गीता में कृष्ण कहते हैं- 'चार प्रकार से व्यक्ति मेरी भक्ति करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी और अर्थार्थी। मनुष्य जब
दुखी होता है, तब मेरी भक्ति करता है। जब तक उसे कोई पीड़ा नहीं सताती, वह मुझे कभी याद नहीं करता।
आम्रपाली अपने समय की प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार बुद्ध से कहा- 'भंते! आप मेरे पास कभी नहीं आते।' बुद्ध बोले- 'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' वह बूढ़ी हो गई। उसका शारीरिक लावण्य मिट गया। अब उसके पास कोई नहीं आता था। तब बुद्ध पहुंचे और बोले- 'प्रिय! मैं आ गया।' आम्रपाली ने कहा- 'भंते! अब समय बीत गया। अब मुझ में बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य अब नहीं रहा। आप आज क्यों आए?' बुद्ध ने कहा- 'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तुझे अब महसूस हो रही है। मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।'
पीड़ा और दुख के समय भगवान और धर्म को याद किया जाता है। जब व्यक्ति महसूस करता है कि उसकी उपेक्षा हो रही है, सब उसको सता रहे हैं, वह बूढ़ा और शिथिल हो गया है, व्याकुलता बढ़ गई है, मन बेचैन है- तब उसे भगवान याद आते हैं, धर्म की बात याद आ जाती है।
पर ज्यादा श्रेयस्कर यह होगा कि व्यक्ति भगवान और धर्म की याद जिज्ञासु होकर, ज्ञानी होकर या अर्थार्थी होकर करे। जिज्ञासु होकर मनुष्य ईश्वर को तब याद करता है, जब उसके मन में यह जिज्ञासा जाग जाती है कि मैं सत्य का साक्षात्कार करूं। मैं यह जानूं कि आत्मा क्या है? चैतन्य क्या है? मोक्ष क्या है? उस जिज्ञासु अवस्था में व्यक्ति की जिज्ञासा की उपासना कर अपने को समाहित करना चाहता है। जिज्ञासा सत्य तक पहुंचाने वाला मार्ग है।
तीसरी अवस्था ज्ञानी की है। यह वह अवस्था है, जिसमें ज्ञानी व्यक्ति परम की उपासना करता है, ईश्वर और सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ज्ञान की आराधना सत्य की आराधना है। ज्ञानी जान जाता है कि संसार में सार क्या है और निस्सार क्या है। वह जानता है कि सत्य का मार्ग कौन-सा है।
चौथी स्थिति में अर्थार्थी व्यक्ति भगवान की उपासना करता है। जब व्यक्ति के मन में पदार्थ की आकांक्षा उभर जाती है, वह उसकी पूर्ति के लिए भगवान की उपासना करता है, धर्म की आराधना करता है।
ध्यान रहे कि धार्मिकता का एक अर्थ अंत:करण की पवित्रता से है। वह धर्म की रुचि होने मात्र से प्राप्त नहीं होती, बल्कि उसकी साधना से प्राप्त होती है। संसार में साधना करने वाले धार्मिक बहुत कम है। ज्यादातर तो धार्मिक सिद्धि चाहने वाले लोग हैं। वे धर्म को इसलिए नहीं चाहते कि उससे जीवन पवित्र बने, किंतु वे उसे इसलिए चाहते हैं कि उससे भोग मिलें। आज का धर्म भोग से इतना आच्छन्न है कि त्याग और भोग के बीच कोई विभाजक रेखा ही नहीं जान पड़ती। धर्म का क्रांतिकारी रूप तब होता है, जब वह जन-मानस को भोग-त्याग की ओर अग्रसर करे।
आज त्याग भोग के लिए अग्रसर हो रहा है। यह वह कीटाणु है जो धर्म के स्वरूप को विकृत बना डालता है। धर्म तो जीवन की अनिवार्य जरूरत है। जब धर्म की पूर्ति नहीं होगी, तो जीवन में मानसिक संतुलन का अभाव तो अवश्य पैदा होगा। मानसिक संतुलन का अभाव अर्थात शांति का अभाव। शांति का अभाव अर्थात सुखानुभूति का अभाव। पदार्थ सुख के कारण तो जरूर हैं, पर उनसे सुख की अनुभूति नहीं होती। सुख की अनुभूति तो मन और मन से जुड़ी हुई इंद्रियों को होती है। वह तभी होती है, जब मन संतुलित और शांत होता है।
जहां त्याग और भोग की रेखाएं आस-पास आती हैं, धर्म अर्थ से संयुक्त होता है, वहां धर्म अधर्म से अधिक भयंकर बन जाता है। यदि हम चाहते हैं कि धर्म पुन: प्रतिष्ठित हो तो हम उसके विशुद्ध रूप का अध्ययन करें। आज ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो बुद्धि से प्रताड़ित न हो और शक्ति से हीन न हो।
25 जून 2010
दुख के समय भगवान और धर्म क्यों याद आता है?
Posted by Udit bhargava at 6/25/2010 08:02:00 am
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इस सार्थक पोस्ट के लिये बधाई। आस्था और विश्वास ही ऐसी चीज़ है जो मुश्किल मे काम आती है उसी का नाम भगवान है। उससे शक्ति प्राप्त हो तभी उसे याद किया जाता है़ शुभकामनायें
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