पाण्डवगण दुर्योधन से अपमानित होकर हस्तिनापुर के वर्द्धमानपुर वाले द्वार से निकल कर उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करने लगे। हस्तिनापुर की प्रजा भी रोती-बिलखती उनके पीछे-पीछे चल रही थी। जब प्रजा उनके साथ बहुत दूर तक आ गई तो अत्यन्त कठिनाई से युधिष्ठिर ने उन्हें समझा-बुझा कर नगर वापस भेजा। सन्ध्याकाल तक वे गंगा के तट तक पहुँच गये। रात्रि उन्होंने गंगा तट पर ही एक विशाल वट वृक्ष के नीचे व्यतीत की। प्रातःकाल होने पर यधिष्ठिर की भेंट शौनक ऋषि से हुई। शौनक ऋषि ने युधिष्ठिर से कहा, "हे धर्मराज! मैं जानता हूँ कि आप लोग बारह वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास के लिये निकले हैं। इस अवधि को सुगम बनाने के लिये मेरी सलाह है कि आप भगवान सूर्य की उपासना करें।" इतना कह कर वे चले गये।
धर्मराज युधिष्ठिर ने पुरोहित धौम्य से सूर्य के एक सौ आठ नामों का वर्णन करते हुये सूर्योपासना की विधि सीखी और सफलतापूर्वक भगवान सूर्य की आराधना की। उनकी उपासना से प्रसन्न हो कर भगवान सूर्य ने उन्हें दर्शन दिया और कहा, "हे पाण्डवश्रेष्ठ! तुमने मेरी अति उत्तम उपासना की है। तुम्हारी उपासना से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें यह अक्षयपात्र प्रदान कर रहा हूँ। इस अक्षयपात्र से तुम्हारी गृहणी समस्त प्रकार के भोज्य पदार्थ प्राप्त कर पायेगी, जिससे वह ब्राह्मणों, भिक्षुकों आदि को भोजन कराने के पश्चात् तुम लोगों की क्षुधा शांत करने में सर्वदा समर्थ रहेगी। किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने के पश्चात् इस पात्र की क्षमता दूसरे दिन तक समाप्त हो जाया करेगी तथा दूसरे दिन इस पात्र की भोजन प्रदान करने की क्षमता पुनः वापस आ जाया करेगी।" इतना कहकर सूर्य नारायण ने युधिष्ठिर को ताम्र से बना वह अक्षयपात्र प्रदान किया और अन्तर्ध्यान हो गये।
इधर पाण्डवों के वनगमन के पश्चात् धृतराष्ट्र को बड़ी व्याकुलता हुई। धृतराष्ट्र पाण्डवों की भलाई तो चाहते थे किन्तु उनका मोह अपने दुष्ट, अन्यायी तथा अत्याचारी पुत्रों के प्रति अधिक था और वे सदा दुर्योधन के वश में रहते थे। इस प्रकार की मनोस्थिति के कारण धृतराष्ट्र की बुद्धि कभी स्थिर न हो पाती थी। उन्होंने विदुर को बुला कर कहा, "विदुर! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे कौरवों और पाण्डवों में मित्रता हो जाये?" विदुर ने उत्तर दिया, "धर्म और न्याय के आचरण से ही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फल प्राप्त होते हैं। किन्तु आपके पुत्र अधर्मी और अन्यायी हैं, इसलिये पाप से मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है कि आप पाण्डवों को पुनः वापस बुलवा कर उन्हें उनका राज्य सम्मान के साथ लौटा दें। दुष्ट शकुनि को गान्धार वापस भेज दें और यदि दुर्योधन आपकी आज्ञा की अवहेलना करे तो उसे भी बन्दीगृह में डाल दीजिये।" विदुर के वचनों को सुन कर धृतराष्ट्र क्रोधित होकर बोले, "विदुर! तुम सदैव पाण्डवों के हित और मेरे पुत्रों के अनिष्ट की बातें करते हो। दूर हो जाओ मेरी दृष्टि से।"
धृतराष्ट्र के कठोर वचन सुन कर विदु वहाँ से वन में पाण्डवों के पास आ गये। पाण्डवगण सदैव विदुर को पूज्य, सम्माननीय तथा अपना हितचिन्तक समझते थे और उनकी नीतियुक्त वचनों का पालन किया करते थे। विदुर ने युधिष्ठिर से कहा, "वत्स! मैं चाहता हूँ कि तुम सभी भाइयों में परस्पर प्रेम तथा एकता सदैव बनी रहे क्योंकि इसी के बल पर तुम अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकोगे।" युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उनके इस उपदेश को स्वीकार किया।
विदुर को कठोर वचन कहने के कुछ दिनों के बाद धृतराष्ट्र को अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने संजय के द्वारा विदुर को वन से वापस बुलवाकर कहा, "विदुर! क्या करूँ, मैं अपने पुत्रमोह को अत्यन्त प्रयास करने के पश्चात् भी नहीं छोड़ सकता और न ही तुम्हारे बिना जीवित रह सकता हूँ। मुझे अपने कहे गये कठोर वचनों के लिये अत्यन्त दुःख है।" धृतराष्ट्र के पश्चाताप को देख कर विदुर ने उन्हें क्षमा कर दिया।
इधर पाण्डवों को वन में निरीह, निहत्था तथा सेनारहित जानकर कौरवों ने उन्हें मार डालने की योजना बना कर एक विशाल सेना का संगठन कर लिया और पाण्डवों से युद्ध करने का अवसर खोजने लगे। दुर्योधन द्वारा तैयार किये गये इस योजना में उनके परम मित्र कर्ण का भी समर्थन था। योगबल से उनकी योजना के विषय में वेदव्यास को ज्ञात हो गया और धृतराष्ट्र के पास आकर उन्होंने कहा, "धृतराष्ट्र! तुम्हारे पुत्रगण पाण्डवों को वन में मार डालने की योजना बना चुके हैं। आप उन्हें रोकें अन्यथा कौरवों का शीघ्र नाश हो जायेगा।" इस पर धृतराष्ट्र बोले, "हे महर्षि! उस दुर्बुद्धि दुर्योधन को आप ही समझायें।" वेदव्यास ने उत्तर दिया, "वत्स! मैं तुम्हारे अन्यायी और अत्याचारी पुत्रों का मुख नहीं देखना चाहता, अतः मैं जा रहा हूँ। अभी यहाँ पर मैत्रेय ऋषि आने वाले हैं। तुम उन्हीं से प्रार्थना करना कि वे तुम्हारे पुत्रों को समझायें।"
कुछ काल पश्चात् मैत्रेय ऋषि वहाँ पधारे। धृतराष्ट्र के द्वारा यथोचित सत्कार प्राप्त करने के पश्चात् वे बोले, "राजन्! मैं अभी पाण्डवों से भेंट कर के आ रहा हूँ। वहाँ तुम्हारे पुत्रों के द्वारा किये हुये अन्याय और अत्याचार की बात सुनी। भीष्म, द्रोण एवं तुम्हारे जैसे गुरुजनों के होते हुये पाण्डवों के साथ अन्याय हुआ वह कदापि उचित नहीं हुआ।" फिर धृतराष्ट्र की प्रार्थना पर वे दुर्योधन को समझाते हुये बोले, "दुर्योधन! तुम मेरी सलाह मान कर पाण्डवों से सन्धि कर लो और अपने कुल की रक्षा करो।" मैत्रेय ऋषि के वचनों को मानना तो दूर, दुर्योधन उनकी बातें सुन कर जोर जोर से हँसने लगा और अपनी जंघा ठोंक ठोंक कर उनका उपहास करने लगा। दुर्योधन की असभ्यता से मैत्रेय ऋषि क्रोधित हो उठे और बोले, "रे दुष्ट! तू अपनी जंघा ठोंक ठोंक कर मेरा अपमान कर रहा है। मैं तुझे शाप देता हूँ कि युद्ध में भीम तेरी इसी जंघा को अपनी गदा से तोड़कर तुझे और तेरे भाइयों को यमलोक पहुँचायेगा।" इतना कहकर मैत्रेय जी वहाँ से प्रस्थान करने के लिये उठ खड़े हुये। यह देख कर धृतराष्ट्र उनके चरणों में गिर पड़े और अपने पुत्र के अपराध को क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे। उनकी इस प्रार्थना पर मैत्रेय ऋषि ने कहा, "धृतराष्ट्र! यदि तुम्हारा पुत्र पाण्डवों से सन्धि कर लेगा तो मेरे शाप का प्रभाव समाप्त हो जायेगा अन्यथा मेरे शाप को पूर्ण होने से कोई नहीं रोक सकता।" इतना कह कर मैत्रेय ऋषि वहाँ से चले गये।
22 जून 2010
महाभारत - दुर्योधन को शाप
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Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 07:30:00 pm
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