अहंकार और आत्मगौरव दोनों मनोभावों में मैं प्रधान होता है। मगर दोनों मनोभाव एक दूसरे के एकदम विपरीत होते हैं। मैंने देश के साथ कभी गद्दारी नहीं की - यह आत्मगौरव है। मेरे समान कोई दूसरा देशभक्त नहीं है- यह अहंकार है। आत्मगौरव व्यक्ति के चरित्र और स्वभाव को बल प्रदान करता है। अहंकार व्यक्ति के चरित्र और स्वभाव को केवल नष्ट ही नहीं करता, अहंकारी द्वारा कल्पित उसके नए चरित्र और स्वभाव को उसके मौलिक चरित्र और स्वभाव पर आरोपित कर देता है।
अहंकार के जन्म के कल्पनीय-अकल्पनीय असंख्य कारण हो सकते हैं। अहंकार सम्मान से भी उत्पन्न हो सकता है, अपमान से भी। वह सुख से भी उत्पन्न हो सकता है, दुख से भी, उपलब्धि से भी, अनुपलब्धि से भी, संपन्नता से भी, विपन्नता से भी, विजय से भी, पराजय से भी। मगर वह जिससे भी उत्पन्न हो, अहंकारी के ग्रहण करने की क्षमता के साथ-साथ उसके उचित-अनुचित विवेक को नष्ट कर देता है। वह इतना प्रबल और प्रभावशाली होता है कि वशिष्ठ जैसे ब्रह्म ज्ञान से संपन्न ब्राह्मण को भी आक्रांत कर सकता है, अपनी तपस्या और ब्रह्म-ज्ञान-साधन से राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र को भी।
ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र जुड़ा एक प्रसंग इसका एक सटीक उदाहरण है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जंगल में ध्यानमग्न थे कि अचानक उन्हें भगवान के कहीं निकट ही उत्पन्न होने का आभास हुआ। यह आभास होते ही वे आनंद से विह्वल हो उठे और फिर ध्यानमग्न होकर यह जानने की कोशिश करने लगे कि भगवान ने कहां अवतार लिया है। उन्होंने ध्यान में देखा कि भगवान ने अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी कौशल्या के गर्भ से राम के रूप में जन्म लिया है। इससे अधिक प्रसन्नता की और क्या बात हो सकती थी? उन्होंने फिर ध्यानमग्न होकर यह जानने की कोशिश की भगवान का सान्निध्य सुख उन्हें कैसे प्राप्त हो सकता है। जो उन्होंने जाना, उससे उनके अहंकार को गहरी ठेस लगी। वे राजर्षि से ब्रह्मर्षि तो हो गए थे, मगर सारे ब्रह्मज्ञान के बावजूद उनका क्षत्रियोचित अहंकार अभी भी नष्ट नहीं हुआ था। जिस वशिष्ठ को अपने ब्रह्मज्ञान से पराजित कर वे राजर्षि से ब्रह्मर्षि हुए थे, भगवान के सानिध्य-सुख का अवसर वशिष्ठ की अनुमति के बिना नहीं मिल सकता। यह विश्वामित्र का सौभाग्य था कि उनका अहंकार उन पर इतना हावी नहीं हुआ कि वे उस महान अवसर से वंचित रह जाते। वे वशिष्ठ की शरण में गए और यह आश्वासन प्राप्त करने में सफल हुए कि दशरथ के पुत्रों को शिक्षित करने का सौभाग्य उन्हें ही प्राप्त होगा।
लेकिन अहंकार शायद ही ऐसे विवेक का अवसर देता है। इसीलिए प्रत्येक अहंकार के त्याग का उपदेश करता है। जैन धर्म साधना की तो यह पहली शर्त है। जैन ग्रथों में इससे जुड़ी अनेक कहानियां प्राप्त होती हैं। एक कहानी के अनुसार एक राजा का पुत्र जब युवा हुआ और उसे राज्य के उत्तरदायित्व सौंपने के दिन करीब आए, राजा ने उसे उचित शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने गुरु के यहां भेजने का निर्णय किया। उन्होंने अपने पुत्र को बुलाकर शिक्षा के लिए उनके आश्रम में जाने का आदेश किया। पुत्र राजा का बेटा था, वैसा होने के अहंकार से भरा। स्वभावतर् उसने गुरु को भी अपने सेवकों की नजर से देखा। गुरु पर रौब जमाने की गरज से वह नौकर-चौकरों की एक पूरी फौज के साथ उनके आश्रम की ओर चला। गुरु को उसके इस अहंकार का पूर्वाभास हो गया।
उसने आश्रम में रहने वाले अपने शिष्यों को उसके आते ही उसे मार-पीट कर भगा देने का आदेश किया। पिटकर राजपुत्र वापस लौट गया। पिता से शिकायत की। पिता ने समझाया -तुमसे जरूर कोई भूल हुई होगी। इस बार अकेले जाओ। वे तुम्हें जरूर स्वीकार करेंगे। पिता की आज्ञा मानकर राजपुत्र दुबारा गया, पर अकेले। मगर आश्रम में प्रवेश करते ही गुरु के शिष्यों ने गुरु की आज्ञा से उसे फिर मार-पीट कर भगा दिया। बहरहाल राजपुत्र रोते-गाते फिर पिता के सामने उपस्थित हुआ। पिता ने फिर समझाया-तुमसे फिर कोई गलती हुई होगी। इस बार ऐसा करो कि आश्रम के बाहर विनीत भाव से बैठ जाओ। मन ही मन पूरी भक्ति के साथ प्रार्थना करते रहना कि हे गुरुदेव मुझे स्वीकार कीजिए। राजपुत्र ने वैसा ही किया। कई दिन गुजर गए, कुछ नहीं हुआ। मगर ध्यानमग्न राजपुत्र को किसी के आने न आने का ध्यान ही कहां था? एक दिन गुरु शिष्यों के साथ आए। और उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।
जैन-धर्म साधना में अहंकार का नाश इसीलिए पहली शर्त है क्योंकि अहंकार ज्ञान के मार्ग तो अवरुद्ध करता ही है, व्यक्ति को स्वभाव से भी विमुख कर देता है। वह अपने यथार्थ को भूल जाता है। ऐसा केवल साधारण व्यक्तियों के साथ ही नहीं होता है। भारतीय पुराणों-महाकाव्यों में परशुराम एक ऐसे ही महापुरुष हैं। परशुराम का नाम भी राम ही था, मगर क्षत्रियों के विनाश की प्रक्रिया में वे परशु की शक्ति से इस हद तक अभिभूत हो गए और उन्हें अपनी शक्ति का ऐसा ऐसा अहंकार हो गया कि वे स्वयं को राम की जगह परशुराम के नाम से जानने लगे। उन्हें अपना सब कुछ भूल गया-अपना विगत, अपना वंश, अपना ब्राह्मणत्व। शक्ति के अहंकार से अभिभूत परशुराम को सीता स्वयंवर के अवसर पर शिव के धनुष का राम द्वारा तोड़ा जाना असहज और अविश्र्वसनीय प्रतीत हुआ। वे राम की शक्ति से प्रसन्न न होकर राम लक्ष्मण को दंडित करने पर उतारू हो गए। राम के द्वारा उनके क्रोध को शांत करने का हर विनम्र उपाय उन्हें उदंडता लगे। क्षत्रिय चरित्र के अहंकार के कारण उन्हें भृगुवंशी होना, करुणामूर्ति कहा जाना गाली की तरह मालूम हुए।
जो अहंकार परशुराम जैसे महापुरुष के स्वभाव को नष्ट कर सकता है, उसे साधारण मनुष्यों के स्वभाव को नष्ट करने में कितना समय लग सकता है?
अहंकार के जन्म के कल्पनीय-अकल्पनीय असंख्य कारण हो सकते हैं। अहंकार सम्मान से भी उत्पन्न हो सकता है, अपमान से भी। वह सुख से भी उत्पन्न हो सकता है, दुख से भी, उपलब्धि से भी, अनुपलब्धि से भी, संपन्नता से भी, विपन्नता से भी, विजय से भी, पराजय से भी। मगर वह जिससे भी उत्पन्न हो, अहंकारी के ग्रहण करने की क्षमता के साथ-साथ उसके उचित-अनुचित विवेक को नष्ट कर देता है। वह इतना प्रबल और प्रभावशाली होता है कि वशिष्ठ जैसे ब्रह्म ज्ञान से संपन्न ब्राह्मण को भी आक्रांत कर सकता है, अपनी तपस्या और ब्रह्म-ज्ञान-साधन से राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र को भी।
ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र जुड़ा एक प्रसंग इसका एक सटीक उदाहरण है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जंगल में ध्यानमग्न थे कि अचानक उन्हें भगवान के कहीं निकट ही उत्पन्न होने का आभास हुआ। यह आभास होते ही वे आनंद से विह्वल हो उठे और फिर ध्यानमग्न होकर यह जानने की कोशिश करने लगे कि भगवान ने कहां अवतार लिया है। उन्होंने ध्यान में देखा कि भगवान ने अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी कौशल्या के गर्भ से राम के रूप में जन्म लिया है। इससे अधिक प्रसन्नता की और क्या बात हो सकती थी? उन्होंने फिर ध्यानमग्न होकर यह जानने की कोशिश की भगवान का सान्निध्य सुख उन्हें कैसे प्राप्त हो सकता है। जो उन्होंने जाना, उससे उनके अहंकार को गहरी ठेस लगी। वे राजर्षि से ब्रह्मर्षि तो हो गए थे, मगर सारे ब्रह्मज्ञान के बावजूद उनका क्षत्रियोचित अहंकार अभी भी नष्ट नहीं हुआ था। जिस वशिष्ठ को अपने ब्रह्मज्ञान से पराजित कर वे राजर्षि से ब्रह्मर्षि हुए थे, भगवान के सानिध्य-सुख का अवसर वशिष्ठ की अनुमति के बिना नहीं मिल सकता। यह विश्वामित्र का सौभाग्य था कि उनका अहंकार उन पर इतना हावी नहीं हुआ कि वे उस महान अवसर से वंचित रह जाते। वे वशिष्ठ की शरण में गए और यह आश्वासन प्राप्त करने में सफल हुए कि दशरथ के पुत्रों को शिक्षित करने का सौभाग्य उन्हें ही प्राप्त होगा।
लेकिन अहंकार शायद ही ऐसे विवेक का अवसर देता है। इसीलिए प्रत्येक अहंकार के त्याग का उपदेश करता है। जैन धर्म साधना की तो यह पहली शर्त है। जैन ग्रथों में इससे जुड़ी अनेक कहानियां प्राप्त होती हैं। एक कहानी के अनुसार एक राजा का पुत्र जब युवा हुआ और उसे राज्य के उत्तरदायित्व सौंपने के दिन करीब आए, राजा ने उसे उचित शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने गुरु के यहां भेजने का निर्णय किया। उन्होंने अपने पुत्र को बुलाकर शिक्षा के लिए उनके आश्रम में जाने का आदेश किया। पुत्र राजा का बेटा था, वैसा होने के अहंकार से भरा। स्वभावतर् उसने गुरु को भी अपने सेवकों की नजर से देखा। गुरु पर रौब जमाने की गरज से वह नौकर-चौकरों की एक पूरी फौज के साथ उनके आश्रम की ओर चला। गुरु को उसके इस अहंकार का पूर्वाभास हो गया।
उसने आश्रम में रहने वाले अपने शिष्यों को उसके आते ही उसे मार-पीट कर भगा देने का आदेश किया। पिटकर राजपुत्र वापस लौट गया। पिता से शिकायत की। पिता ने समझाया -तुमसे जरूर कोई भूल हुई होगी। इस बार अकेले जाओ। वे तुम्हें जरूर स्वीकार करेंगे। पिता की आज्ञा मानकर राजपुत्र दुबारा गया, पर अकेले। मगर आश्रम में प्रवेश करते ही गुरु के शिष्यों ने गुरु की आज्ञा से उसे फिर मार-पीट कर भगा दिया। बहरहाल राजपुत्र रोते-गाते फिर पिता के सामने उपस्थित हुआ। पिता ने फिर समझाया-तुमसे फिर कोई गलती हुई होगी। इस बार ऐसा करो कि आश्रम के बाहर विनीत भाव से बैठ जाओ। मन ही मन पूरी भक्ति के साथ प्रार्थना करते रहना कि हे गुरुदेव मुझे स्वीकार कीजिए। राजपुत्र ने वैसा ही किया। कई दिन गुजर गए, कुछ नहीं हुआ। मगर ध्यानमग्न राजपुत्र को किसी के आने न आने का ध्यान ही कहां था? एक दिन गुरु शिष्यों के साथ आए। और उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।
जैन-धर्म साधना में अहंकार का नाश इसीलिए पहली शर्त है क्योंकि अहंकार ज्ञान के मार्ग तो अवरुद्ध करता ही है, व्यक्ति को स्वभाव से भी विमुख कर देता है। वह अपने यथार्थ को भूल जाता है। ऐसा केवल साधारण व्यक्तियों के साथ ही नहीं होता है। भारतीय पुराणों-महाकाव्यों में परशुराम एक ऐसे ही महापुरुष हैं। परशुराम का नाम भी राम ही था, मगर क्षत्रियों के विनाश की प्रक्रिया में वे परशु की शक्ति से इस हद तक अभिभूत हो गए और उन्हें अपनी शक्ति का ऐसा ऐसा अहंकार हो गया कि वे स्वयं को राम की जगह परशुराम के नाम से जानने लगे। उन्हें अपना सब कुछ भूल गया-अपना विगत, अपना वंश, अपना ब्राह्मणत्व। शक्ति के अहंकार से अभिभूत परशुराम को सीता स्वयंवर के अवसर पर शिव के धनुष का राम द्वारा तोड़ा जाना असहज और अविश्र्वसनीय प्रतीत हुआ। वे राम की शक्ति से प्रसन्न न होकर राम लक्ष्मण को दंडित करने पर उतारू हो गए। राम के द्वारा उनके क्रोध को शांत करने का हर विनम्र उपाय उन्हें उदंडता लगे। क्षत्रिय चरित्र के अहंकार के कारण उन्हें भृगुवंशी होना, करुणामूर्ति कहा जाना गाली की तरह मालूम हुए।
जो अहंकार परशुराम जैसे महापुरुष के स्वभाव को नष्ट कर सकता है, उसे साधारण मनुष्यों के स्वभाव को नष्ट करने में कितना समय लग सकता है?
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