ऐसे असंख्य उत्तम गुणों व शक्तियों के कारण हंसों के प्रधान को लोग राजहंस कहने लगे।
एक दिन राजहंस अपने दल के साथ सरोवर में विहार करके अपने निवास को लौट रहा था। मार्ग में वह काशी राज्य के ऊपर से होकर निकला। पक्षियों के उस विशाल दल को देखने पर ऐसा लगता था, मानो सारे काशी राज्य पर सोने का वितान बिछा दिया गया हो।
काशी के राजा ने बड़े आश्चर्य से उस दल की ओर देखा। उन सभी पक्षियों में तारों के बीच चन्द्रमा के समान शोभायमान राजहंस को देखकर राजा जैसे उस पर मुग्ध हो गये।
काशी नरेश उस राजहंस के राजसी ठाट, तेज आदि राजोचित लक्षणों को देख बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सुन्दर फूल मालाएँ और पुजापा मँगवा कर राजहंस का अभिनन्दन किया।
राजहंस ने राजा का यह अपूर्व आतिथ्य बड़े ही स्नेहपूर्वक स्वीकार किया और सपरिवार कुछ दिन वहीं बिताकर अपने निवास को लौट गया।
उस दिन से राजहंस के प्रति काशी नरेश के मन में स्नेह बढ़ता गया। दिन रात वे उसी के बारे में सोचने लगे। वे पलक पांवड़े बिछाये राजहंस की प्रतीक्षा करते रहते कि न मालूम वह कब किस दिशा से उधर आ जाए।
एक दिन चित्रकूट पर्वत प्रदेश के हंसों में से दो बाल हंस राजहंस के पास आए और बोले, ‘‘राजन! हम दोनों कई दिनों से सूर्य के साथ होड़ लगाने की इच्छा कर रहे हैं।''
इस पर राजहंस ने समझाया- ‘‘अरे बच्चो! सूरज के साथ तुम्हारी दौड़ कैसी! कहाँ सूरज और कहाँ नन्हीं जान तुम! शायद तुम लोग नहीं जानते कि सूर्य की गति क्या है? तुम उन के साथ दौड़ नहीं सकते, इस दौड़ में प्राणों का खतरा भी हो सकता है! अज्ञानता वश तुम लोगों ने यह निर्णय कर लिया होगा। इसलिए तुम दोनों अपना यह कुविचार छोड़ दो।''
पर उन बालहंसों को हित की ये बातें अच्छी न लगीं। कुछ दिनों के बाद फिर उन बालहंसों ने राजहंस के पास आकर सूर्य के साथ उड़ने की अनुमति माँगी। इस बार भी राजहंस ने उन्हें मना कर दिया। फिर भी छोटे हंसों ने अपने विचार को नहीं त्यागा। कुछ दिनों के बाद तीसरी बार अनुमति माँगी। इस बार भी राजहंस ने स्वीकृति नहीं दी।
आखिर अपनी असमर्थता से अनजान हंस के वे दोनों बच्चे अपने नेता की स्वीकृति के बिना ही सूरज के साथ दौड़ लगाने के लिए युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचे। यह चोटी इतनी ऊँची थी, मानो आसमान से बातें कर रही हो।
इधर राजहंस ने अपने परिवार के सदस्यों की गिनती की तो पाया कि उन में दो हंसों की कमी है।
असली बात भॉंपने में राजहंस को देर न लगी। वह उनके लिए चिन्तित हो उठा। फिर सोचा, अब चिन्ता करने से क्या लाभ? किसी तरह से उन दो हंसों को पता लगाना है और उनकी रक्षा करनी ही होगी।
राजहंस शीघ्र ही युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचा और बालहंसों से आँख बचा कर एक जगह बैठ गया।
दूसरे दिन सूर्योदय होते ही बालहंस सूर्य के साथ उड़ने लगे।
राजहंस ने भी उन का अनुसरण किया।
उन बालहंसों में से छोटा हंस दोपहर तक उड़्रता रहा, फिर पंखों में जलन के कारण बेहोश हो गया। गिरते समय उसे राजहंस दिखाई पड़ा। वह निराश हो बोला, ‘‘राजन, मैं हार गया।''
इस पर राजहंस ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी सहायता के लिए हूँ।'' इस प्रकार प्यार भरे शब्दों में समझाकर उसे अपने पंखों पर चढ़ा लिया और अपने निवास में अन्य सदस्यों के बीच छोड़ दिया।
इस के थोड़ी देर बात दूसरे बालहंस के पंखों में भी पीड़ा होने लगी, मानों उसे सुइयों से चुभोया जा रहा हो।
आ़खिर थककर वह भी बेहोश होने लगा।
उसने भी राजहंस को देख दीनतापूर्वक बचाने की प्रार्थना की। उसे भी राजहंस ने अपने पंखों पर बिठा कर चित्रकूट पर पहुँचा दिया।
अपने परिवार के दो पक्षियों को सूर्य से परास्त होते देख राजहंस को बहुत दुख हुआ। वह यह अपमान सहन नहीं कर पाया। इसलिए वह स्वयं सूरज के साथ होड़ लगाने चल पड़ा।
अपूर्व क्षिप्र गति रखने वाला राजहंस अपनी उड़ान प्रारंभ करने के कुछ ही देर बाद सूर्य बिम्ब से जा मिला और पलक मारते उसे भी पार करके और ऊपर उड़ता चला गया। उसने केवल सूर्य की शक्ति का अनुमान लगाना चाहा था अन्यथा उसे सूर्य से होड़ लगाने की आवश्यकता ही क्या थी।
राजहंस इसलिए थोड़ी देर तक अपनी इच्छानुसार चक्कर काट कर भूलोक पर उतर आया और काशीराज्य में पहुँचा।
राजहंस की प्रतीक्षा में व्याकुल काशी नरेश उसे देखते ही आनन्द विभोर हो उठे।
राजहंस को राजा ने अपने स्वर्ण-सिंहासन पर बिठाया तथा स्वर्ण थाल में खीर और स्वर्ण कलश में शीतल शरबत से उसका आतिथ्य किया। राजहंस ने राजा का आतिथ्य स्वीकार कर सूर्य के साथ उड़ने का सारा वृत्तांत विस्तार के साथ राजा को सुनाया।
सारा वृत्तांत सुनकर राजा राजहंस की अलौकिक शक्ति पर बहुत प्रस हुए। फिर उन्होंने राजहंस से अनुरोध किया, ‘‘हे पक्षी राज, सूर्य के साथ होड़्र लगाने से भी कहीं अधिक अपनी महान शक्ति और प्रज्ञा दिखाइए। उस दृश्य को देखने की कई दिनों से मेरी प्रबल इच्छा है।''
राजहंस ने राजा को अपनी शक्ति का परिचय देने की स्वीकृति देते हुए कहा, ‘‘राजन, आप के राज्य में बिद्युत से भी अधिक द्रुतगति के साथ बाण चलानेवाले धनुर्धारी हों तो ऐसे चार व्यक्तियों को यहाँ बुलवाइए।'' राजा ने ऐसे चार धनुर्धारियों को बुलवाया।
राजा के उद्यान में एक चौकोर स्तम्भ था। राजहंस ने उस के चतुर्दिक चारों धनुर्धारियों को खड़ा कर दिया। इसके बाद वह अपने गले में एक घंटी बाँध कर स्तम्भ पर बैठ गया।
‘‘मेरा संकेत पाते ही तुम चारों अपने बाण छोड़ दो। क्षण भर में मैं तुम चारों के बाण लाकर तुम्हारे सामने रख दूँगा। पर तुम लोग मेरे कंठ में बंधी घण्टी की ध्वनि से ही मेरी गति का परिचय पा सकते हो। तुम लोग मुझ को उड़ते हुए देख न सकोगे।'' राजहंस ने उन धनुर्धारियों से कहा।
अपने वचन के अनुसार विद्युत की कौंध की अवधि के अन्दर राजहंस ने धनुर्धारियों के द्वारा छोड़े गये बाण लाकर उन के सामने रख दिये।
राजा तथा उनका परिवार विस्मय में आकर दातों तले अंगुली दबाने लगे।
इस पर राजहंस बोला, ‘‘राजन, आपने जो मेरी गति देखी है, यह मेरी निम्नतम गति है। इसके आधार पर आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी वास्तविक गति क्या होगी?'' राजा बड़्रे ही आतुर होकर बोले- ‘‘हे पक्षीराज, तुम्हारे वेग का नमूना तो मैंने देख लिया लेकिन क्या इससे भी अधिक वेग रखनेवाला कोई है?'' इस पर राजहंस ने कहा, ‘‘क्यों नहीं? मुझ से भी अनन्त गुना अधिक वेग रखने वाली एक महाशक्ति है। वही काल नामक सर्प है। वह काल सर्प प्रति क्षण विश्र्व के जीवों को अवर्णनीय वेग के साथ नष्ट कर रहा है।''
ये बातें सुन कर राजा भय से कांप उठे।
तब राजहंस के रूप में बोधिसत्व ने काशी राजा को इस प्रकार तत्वोपदेश दिया, ‘‘राजन, जो लोग इस बात का स्मरण रखते हैं कि काल सर्प नामक कोई चीज़ है, उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं है। आप जब तक नीति व धर्म के साथ शासन करते रहेंगे, तब तक आप को किसी का कोई भय न होगा। इसलिए आप विधिपूर्वक अपने कर्तव्य करते जाइए।''
बोधिसत्व के उपदेशानुसार काशी राजा ने धर्म मार्ग पर शासन करके अपार यश प्राप्त किया।
धन्य हुए कथा सुन कर.
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