जंगल में एक हथिनी रहा करती थी। एक दिन उसके पैर में एक चैला फंस गया जिस से उसका पैर सूझकर दर्द करने लगा। बड़ी कोशिश करके भी वह उस चैले को पैर से निकाल न पाई। इस बीच उसे पेड़ काटने की आवाज़ सुनाई दी। हथिनी लंगड़ाते उनके नज़दीक़ पहुँची।
हथिनी को देखते ही बढ़इयों ने भांप लिया कि वह किसी पीड़ा से परेशान है। इस बीच हथिनी आकर बढ़इयों के सामने लेट गई। बढ़इयों ने छेनी से हथिनी के पैर का चैला निकाला और उसके घाव पर मरहम पट्टी की।
थोड़े ही दिनों में हथिनी चलने-फिरने लायक़ हो गई। इस उपकार के बदले में हथिनी बढ़इयों की मदद करने लगी। वह गिरे हुए पेड़ों को उठाकर ला देती। काटी गई तख़्तियों और पाटियों को नदी के पास नावों तक पहुँचा देती। इस वजह से बढ़इयों और हथिनी के बीच दोस्ती बढ़ती गई। पाँच सौ बढ़ई अपने खाने का थोड़ा हिस्सा हथिनी को खिलाने लगे।
कई दिन बीत गये। हथिनी का एक बच्चा हुआ। वह ऐरावत जाति का था और उसका रंग सफ़ेद था। हथिनी जब बूढ़ी हो गई और उसमें चलने-फिरने की ताक़त न रही, तब वह अपने बच्चे को बढ़इयों के हाथ सौंपकर जंगल में चली गई। इसके बाद सफ़ेद हाथी बढ़इयों की मदद करने लगा। उनके हाथ का खाना खा लेता और उनके बच्चों को अपनी पीठ पर बिठाकर जंगल में घुमा देता। नदी में उन्हें नहलाता और ख़ुशी के साथ अपने दिन गुजार देता था। बढ़ई लोग हाथी को अपने बच्चे के बराबर प्यार करते थे। हाथी उनके परिवार के सदस्य की तरह उनके लिए उपयोगी बनने की कोशिश करता था।
राजा ब्रह्मदत्त को जब यह ख़बर मिली कि जंगल में एक उत्तम नस्ल का सफ़ेद हाथी है, तब वे उसे पकड़ ले जाने के लिए सदल-बल जंगल में चले आये।
बढ़इयों ने सोचा कि राजा मकान बनाने की लकड़ी के वास्ते जंगल में आये हुए हैं। उन लोगों ने राजा को समझाया, ‘‘महाराजा, आप मेहनत उठाकर इस जंगल में क्यों आये? हमें ख़बर कर देते तो ख़ुद हम लकड़ी आपके महल में पहुँचा देते?''
‘‘मैं लकड़ी ले जाने के वास्ते नहीं आया हूँ; सफ़ेद हाथी को पकड़ ले जाने के वास्ते आया हूँ।'' राजा ने अपने दिल की बात बताई।
बढ़इयों को यह सुनकर बहुत दुख हुआ। लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। आखिर यह राजा की इच्छा थी और राजा अपने राज्य में कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र था। उन्होंने यह भी सोचा कि राजा के पास हाथी अधिक सुख और शान के साथ रह सकेगा। इसीलिए हाथी के जाने का दुख होते हुए भी वे राजी हो गये।
‘‘तब तो आप हाथी को अपने साथ ले जाइये।'' बढ़इयों ने उत्तर दिया।
मगर बड़ी कोशिश के बावजूद हाथी टस से मस न हुआ। इस पर राजा का एक कर्मचारी असली बात ताड़ गया और बोला, ‘‘महाराज, यह एक विवेकशील जानवर है। आप अगर इस हाथी को अपने साथ ले जायेंगे तो इन बढ़इयों का भारी नुक़सान होगा। इसका मुआवजा देने पर ही हाथी यहाँ से निकल सकता है।''
राजा ने हाथी के चारों पैर और सूंड के पास एक एक लाख सोने के सिक्के रखकर बढ़इयों को बॉंटने का आदेश दिया। तिस पर भी हाथी वहाँ से नहीं हिला।
इसके बाद राजा ने बढ़इयों की औरतों और बच्चों को कपड़े दिये, तब जाकर हाथी राजा के पीछे चल पड़ा। इसके बाद राजा गाजे-बाजे के साथ हाथी को काशी नगर में ले गये। उसे राजसी अलंकारों से सजाया संवारा गया। फिर सारी गलियों में उसका जुलूस निकाला गया।
अंत में उसके वास्ते एक बढ़िया गज शाला बनाकर उसमें रखा गया। उसकी सेवा के लिए सैकड़ों नौकर-चाकर रखे गये। उसके भोजन का विशेष प्रबन्ध किया गया। वह हाथी राजा का पट्ट हाथी बना। उस पर सिवाय राजा के कोई सवार नहीं हो सकता था।
नगर में उस हाथी के आने के बाद काशी राज्य की सीमा और यश चारों तरफ़ फैलने लगा। उसके प्रभाव से बड़े-बड़े राजा भी काशी राजा से बुरी तरह हार जाते थे। राज्य में सुख-शान्ति और खुशहाली बढ़ने लगी। प्रजा में एक दूसरे के लिए प्रेम और सौहार्द बढ़ने लगा।
कुछ दिन बाद काशी की रानी गर्भवती हुई। उसके गर्भ में बोधिसत्व ने प्रवेश किया। रानी के प्रसव में एक हफ़्ता ही रह गया था; इस बीच काशी राजा का स्वर्गवास हो गया । यह मौक़ा देख कोसल देश के राजा ने काशी राज्य पर अचानक एक दिन हमला कर दिया । मंत्रियों ने आपस में सलाह-मशविरा किया और आख़िर कोसल राजा के पास यह संदेश भेजा, ‘‘आपने कायर की तरह धोखे से हमारे राज्य पर आक्रमण कर दिया है, जब कि सारा राज्य अपने राजा की मृत्यु पर शोक में डूबा हुआ है। यह नीचता है। एक अच्छे पड़ोसी राजा होने के नाते आप को हमारे साथ सम्वेदना और सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिये था। खैर, जो भी हो, हमारी रानी का एक हफ़्ते के अन्दर प्रसव होनेवाला है, अगर महारानी ने एक बच्ची को जन्म दिया तो आप काशी राज्य पर बिना युद्ध और रक्तपात के कब्जा कर लीजिये । यदि रानी ने एक लड़के को जन्म दिया तो हम लोग आप के साथ युद्ध करेंगेऔर देश के लिए मर मिटेंगे और जीते जी शत्रुओं को सीमा के अन्दर आने नहीं देंगे।''
कोसल राजा ने उन्हें एक हफ़्ते की मोहलत दी। एक हफ़्ते के पूरा होते ही महारानी ने बोधिसत्व को जन्म दिया। काशी राजा की सेनाएँ कोसल सेना के साथ जूझ गईं। मगर उस युद्ध में कोसल का हाथ ऊँचा मालूम होने लगा। उस हालत में मंत्रियों ने महारानी के पास जाकर निवेदन किया, ‘‘महारानी जी, हमारे पट्ट हाथी का ल़ड़ाई के मैदान में प्रवेश करने पर ही हमारी विजय हो सकती है, लेकिन महाराजा के स्वर्गवास के दिन से लेकर पट्ट हाथी खाना-पीना व नींद को भी तज कर दुख में डूबा हुआ है। हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया जाये।''
मंत्रियों के मुँह से ये बातें सुनते ही महारानी प्रसूती के कमरे में उठ बैठी, अपने शिशु को राजोचित पोशाक पहनाकर पट्ट हाथी के पास ले गई।
शिशु को उसके पैरों के सामने रखकर प्रणाम करके बोली, ‘‘गजराज, आप अपने मालिक के स्वर्गवास पर चिंता न कीजिए। देखिये, अब यही राजकुमार आपका मालिक है। लड़ाई के मैदान में इसके दुश्मनों का हाथ ऊँचा है। आप जाकर उन्हें हरा दीजिए। वरना इस राजकुमार को अपने पैरों के नीचे कुचलकर मार डालिये।'' रानी के मुँह से ये बातें निकलने की देर थी कि हाथी का दुख जाता रहा। उसने प्यार से राजकुमार को अपनी सूंड से ऊपर उठाया और अपने मस्तक पर बिठा लिया। फिर राजकुमार को रानी के हाथ में सौंप कर लड़ाई के मैदान की ओर चल पड़ा।
हाथी का रौद्र रूप और भयंकर गर्जन करते और अपनी ओर बढ़ते देख कोसल राज्य के सैनिकों का कलेजा कांप उठा। वे तितर-बितर होकर भागने लगे। किसी सैनिक को उसके सामने आने का साहस नहीं हुआ। जो भी उसके सामने आ जाता, उसे कुचलता-रौंदता, उछालता हुआ हाथी तूफान की तरह आगे बढ़ता गया और सीधे कोसल राजा के पास पहुँचा। उनको अपनी सूंड में लपेट कर ले आया और काशी के राजकुमार के पैरों के पास डाल दिया। कोसल राजा ने राजकुमार के चरण छूकर माफ़ी माँग ली। काशी राज्य के मंत्रियों ने उनको क्षमा कर वापस भेज दिया।
बोधिसत्व के सात साल की उम्र होने तक हाथी ने काशी राज्य की रक्षा की। इसके बाद बोधिसत्व गद्दी पर बैठे और उस हाथी को अपना पट्ट हाथी बनाकर बड़ी दक्षता के साथ शासन करने लगे।
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