जीवन के दो रूप हैं- स्वार्थ केन्द्रित और पर-केन्द्रित। एक तीसरा रूप है- परमार्थ- केन्द्रित जिसमें स्वार्थ और पर का भेद समाप्त हो जाता है। स्वार्थ- केन्द्रित जीवन भोग है, पर- केन्द्रित त्याग है और परमार्थ- केन्द्रित प्रेम है। भोग में घुटन है, त्याग में कष्ट है, प्रेम में आनंद है।
इसमें प्रेम के चार रूप हैं- भक्ति, श्रद्धा, मैत्री और स्नेह। अस्तित्व- मात्र के प्रति भक्ति है, बड़ों के प्रति प्रेम श्रद्धा है, बराबर वालों से प्रेम मैत्री है और छोटों के प्रति प्रेम स्नेह है। प्रेम के इन चारों ही रूपों में अहंकार का विसर्जन रहता है जिसे हमने अस्तित्व कहा उसे सामान्य भाषा में भगवान् कहते हैं। हम अस्तित्व का एक भाग हैं। इस बोध में भक्तिभाव उत्पन्न होता है। अस्तित्व ही अस्तित्व के लिए कुछ कर रहा है, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। यह भावभक्ति है।
अस्तित्व निराकार है। वह साकार बनता है हमारे परिवेश के रूप में। माता-पिता, गुरूजन भी अस्तित्व का ही रूप हैं। इसलिए इन्हें हम भगवान् ही कहते हैं-
"गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु:, गुरूर्देवो महेश्वर:। गुरू: साक्शात्परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।"
गुरूजनों के प्रति यह श्रद्धा हममें नमनीयता लाती है, ग्रहणशीलता लाती है। हम ग्रहणशील होते हैं तो कुछ सीख पाते हैं- 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्'। उद्दण्ड व्यक्ति कुछ नहीं सीख पाता। श्रद्धा में झुकना पड़ता है तो अहंकार छोड़ना पड़ता है। बराबर वालों से मैत्री होती है| मैत्री में परायापन नहीं होता। जिस रहस्य को हम किसी से नहीं कह सकते उसे मित्र से कह कर मन हल्का कर लेते हैं। मित्रता में अद्वैत रहता है। यह अद्वैत भी भगवान् का ही एक रूप है। अर्जुन की श्रीकृष्ण से मैत्री थी तो उसके लिए श्रीकृष्ण भगवान् ही बन गये।
अपने से छोटों के प्रति प्रेम स्नेह कहलाता है। यही वात्सल्य-रस है। हमारे यहाँ एक शब्द प्रचलित है- बाल-गोपाल। अर्थ यह है की छोटे बच्चे भी भगवान् का ही एक रूप हैं। वे सब कार्य नि:स्वार्थ-भाव से करते हैं। वे सरल होते हैं। उनमें अपने पराये का भेद नहीं होता। साधना का उत्कृष्ट रूप यह है की व्यक्ति बच्चा बन जाये। इस प्रकार प्रेम नर में ही नारायण की प्रतिष्ठा कर देता है। सेवा, त्याग, तपस्या आदि नैतिकता के शब्द हैं; प्रेम अध्यात्म का शब्द है। नैतिकता में दबाव रहता है कर्तव्य-भावना का। प्रेम में कोई दबाव नहीं होता।
अहंकार का पत्थर हटे तो प्रेम का झरना फूट सकता है। प्रेम ही ज्ञान है- 'ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।' प्रेम ही जीवन है। प्रेम के बिना व्यक्ति का सांस लेना ऐसा ही है जैसा लोहार की धौंकनी का चलना।
इसमें प्रेम के चार रूप हैं- भक्ति, श्रद्धा, मैत्री और स्नेह। अस्तित्व- मात्र के प्रति भक्ति है, बड़ों के प्रति प्रेम श्रद्धा है, बराबर वालों से प्रेम मैत्री है और छोटों के प्रति प्रेम स्नेह है। प्रेम के इन चारों ही रूपों में अहंकार का विसर्जन रहता है जिसे हमने अस्तित्व कहा उसे सामान्य भाषा में भगवान् कहते हैं। हम अस्तित्व का एक भाग हैं। इस बोध में भक्तिभाव उत्पन्न होता है। अस्तित्व ही अस्तित्व के लिए कुछ कर रहा है, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। यह भावभक्ति है।
अस्तित्व निराकार है। वह साकार बनता है हमारे परिवेश के रूप में। माता-पिता, गुरूजन भी अस्तित्व का ही रूप हैं। इसलिए इन्हें हम भगवान् ही कहते हैं-
"गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु:, गुरूर्देवो महेश्वर:। गुरू: साक्शात्परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।"
गुरूजनों के प्रति यह श्रद्धा हममें नमनीयता लाती है, ग्रहणशीलता लाती है। हम ग्रहणशील होते हैं तो कुछ सीख पाते हैं- 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्'। उद्दण्ड व्यक्ति कुछ नहीं सीख पाता। श्रद्धा में झुकना पड़ता है तो अहंकार छोड़ना पड़ता है। बराबर वालों से मैत्री होती है| मैत्री में परायापन नहीं होता। जिस रहस्य को हम किसी से नहीं कह सकते उसे मित्र से कह कर मन हल्का कर लेते हैं। मित्रता में अद्वैत रहता है। यह अद्वैत भी भगवान् का ही एक रूप है। अर्जुन की श्रीकृष्ण से मैत्री थी तो उसके लिए श्रीकृष्ण भगवान् ही बन गये।
अपने से छोटों के प्रति प्रेम स्नेह कहलाता है। यही वात्सल्य-रस है। हमारे यहाँ एक शब्द प्रचलित है- बाल-गोपाल। अर्थ यह है की छोटे बच्चे भी भगवान् का ही एक रूप हैं। वे सब कार्य नि:स्वार्थ-भाव से करते हैं। वे सरल होते हैं। उनमें अपने पराये का भेद नहीं होता। साधना का उत्कृष्ट रूप यह है की व्यक्ति बच्चा बन जाये। इस प्रकार प्रेम नर में ही नारायण की प्रतिष्ठा कर देता है। सेवा, त्याग, तपस्या आदि नैतिकता के शब्द हैं; प्रेम अध्यात्म का शब्द है। नैतिकता में दबाव रहता है कर्तव्य-भावना का। प्रेम में कोई दबाव नहीं होता।
अहंकार का पत्थर हटे तो प्रेम का झरना फूट सकता है। प्रेम ही ज्ञान है- 'ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।' प्रेम ही जीवन है। प्रेम के बिना व्यक्ति का सांस लेना ऐसा ही है जैसा लोहार की धौंकनी का चलना।
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