कौशल नामक सुरम्य प्रदेश कल-कल करती हुई पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित है। धन-धान्य से परिपूर्ण सुन्दर नगरी अयोध्या इसकी राजधानी है। इस नगरी की स्थापना वैवस्वत मनु ने की थी। इस वंश में अनेक शूरवीर, पराक्रमी, प्रतिभाशाली तथा यशस्वी राजा हुये जिनमें से राजा दशरथ भी एक थे। राजा दशरथ चारों वेदों के ज्ञाता, रणकुशल, धर्मात्मा, दयालु और प्रजावत्सल थे तथा उनके राज्य में प्रजा सभी प्रकार से सुखी थी। उनकी प्रजा सत्य-परायण तथा ईश्वरभक्त थी और किसी के प्रति किसी का द्वेषभाव नहीं था।
एक दिन महाराज दशरथ को दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्वेत रंग का बाल दिखाई पड़ा और वे विचार करने लगे कि अब यौवन मेरा साथ छोड़ रहा है और अब तक मेरे वंश को आगे बढ़ाने वाला इस राज्य का उत्तराधिकारी मेरा पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ है। उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने का संकल्प किया। उन्होंने अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी को बुलाकर अपना मन्तव्य बताया और यज्ञ के लिये उचित विधान बताने का अनुरोध किया।
राजा दशरथ के विचारों को सर्वथा उचित और युक्ति संगत समझ कर गुरु वशिष्ठ जी ने कहा - "राजन्! मुझे विश्वास है कि पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने से आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। इसके लिये आपको अश्वमेघ यज्ञ करना होगा। आप शीघ्रातिशीघ्र यज्ञ के सामग्रियों की व्यवस्था करके एक सुन्दर श्यामकर्ण घोड़ा छोड़िये और सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञभूमि का निर्माण करवाइये। मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ ने रनिवास में जा कर अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुनाया और उन सबसे यज्ञ की दीक्षा लेने के लिये तैयार रहने का आग्रह किया। महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ प्रसन्न हो गईं।
राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म
महाराज की आज्ञानुसार यज्ञ भूमिका निर्माण हो गया और श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छोड़ दिया गया। सुसज्जित यज्ञशाला अत्यन्त मनोरम था। यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये देश देशान्तर से मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को बुलाया गया। सभी के एकत्रि हो जाने पर महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा महाराज के परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि के साथ यज्ञ मण्डप में पधारे और विधिवत इस महान यज्ञ का शुभारम्भ हुआ। समिधा की सुगन्ध से सम्पूर्ण वातावरण महकने लगा और वेदों की ऋचाओं का उच्च स्वर में पाठ होने लगा।
यज्ञ के समाप्ति होने पर राजा दशरथ ने समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा किया और यज्ञ के प्रसाद चरा को लेकर अपने महल में जाकर सभी रानियों में प्रसाद वितरित किया। इस प्रसाद को ग्रहण करने पर परमपिता परमात्मा की कृपा से वे सभी रानियाँ गर्भवती हुईं।
कालक्रम चलता रहा और चैत्र मास आ गया। शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे। कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से तेजोमय, परम कान्तिवान, अद्भुत सौन्दर्यशाली और श्यामवर्ण वाले शिशु का जन्म हुआ। जो भी उसे देखता ठगा सा रह जाता था। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी ने पुत्र को जन्म दिया। फिर तीसरी रानी सुमित्रा के गर्भ से दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। आकाश में देवता अपने-अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। राजद्वार पर भाट, चारण, आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों की भीड़ लग गई। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से सभी को दान दक्षिणा दी। प्रजा-जनों को धन-धान्य से और दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियों से पुरष्कृत किया गया। महर्षि वशिष्ठ ने चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार कराया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।
रामचन्द्र अपने भाइयों से आयु में बड़े होने के साथ ही साथ गुणों में भी उन से आगे थे एवं प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय थे। अपने विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने अल्प काल में ही समस्त विषयों में पारंगत हो गये। सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने में और हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त थी। माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे। शेष तीन भाई भी उनका अनुसरण करते थे। इन चारों भाइयों में गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द था। अपने पुत्रों को देख कर महाराज दशरथ का हृदय गर्व और आनन्द से भर उठता था।
एक दिन महाराज दशरथ को दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्वेत रंग का बाल दिखाई पड़ा और वे विचार करने लगे कि अब यौवन मेरा साथ छोड़ रहा है और अब तक मेरे वंश को आगे बढ़ाने वाला इस राज्य का उत्तराधिकारी मेरा पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ है। उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने का संकल्प किया। उन्होंने अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी को बुलाकर अपना मन्तव्य बताया और यज्ञ के लिये उचित विधान बताने का अनुरोध किया।
राजा दशरथ के विचारों को सर्वथा उचित और युक्ति संगत समझ कर गुरु वशिष्ठ जी ने कहा - "राजन्! मुझे विश्वास है कि पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने से आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। इसके लिये आपको अश्वमेघ यज्ञ करना होगा। आप शीघ्रातिशीघ्र यज्ञ के सामग्रियों की व्यवस्था करके एक सुन्दर श्यामकर्ण घोड़ा छोड़िये और सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञभूमि का निर्माण करवाइये। मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ ने रनिवास में जा कर अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुनाया और उन सबसे यज्ञ की दीक्षा लेने के लिये तैयार रहने का आग्रह किया। महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ प्रसन्न हो गईं।
राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म
महाराज की आज्ञानुसार यज्ञ भूमिका निर्माण हो गया और श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छोड़ दिया गया। सुसज्जित यज्ञशाला अत्यन्त मनोरम था। यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये देश देशान्तर से मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को बुलाया गया। सभी के एकत्रि हो जाने पर महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा महाराज के परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि के साथ यज्ञ मण्डप में पधारे और विधिवत इस महान यज्ञ का शुभारम्भ हुआ। समिधा की सुगन्ध से सम्पूर्ण वातावरण महकने लगा और वेदों की ऋचाओं का उच्च स्वर में पाठ होने लगा।
यज्ञ के समाप्ति होने पर राजा दशरथ ने समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा किया और यज्ञ के प्रसाद चरा को लेकर अपने महल में जाकर सभी रानियों में प्रसाद वितरित किया। इस प्रसाद को ग्रहण करने पर परमपिता परमात्मा की कृपा से वे सभी रानियाँ गर्भवती हुईं।
कालक्रम चलता रहा और चैत्र मास आ गया। शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे। कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से तेजोमय, परम कान्तिवान, अद्भुत सौन्दर्यशाली और श्यामवर्ण वाले शिशु का जन्म हुआ। जो भी उसे देखता ठगा सा रह जाता था। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी ने पुत्र को जन्म दिया। फिर तीसरी रानी सुमित्रा के गर्भ से दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। आकाश में देवता अपने-अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। राजद्वार पर भाट, चारण, आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों की भीड़ लग गई। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से सभी को दान दक्षिणा दी। प्रजा-जनों को धन-धान्य से और दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियों से पुरष्कृत किया गया। महर्षि वशिष्ठ ने चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार कराया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।
रामचन्द्र अपने भाइयों से आयु में बड़े होने के साथ ही साथ गुणों में भी उन से आगे थे एवं प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय थे। अपने विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने अल्प काल में ही समस्त विषयों में पारंगत हो गये। सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने में और हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त थी। माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे। शेष तीन भाई भी उनका अनुसरण करते थे। इन चारों भाइयों में गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द था। अपने पुत्रों को देख कर महाराज दशरथ का हृदय गर्व और आनन्द से भर उठता था।
Ramayan ki katha jitani bar padho utani bar anand deti hai. Tis par Aapki shaili bhee bahut achchee hai. Jari rakhen.
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