वेदान्त आश्रम में प्रवचन सुनाते हुए स्वामी देवेंद्रानन्दगिरी ने कहा कि सुख देकर दुख लेना महापुरुषों का स्वभाव है। अपने दुख से तो पशु-पक्षी भी दुखी होते हैं, पर सत्पुरुषों का कोमल हृदय पर पीडा से पीडित होता है जिससे जीवन में त्याग और प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। मगर यह सब तभी संभव है जब मानव का अपनी इंद्रियों पर पूर्ण काबू होता है।
पंडित जी ने कहा कि इंद्रियों के अधीन रहने वाला मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता है। विष को खाने से तो एक बार ही मृत्यु होती है परन्तु विषयों के भोगी को तो अनेकों बार मरना पडता है। विष को खाकर मनुष्य बच भी जाता है पर विषय-भोगी तो भोगते-भोगते स्वयं ही भुगत जाता है।
आश्चर्यजनक है कि यह सब जानते हुए भी मनुष्य भोगों से नहीं हटता। इस दृष्टि से हर वस्तु, व्यक्ति, अवस्था और परिस्थिति निरंतर हमारा त्याग कर रहे हैं। यदि अपनी ओर से उनकी ममता और कामना का त्याग कर दिया जाए तो हमें उनकी याद नहीं आएगी। हमें दुख भले ही अरुचिकर लगें मगर ये सुख आने की सुचना के प्रतीक माने जाते हैं।
मनुष्य के विकास के लिए जीवन में दुखों का आना जरूरी होता है क्योंकि दुखों के समय ही मनुष्य के मन में उनसे लडकर तरक्की करने की इच्छा पैदा होती है। हम सब इतना साधन जानते हैं जितना इस जीवन में कर ही नहीं सकते और जितना करने की आवश्यकता भी नहीं है। हमारी जो रुचि साधक संबंधी चर्चा सुनने में है वह रुचि साधन करने में नहीं है। हमारी शक्ति तो सीमित ही है। यदि इस सीमित शक्ति को हमने साधन की चर्चा में ही व्यय कर दिया तो फिर साधन करने के लिए सामर्थ्य कहां से आयेगा।
मन की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। अपनी पसन्द के प्रभाव का समूह ही मन है जिसे हम पसन्द करते हैं उसके साथ हमारा मन लग जाता है और जिसको नापसन्द करते हैं वहां से मन हट जाता है। उन्होंने कहा कि कमी होते हुए कमी का अनुभव न करना परम भूल है क्योंकि इस भूल से ही सभी भूलें उत्पन्न होती है। सच्चा साधक जो सुनता है उसे अपने जीवन में उतार लेता है। चिंता रहित होते ही साधक इंद्रियां अविषय हो जाती है। मन निर्विकल्प हो जाता है और बुद्धि सम हो जाती है।
22 जून 2010
सुख देकर दुख लेना महापुरुषों का स्वभाव
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 09:47:00 pm
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