एक दिन महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में बैठे हुये परमपिता परमात्मा का चिन्तन कर रहे थे, तभी परम प्रभुभक्त महर्षि नारद भगवान के नाम का संकीर्तन करते हुये और वीणा की स्वर लहरी गुँजाते हुये वाल्मीकि जी के आश्रम में पहुँचे। अपने यहाँ नारद जी का पदार्पण होते देख ऋषिश्रेष्ठ वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुये और उनका सब प्रकार से आदर-सत्कार करके उन्हें बैठने के लिये उचित आसन प्रदान किया। फिर नारद जी ने कुशल-मंगल पूछकर मुनिराज भगवद् चर्चा करने लगे। सहसा उन्होंने प्रश्न किया, "हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद जी! आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और देश-देशान्तरों में भ्रमण करते हैं, नाना प्रकार के प्राणियों के बीच विचरण करते हैं। इसलिये कृपा करके यह बताइये कि इस समय सारे भूमण्डल और नव द्वीपों में ऐसा कौन सा अपूर्व मेधावी, विद्वान, परोपकारी एवं ज्ञान विज्ञान में पारंगत, धर्मात्मा तथा समस्त सद्गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति है जो मनुष्यमात्र का ही नहीं, चर-अचर और प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिये सदैव तत्पर रहता हो? जिसने अपने पराक्रम और त्याग से सम्पूर्ण इन्द्रियों, विषय-वासनाओं एवं मन को वश में कर लिया हो, जो कभी क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृतियों के वशीभूत न होता हो? यदि ऐसा कोई महापुरुष आपकी दृष्टि में आया हो तो कृपया सम्पूर्ण वृतान्त मुझे सांगोपांग सुनाइये। उसकी पुण्य कथा सुन कर मैं कृतार्थ होना चाहता हूँ।"
महर्षि वाल्मीकि का प्रशन सुनकर तीनों लोकों का भ्रमण करने वाले नारद जी ने कहा, "हे मुनिराज! आपने जिन गुणों का वर्णन किया है ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति का इस पृथ्वी तल पर मिलना अत्यंत दुर्लभ है। फिर भी एक अद्भुत गरिमामय व्यक्ति के चरित्र का आपके सामने करता हूँ। उसमें आपके बताये हुये सभी गुण ही नहीं हैं, बल्कि वे गुण भी हैं जिनकी आपने चर्चा नहीं की है और जो जन-साधारण की कल्पना से परे हैं| ऐसी महान विभूति का नाम रामचन्द्र है। उन्होंने वैवस्वत मनु के वंश में महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया है। वे अत्यंत वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं। इस युग में तो उनके जैसा धीर, वीर, बली, विक्रमी, सत्यवक्ता, सदाचारी, गौ-ब्राह्मण-साधु प्रतिपालक, शत्रुओं और कुबुद्धि राक्षसों का विनाश करने वाला अभूतपूर्व त्यागी, कृपासिन्धु ढूंढने से भी नहीं मिलेगा| देखने में वे अत्यंत सुंदर, कामदेव को भी लज्जित करने वाले, किशलय से भी कोमल और समरभूमि में वज्र से भी कठोर हैं। कवि की सभी उपमायें उनके व्यक्तित्व के सामने हेय प्रतीत होती हैं। जैसा उनका हृदय निर्मल है, चरित्र उज्जवल है, वैसा ही उनका शरीर निर्मल एवं कांतिमय है। उनका हृदय समुद्र से भी अधिक उदार और विचार नगराज हिमालय से भी महान है।"
नारद जी द्वारा श्री रामचन्द्र जी का यह विशद वर्णन सुनकर वाल्मीकि जी बहुत अधिक प्रभावित हुये। उन्होंने नारद जी से प्रार्थना की, "मुनिराज! कृपा करके मुझे ऐसे महान पुरुष का सम्पूर्ण चरित्र एवं क्रिया-कलाप विस्तारपूर्वक सुनाइये। उन्हें सुनकर मैं अपना जीवन धन्य कारना चाहता हूँ।" उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर के नारद मुनि ने राम की सम्पूर्ण कथा महर्षि वाल्मीकि को संक्षेप में कह सुनाई। उन्होंने बताया कि किस प्रकार अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हुये, जिनमें से राम और लक्ष्मण को मुनि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिये अपने साथ आश्रम में ले गये। फिर वे राजा जनक द्वारा आयोजित शिव धनुष यज्ञ एवं सीता स्वयंवर में भाग लेने के लिये जनकपुरी गये। सीता से विवाह कर के जब वे अयोध्या लौटे तो प्रजाहित की भावना से राजा दशरथ ने उन्हें युवराज पद देना चाहा। तभी राम की सौतेली माँ कैकेयी ने वर माँग कर राम को वनवास दिला दिया। सीता और लक्ष्मण भी उनके साथ गये। पुत्र वियोग में महाराजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिये। श्रंगवेरपुर में निवास कर राम राक्षसों का विनाश करते हुये आगे बढ़े। मार्ग में जिस प्रकार सीता का रावण द्वारा हरण हुआ, हनुमान सुग्रीव आदि से मिलाप हुआ। इसके पश्चात् जिस प्रकार राम ने बालि का वध किया और लंकापति रावण का कुल सहित नाश करके उसके भाई विभीषण को लंका का राज्य सौंपा तथा सीता सहित अयोध्या लौट आये। यह सारी राम कथा उन्होंने संक्षेप में कह सुनाई| इस कथा को सुन कर ऋषि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुये। उन्होंने अति आदर सत्कार और पूजा करके नारद जी को विदा किया।
महर्षि नारद के चले जाने के पश्चात् वाल्मीकि जी शिष्य मंडली के साथ भ्रमण करते हुये तमसा नदी के तट पर पहुँचे| वहाँ पर वे प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि एक निर्दयी व्याघ्र ने कामरत क्रौंच पक्षी के एक जोड़ में से नर पक्षी को मार गिराया तथा नर पक्षी के वियोग में मादा पक्षी क्रन्दन करने लगी। इस दृश्य ने वाल्मीकि के हृदय को व्यथा और करुणा से परिपूर्ण कर दिया। अनायास ही उनके मुख से व्याघ्र के लिये ये शाप निकल गया - अरे बहेलिये, तू ने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी।
इस घटना के कारण वाल्मीकि का हृदय अशांत रहने लगा। इसी अशांत अवस्था के मध्य एक दिन उनके आश्रम में ब्रह्मा जी पधारे। महर्षि वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी की अभ्यर्थना तथा समुचित आदर सत्कार करने के पश्चात् अपनी अशांति के विषय में उन्हें बताया। इस पर ब्रह्मा जी ने कहा, "हे मुनिराज! आप श्री राम के चरित्र का काव्यमय गुणगान करके ही इस अशांति को दूर कर सकते हैं। आपके इस काव्य से न केवल आपकी अशांति ही दूर होगी वरन् वह काव्य समस्त संसार के लिये भी हितकारी होगा। इस कार्य को पूर्ण करने के लिये मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ रहेगा।"
ब्रह्मा जी के इस प्रस्ताव को गम्भीरता पूर्वक स्वीकार कर उनके चले जाने के पश्चात् दत्तचित्त होकर वाल्मीकि जी राम का चरित्र लेखन में व्यस्त हो गये।
महर्षि वाल्मीकि का प्रशन सुनकर तीनों लोकों का भ्रमण करने वाले नारद जी ने कहा, "हे मुनिराज! आपने जिन गुणों का वर्णन किया है ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति का इस पृथ्वी तल पर मिलना अत्यंत दुर्लभ है। फिर भी एक अद्भुत गरिमामय व्यक्ति के चरित्र का आपके सामने करता हूँ। उसमें आपके बताये हुये सभी गुण ही नहीं हैं, बल्कि वे गुण भी हैं जिनकी आपने चर्चा नहीं की है और जो जन-साधारण की कल्पना से परे हैं| ऐसी महान विभूति का नाम रामचन्द्र है। उन्होंने वैवस्वत मनु के वंश में महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया है। वे अत्यंत वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं। इस युग में तो उनके जैसा धीर, वीर, बली, विक्रमी, सत्यवक्ता, सदाचारी, गौ-ब्राह्मण-साधु प्रतिपालक, शत्रुओं और कुबुद्धि राक्षसों का विनाश करने वाला अभूतपूर्व त्यागी, कृपासिन्धु ढूंढने से भी नहीं मिलेगा| देखने में वे अत्यंत सुंदर, कामदेव को भी लज्जित करने वाले, किशलय से भी कोमल और समरभूमि में वज्र से भी कठोर हैं। कवि की सभी उपमायें उनके व्यक्तित्व के सामने हेय प्रतीत होती हैं। जैसा उनका हृदय निर्मल है, चरित्र उज्जवल है, वैसा ही उनका शरीर निर्मल एवं कांतिमय है। उनका हृदय समुद्र से भी अधिक उदार और विचार नगराज हिमालय से भी महान है।"
नारद जी द्वारा श्री रामचन्द्र जी का यह विशद वर्णन सुनकर वाल्मीकि जी बहुत अधिक प्रभावित हुये। उन्होंने नारद जी से प्रार्थना की, "मुनिराज! कृपा करके मुझे ऐसे महान पुरुष का सम्पूर्ण चरित्र एवं क्रिया-कलाप विस्तारपूर्वक सुनाइये। उन्हें सुनकर मैं अपना जीवन धन्य कारना चाहता हूँ।" उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर के नारद मुनि ने राम की सम्पूर्ण कथा महर्षि वाल्मीकि को संक्षेप में कह सुनाई। उन्होंने बताया कि किस प्रकार अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हुये, जिनमें से राम और लक्ष्मण को मुनि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिये अपने साथ आश्रम में ले गये। फिर वे राजा जनक द्वारा आयोजित शिव धनुष यज्ञ एवं सीता स्वयंवर में भाग लेने के लिये जनकपुरी गये। सीता से विवाह कर के जब वे अयोध्या लौटे तो प्रजाहित की भावना से राजा दशरथ ने उन्हें युवराज पद देना चाहा। तभी राम की सौतेली माँ कैकेयी ने वर माँग कर राम को वनवास दिला दिया। सीता और लक्ष्मण भी उनके साथ गये। पुत्र वियोग में महाराजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिये। श्रंगवेरपुर में निवास कर राम राक्षसों का विनाश करते हुये आगे बढ़े। मार्ग में जिस प्रकार सीता का रावण द्वारा हरण हुआ, हनुमान सुग्रीव आदि से मिलाप हुआ। इसके पश्चात् जिस प्रकार राम ने बालि का वध किया और लंकापति रावण का कुल सहित नाश करके उसके भाई विभीषण को लंका का राज्य सौंपा तथा सीता सहित अयोध्या लौट आये। यह सारी राम कथा उन्होंने संक्षेप में कह सुनाई| इस कथा को सुन कर ऋषि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुये। उन्होंने अति आदर सत्कार और पूजा करके नारद जी को विदा किया।
महर्षि नारद के चले जाने के पश्चात् वाल्मीकि जी शिष्य मंडली के साथ भ्रमण करते हुये तमसा नदी के तट पर पहुँचे| वहाँ पर वे प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि एक निर्दयी व्याघ्र ने कामरत क्रौंच पक्षी के एक जोड़ में से नर पक्षी को मार गिराया तथा नर पक्षी के वियोग में मादा पक्षी क्रन्दन करने लगी। इस दृश्य ने वाल्मीकि के हृदय को व्यथा और करुणा से परिपूर्ण कर दिया। अनायास ही उनके मुख से व्याघ्र के लिये ये शाप निकल गया - अरे बहेलिये, तू ने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी।
इस घटना के कारण वाल्मीकि का हृदय अशांत रहने लगा। इसी अशांत अवस्था के मध्य एक दिन उनके आश्रम में ब्रह्मा जी पधारे। महर्षि वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी की अभ्यर्थना तथा समुचित आदर सत्कार करने के पश्चात् अपनी अशांति के विषय में उन्हें बताया। इस पर ब्रह्मा जी ने कहा, "हे मुनिराज! आप श्री राम के चरित्र का काव्यमय गुणगान करके ही इस अशांति को दूर कर सकते हैं। आपके इस काव्य से न केवल आपकी अशांति ही दूर होगी वरन् वह काव्य समस्त संसार के लिये भी हितकारी होगा। इस कार्य को पूर्ण करने के लिये मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ रहेगा।"
ब्रह्मा जी के इस प्रस्ताव को गम्भीरता पूर्वक स्वीकार कर उनके चले जाने के पश्चात् दत्तचित्त होकर वाल्मीकि जी राम का चरित्र लेखन में व्यस्त हो गये।
Valmiki is a Vedic Sage.
उत्तर देंहटाएंHe wrote the first epic of the human civilization
to spread kundalini Yoga
Sundara Kanda is nothing but Kundalini Yoga
Trijata Swapna in Sundara Kanda is nothing but Gayathri Mantra
Sita is Aadi Paraa Shakthi .
Hanuman and Ravana are Kundalini Yogis
of Samaya and Kaula Paths.
Please read Shodasi : Secrets of the Ramayana
by Seshendra Sharma ( http://seshendrasharma.weebly.com )
Reviews: www.facebook.com/shodasi/
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