दोनों पुत्रों की पैदाइश के दो साल बाद रानी का देहांत हो गया। इस पर राजा ने दूसरा विवाह किया। कुछ समय बाद नई रानी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। यह ख़बर सुनते ही राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने रानी से कहा, ‘‘रानी, इस शुभ अवसर पर तुम कोई वर मांग लो।''
‘‘यह वर मैं अपनी ज़रूरत के व़क्त मांग लूँगी।'' रानी ने जवाब दिया।
छोटी रानी के पुत्र का नाम आदित्य था। उसने राजोचित सारी विद्याएँ सीख लीं। जब आदित्य जवान हो गया, तब एक दिन रानी ने राजा से कहा, ‘‘महाराज, आपने आदित्य के जन्म के समय वर मांगने को कहा था, उसे अब मैं मांगती हूँ। आप आदित्य को युवराजा के रूप में अभिषेक कीजिए।''
यह सुनकर राजा निश्चेष्ट हो गये और थोड़ी देर सोचकर बोले, ‘‘मेरी पहली पत्नी के दो पुत्रों के होते हुए आदित्य को मैं युवराजा कैसे बना सकता हूँ? यह न्याय संगत नहीं है।''
मगर रानी को जब भी मौक़ा मिलता वह अपने पुत्र को युवराजा बनाने की इच्छा प्रकट कर राजा को सताने लगी। राजा ने भांप लिया कि रानी अपना हठ नहीं छोड़ेगी। उनके मन में यह संदेह भी पैदा हुआ कि रानी के द्वारा बड़े राजकुमारों की कोई हानि भी हो सकती है। इसलिए वे उन्हें बचाने का उपाय दिन-रात सोचने लगे।
राजा ने एक दिन अपने दोनों बड़े पुत्रों को बुलवाकर सारी बातें समझाईं और बोले, ‘‘तुम दोनों थोड़े समय के लिए नगर को छोड़कर कहीं और रह जाओ। मेरे बाद तुम्ही लोगों को यह राज्य प्राप्त होगा, इसलिए उस व़क्त लौटकर राज्य का भार संभाल सकते हो। तब तक तुम दोनों भूल से भी इस राज्य के अन्दर प्रवेश न करना।''
अपने पिता की इच्छा के अनुसार महाशासन और सोमदत्त नगर को छोड़कर जब राज्य की सीमा पर पहुँचे, तब उन लोगों ने देखा कि छोटा राजकुमार आदित्य भी उनके पीछे चला आ रहा है। तीनों मिलकर कुछ दिनों के बाद हिमालय के जंगलों में पहुँचे।
एक दिन वे तीनों अपनी यात्रा की थकान मिटाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उस व़क्त महाशासन ने आदित्य से कहा, ‘‘मेरे छोटे भैया! उधर देखो, एक सरोवर दिखाई दे रहा है! तुम वहाँ जाकर अपनी प्यास बुझा लो और हमारे लिए कमल पत्रों वाले दोने में पानी ले आओ।''
आदित्य जाकर ज्यों ही सरोवर में उतरा, त्यों ही जल पिशाच उसे पकड़ कर जल के नीचे वाले अपने घर में ले गया। बड़ी देर तक आदित्य को न लौटते देख महाशासन चिंतित हुआ और इस बार महाशासन ने सोमदत्त को भेजा। उसको भी जल पिशाच ने पकड़ लिया।
थोड़ी देर तक इंतजार करने के बाद महाशासन अपने भाइयों को लौटते न देख खतरे की आशंका करके तलवार लेकर ख़ुद चल पड़ा। वह सरोवर में उतरे बिना किनारे पर खड़े हो पानी की ओर परख कर देख रहा था । इसे भांपकर जल पिशाच ने अंदाजा लगाया कि ये अपने भाइयों के जैसे जल्दबाजी में आकर जल में न उतरेंगे।
इसके बाद जल पिशाच एक बहेलिये का वेष धरकर महाशासन के पास आया और बोला, ‘‘खड़े खड़े देखते क्या हो? प्यास लगी है तो सरोवर में उतर कर प्यास क्यों नहीं बुझाते?''
यह सलाह पाकर महाशासन ने सोचा कि दाल में कुछ काला है, तब बोला, ‘‘तुम्हारा व्यवहार देखने पर मुझे शक होता है कि तुमने ही मेरे दोनों भाइयों को गायब कर डाला है।''
‘‘तुम तो विवेकशील मालूम होते हो। मैं सच्ची बात बता देता हूँ, ज्ञानी लोगों को छोड़ बाक़ी सभी लोगों को, जो इस सरोवर के पास आते हैं, पकड़ कर मैं बन्दी बनाता हूँ। यह तो कुबेर का आदेश है!'' जल पिशाच ने कहा।
‘‘इसका मतलब है कि तुम ज्ञानियों से उपदेश पाना चाहते हो! मैं तुम्हें ज्ञानोपदेश कर सकता हूँ! लेकिन थका हुआ हूँ।'' महाशासन ने कहा। झट जल पिशाच उसे पानी के तल में स्थित अपने निवास में ले गया। अतिथि सत्कार करने के बाद उसे उचित आसन पर बिठाया। वह ख़ुद उसके चरणों के पास बैठ गया।
महाशासन ने जो कुछ अपने गुरुओं से सीखा था, वह सारा परम ज्ञान जलपिशाच को सुनाया। दूसरे ही क्षण जलपिशाच बहेलिये का रूप त्यागकर अपने निज रूप में आकर बोला, ‘‘महात्मा, आप महान ज्ञानी हैं ! मैं आपके भाइयों में से एक को देना चाहता हूँ। दोनों में से आप किसको चाहते हैं?''
‘‘मैं आदित्य को चाहता हूँ।'' महाशासन ने कहा।
‘‘बड़े को छोड़ छोटे की मांग करना क्या धर्म संगत होगा।'' जलपिशाच ने पूछा।
‘‘इसमें अधर्म की बात क्या है? अपनी माँ की संतान में से मैं बचा हुआ हूँ, ऐसी हालत में मेरी सौतेली माँ के भी एक पुत्र तो होना चाहिए न? अपने भ्रातृ-प्रेम से प्रेरित होकर यह भोला आदित्य हमारे पास चला आया है। अगर हम दोनों बड़े भाई नगर को लौट जायें, तब लोग हमसे पूछें कि आदित्य कहाँ है? तब हमारा यह कहना कहाँ तक न्याय संगत होगा कि जलपिशाच ने उसे निगल डाला है?'' यों महाशासन ने जलपिशाच से उल्टा सवाल पूछा।
इस पर जलपिशाच ने महाशासन के चरणों में प्रणाम करके कहा, ‘‘आप ज़ैसे महान ज्ञानी को मैंने आज तक नहीं देखा है, मैं आपके दोनों छोटे भाइयों को मुक्त कर देता हूँ। आप लोग इस जंगल में मेरे अतिथि बनकर रहिए!''
इस पर महाशासन और उसके छोटे भाई जलपिशाच के अतिथि बनकर रह गये। थोड़े समय बाद उन्हें ख़बर मिली कि उनके पिता ब्रह्मदत्त का स्वर्गवास हो गया है। इस पर महाशासन अपने दोनों छोटे भाइयों तथा जलपिशाच को साथ ले काशी चले गये।
महाशासन का राज्याभिषेक हुआ। तब उसने सोमदत्त को अपने प्रतिनिधि के रूप में तथा आदित्य को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। अपना उपकार करने वाले जलपिशाच के वास्ते एक सुंदर निवास का प्रबंध किया और उसकी सेवा के लिए नौकर नियुक्त किया।
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