जाएं कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगे, उसकी वाणी गदगद और शरीर पुलकित हो जाए। भगवन्नाम के उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी संपूर्ण शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। भगवान का नाम स्वयं भगवान के ही तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप-तीनों एक हैं, अत: इनमें भेद न करें। नाम नामी को खींच लाता है। कलियुग में मुक्ति भगवन्नाम के जप से प्राप्त होगी।
hare krishn hare krishn krishn krishn hare hare
जवाब देंहटाएंhare ram hare ram ram ram hare hare
shyamshyama mere yugal sarker ki alaukik avtaar shri chaitany mahaprabhu ji ke shri charno me mera koti koti pranaam