भरत अपने भाई शत्रुघ्न के साथ कैकेय पहुँच कर आनन्दपूर्वक अपने दिन बिताने लगे। उनके मामा अश्वपति उनसे उतना ही प्रेम करते थे जितना कि उनके पिता राजा दशरथ। इस स्नेह के कारण उन्हें ऐसा प्रतीत होता था मानो वे ननिहाल में न होकर अपने ही घर अयोध्या में हों। इतना होने पर भी उन्हें समय-समय अपने पिता का स्मरण हो आता था और वे उनके दर्शनों के लिये व्याकुल हो उठते थे। यही दशा राजा दशरथ की भी थी। यद्यपि राम और लक्ष्मण उनके पास रहते हुये सदैव उनकी सेवा में संलग्न रहते थे, फिर भी वे भरत और शत्रुघ्न से मिलने के लिये अनेक बार आतुर हो उठते थे। परन्तु राम और लक्ष्मण को देखकर वे अपने मन को सन्तोष कर लेते थे।
राम भी अपने सद्बुणों का निरन्तर विस्तार कर रहे थे। अबवे पहले की अपेक्षा अधिक निरभिमान पराक्रम का परिचय दे रहे थे। राजकाज से समय निकाल कर आध्यात्मिक स्वाध्याय करते थे। वेदों का सांगोपांग अध्ययन करना और सूत्रों के रहस्यों का उद्घाटन करके उन पर मनन करना उनका स्वभाव बन गया था। दीनों पर दया और दुष्टों का दमन करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। जितने वे दयालु थे, उससे भी कई गुना कठोर वे आततायी को दण्ड देने में थे। मन्त्रियों की नीतियुक्त बातें ही नहीं सुनते थे बल्कि अपनी ओर से भी उन्हें तर्क सम्मत अकाट्य युक्तियाँ प्रस्तुत करके परामर्श दिया करते थे। युद्धों में अनेक बार उन्होंने सेनापति का दायित्व संभालकर दुर्द्धुर्ष शत्रुओं को अपने पराक्रम से पराजित किया था। जहाँ-जहाँ भी वे भ्रमण और देशाटन के लिये गये वहाँ के प्रचलित रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक धारणाओं का अध्ययन किया, उन्हें समझा और उनको यथोचित सम्मान दिया। उनके क्रिया कलापों को देख कर लोगों को विश्वास हो गया कि रामचन्द्र क्षमा नें पृथ्वी के समान, बुद्धि-विवेक में वृह्पति के समान और शक्ति में साक्षत् देवताओं के अधिपति महाराज इन्द्र के समान हैं। जब भी राम अयोध्या के सिंहासन को सुशोभित करेंगे, उनका राज्य अपूर्व सुखदायक होगा और वे अपने समय के सर्वाधिक योग्य एवं आदर्श नरेश सिद्ध होंगे। यह बात प्रजा के मस्तिष्क में ही नहीं स्वयं राजा दशरथ के मस्तिष्क में भी थी।
राजा दशरथ अब शीघ्रातिशीघ्र राम का राज्याभिषेक कर देना चाहते थे। उन्होंने मन्त्रियों को बुला कर कहा, "हे मन्त्रिगण! अब मैं वृद्ध हो चला हूँ और रामचन्द्र राजसिंहासन पर बैठने के योग्य हो गये हैं। मेरी प्रबल इच्छा है कि शीघ्रातिशीघ्र राम का राज्याभिषक कर दूँ। मेरे इस विचार पर आप लोगों की सम्मति लेने के लिये ही मैंने आप लोगों को यहाँ पर बुलाया है, कृपया आप सभी अपनी सम्मति दीजिये।" राजा दशरथ के इस प्रस्ताव को सभी मन्त्रियों ने प्रसन्नता पूर्वक मान लिया। शीघ्र ही राज्य भर में राजतिलक की तिथि की घोषणा कर दी गई और देश-देशान्तर के राजाओं को इस शुभ उत्सव में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण पत्र भेज दिये गये। थोड़े ही दिनों में देश-देश के राजा महाराजा, वनवासी ऋषि-मुनि तथा स्थान-स्थान के विद्वान तथा दर्शगण इस अनुपम उत्सव में भाग लेने के लिये अयोध्या में आकर एकत्रित हो गये। आये हुये सभी अतिथियों का यथोचित स्वागत सत्कार हुआ तथा समस्त सुविधाओं के साथ उनके ठहरने की व्यस्था कर दी गई। निमन्त्रण भेजने का कार्य इतनी उतावली में हुआ कि मन्त्रीगण मिथिला पुरी और महाराज कैकेय के पास निमन्त्रण भेजना ही भूल गये। जब राजतिलक के केवल दो दिन ही रह गये तो मन्त्रियों को इसका ध्यान आया। वे अत्यन्त चिन्तित हो गये और डरते-डरते अपनी भूल के विषय में महाराज दशरथ को बताया। यह सुनकर महाराज को बहुत दुःख हुआ किन्तु अब कर ही क्या सकते थे? सब अतिथि आ गये थे इसलिये राजतिलक की तिथि को टाला भी नहीं जा सकता था। अतएव वे बोले, "अब जो हुआ सो हुआ, परन्तु बात बड़ी अनुचित हुई है। अस्तु वे लोग घर के ही आदमी हैं, उन्हें बाद में सारी स्थिति समझाकर मना लेंगे।"
आगे पढ़ें :-
राजतिलक की तैयारी
कैकेयी कोपभवन में
कैकेयी द्वारा वरों की प्राप्ति
राम का वनवास
माता कौशल्या से विदा
सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह
पिता के अन्तिम दर्शन
राम के द्वारा दान
वन के लिये प्रस्थान
तमसा के तट पर
भीलराज गुह
गंगा पार करना
ऋषि भारद्वाज के आश्रम में
चित्रकूट की यात्रा
चित्रकूट में
सुमन्त का अयोध्या लौटना
श्रवण कुमार की कथा
राजा दशरथ की मृत्यु
भरत और शत्रुध्न की वापसी
दशरथ की अन्त्येष्टि और भरत का वनगमन
राम और भरत का मिलाप
महर्षि अत्रि का आश्रम
21 जुलाई 2010
रामायण - अयोध्याकाण्ड - अयोध्याकाण्ड आरम्भ ( Ramayana - Ayodhyakand - Ayodhyakand Start )
Labels: रामायण
Posted by Udit bhargava at 7/21/2010 09:42:00 pm
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
एक टिप्पणी भेजें