अन्य श्रोता - मैं बूढा हो गया हूँ. काम करने में असमर्थ हूँ. मेरे बेटे मेरी सेवा नहीं करते. वे मेरी बात नहीं मानते, उलटे मेरा तिरस्कार करते हैं. मैं क्या करूं?
संत - यूनान के प्रसिद्द दार्शनिक सुकरात एक बार भ्रमण करते हुए किसी शहर में पहुंचे. वहां उन्हें एक वृद्ध व्यक्ति मिला. सुकरात ने उससे व्यक्तिगत जीवन के विषय में पूछा. वह वृद्ध व्यक्ति बोला कि 'मैं अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को देकर निश्चिन्त हूँ. वे जो कहते हिं, कर देता हूँ, जो खिलाते हैं, खा लेता हूँ और अपने पुत्र-पुत्रियों के साथ हँसता-खेलता रहता हूँ. बच्चे कुछ भूल करते हैं तो भी चुप रहता हूँ. मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता. पर जब कभी वे परामर्श लेने आते हैं, तब मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखकर, जीवन में की हुई भूल से उत्पन्न दुष्परिणामों की ओर से उन्हें सचेत कर देता हूँ. वे मेरी सलाह पर कितना चलते हैं, यह देखना और अपना मष्तिष्क खराब करना मेरा काम नहीं है. वे मेरे निर्देशों पर ही चलें, यह आग्रह मैं नहीं रखता. परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता. उस पर भी यदि वे पुनः मेरे पास आते हैं तो मेरा द्वार सदैव उनके लिये खुला रहता है. मैं पुनः उचित सलाह देकर उन्हें विदा करता हूँ.
वृद्ध की बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने भलीभांति समझ लिया है.
अन्य श्रोता - घर में बहुत कष्ट आते हैं. एक ज्योतिषी ने बताया कि मेरी ग्रहदशा खराब छल रही है. किसी ने बताया कि मकान में वास्तुदोष है. एक पंडित जी ने पित्रदोश बताया. मैंने सब उपाय कर लिये. अपना मकान भी वास्तु के अनुसार ठीक करा लिया, पर स्थिति में सुधार नहीं हुआ. अब कृपा करके आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?
संत - भैया ! मकान ठीक कराने से वास्तुदोष तो दूर हो गया, पर प्रारब्धदोष ठीक नहीं हुआ. मूल में सब प्रारब्ध का ही भोग है. एक श्लोक आता है -
वैघा वदन्ति कफ़पित्तमरूद्विकारा-
ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति।
भूताभिषडंग इति भूतविदो वदन्ति
प्रारब्धकर्म बलवन्युनयो वदन्ति॥
'रोगों के उत्पन्न होने में वैघलोग कफ, पित्त और वाट को कारण मानते हैं, ज्योतिषी लोग ग्रहों की गति को कारण मानते हैं, प्रेत्विघा वाले भूत-प्रेतों के प्रविष्ट होने के कारण मानते हैं, परन्तु मुनिलोग प्रारब्ध-कर्म को ही बलवान(कारण) मानते हैं.'
प्रारब्ध खराब हो तो ग्रह भी खराब हो जाते हैं, मकान भी खराब मिलता है, मित्र भी शत्रु हो जाते हैं, लाभ की जगह भी हानि हो जाती है! इसलिए अपनी ओरसे दुःख-निवारण का उपाय करना तो ठीक है, पर उपाय करने पर भी परिस्थिति न बदले तो उसे भगवान की इच्छा समझकर संतोष करना ही बढ़िया है.
मेरी चाही मत करो, मैं मूरख अग्यान।
तेरी चाही में प्रभो, है मेरा कल्याण॥
संतों का दिया यह महामंत्र भली भांति ग्रहण कर लो-
’करने’ में सावधान, ’होने’ में प्रसन्न!
अन्य श्रोता - मेरा जवान बेटा मर गया है. उसके शोक में मैं रात-दिन डूबा रहता हूँ. मेरा जीवन अंधकारमय हो गया है.
संत - संसार के सभी संबंध ऋणानुबन्ध से है. पुत्र आता है तो वह पूर्वजन्म के संबंध से, लेने के लिये अथवा देने के लिये आता है, पुत्र के साथ जो लें-दें का संबंध था, वह पूरा होते ही पुत्र चला गया. इसमें शोक कैसा?
पुत्र पहले नहीं था, पीछे आया. अब वह चला गया तो तुम वही-के-वही (पहले जैसे) रह गए. पुत्र के जाने का जो दुःख होता है, वह मोह से होता है. संत राज्जबजी एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहे थे. रास्ते में उन्हें एक रस्सा पडा हुआ मिला गया. उसे उठाकर उन्होंने कंधे पर रख लिया. जब गाँव पहुंचे तो देखा की रसा कंधे पर नहीं था, रास्ते में ही कहीं गिर गया. वे बोले-
पहले जैसा मन कर ले भाया,
रज्जब रस्सा मूंज का, पाया न पाया॥
संसार का कोई भी संबंध सदा रहने वाला नहीं है. सभी संबंध मिलने और बिछुड़ने वाले हैं. जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग अवश्यंभावी है. अतः जो भी संबंध हैं, उनके प्रति अपने कर्ताव्यका पालन कर दे, उनकी सेवा कर दे, पर बदले में कोई आशा न रखे.
पिछले जन्मों में तुम्हारे कई पुत्र हुए होंगे, अब उनकी स्मृति (याद) भी है क्या? जैसे उनकी अब स्मृति नहीं है, वैसे ही इस जन्म के पुत्र की भी स्मृति नहीं रहेगी. संसार में प्रतिदिन असंख्य व्यक्ति मरते हैं. जो मरते हिं, वे किसी-न-किसी के बेटे ही होते हैं. फिर उनका शोक तुम्हें क्यों नहीं होगा? इसलिए नहीं होता की उन्मने तुम्हारी ममता (अपनापन) नहीं है. वास्तव में अपनी ममता ही दुःख देती है.
रजा चित्रकेतु क पुत्र मर गया तो उन्हें बड़ा शोक हुआ. उनका शोक मिटाने के लिये अंगिरा और नारदजी ने आकर उन्हें उपदेश दिया. फिर भी चित्रकेतु का शोक नहीं मिटा. तब नारदजी ने अपनी शक्ति से उनके पुत्र की मृतात्मा को बुलाया और उससे कहा की देखो, तुम्हारे पिताजी कितने दुखी हो रहे हैं और तुम इन्हें छोड़कर चले गए. पुत्र बोला की कौन किसका पुत्र है और कौन किसका पिता? मैंने अब तक न जाने कितनी योनियों में जन्म लिया है, और उन सब योनियों में मेरे माता-पिता हुए हैं. मैं इनमें से किस-किस को अपने माता-पिता मानूं? ये तो केवल ममता के कारण दुखी हो रहे हैं!
अन्य श्रोता - महाराज ! संपत्ति को लेकर मेरा भाइयों से झगड़ा चल रहा है. भाई लोग उस संपत्ति पर भी कब्जा करना चाहते हैं, जिस पर मेरा हक़ बनता है. आप बताएं की मुझे क्या करना चाहिए ?
संत - तुम्हारे भाई तो उस संपत्ति को लेकर अंधे हो रहे हैं, जो सदा उनके पास नहीं रहेगे, एक दिन बिछुड़ जायगी. पर तुम तो अपनी आँखें खुली रखो. प्रेम जितना मूल्यवान है, उतनी संपत्ति मूल्यवान नहीं. प्रेम के लिये यदि कुछ नुकसान भी उठाना पड़े तो कोई घाटा नहीं है. अगर वे अन्याय्पूर्वाद अधिक संपत्ति पर कब्जा करते हैं तो भी तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं. जो तुम्हारे भाग्य में है, वह तुम्हें मिलेगा ही. उसे तुमसे कोई चीन नहीं सकता. संपत्ति का बंटवारा हो सकता है, पर भाग्य का बंटवारा नहीं हो सकता. परिणाम में दूसरे का हक़ मारने वाला व्यक्ति ही दुःख पाता है. हो सकता है की भाइयों से अलग होने पर तुम्हें भविष्य में इससे भी अधिक लाभ हो जाय!
कुछ देर शांत रहने के बाद संत बोले - अब आप सभी भाई-बहन ध्यान से सुनें. हमें यह मनुष्य शरीर पूर्वजन्मों में किये कर्मों का फल भोगकर अपना कल्याण करने के लिये मिला है. अतः जब तक शरीर है, तब तक अनुकूल-प्रतिकूल, सुखदायी-दुखदायी परिस्थितियाँ आती ही रहेंगी, रोग आते ही रहेंगे. इससे कोई बच सकता ही नहीं, इतिहास को देखें तो आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हुआ, जिसके जीवन में केवल सुखदायी अथवा केवल दुखदायी परिस्थिति ही आयी हो. सुखदायी और दुखदायी - दोनों परिस्थितियाँ सबके जीवन में आती हैं. परन्तु उनमें सुखी-दुखी होना हमारे हाथ की बात है. इसलिए कहा है -
देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।
ग्यानी भुगते ग्यान ते, मूरख भुगते रोय॥
ज्ञानी लोग उसी प्रतिकूल परिश्तितो को हंसकर सहते हैं, मूर्ख लोग रोकर सहते हैं. आप लोग भी यदि चाहें तो दो बातों पर विचार करके अपनी मूर्खता मिटा सकते हैं, अपना दुःख मिटा सकते हैं. पहली बात, जो भी प्रतिकूल परिस्थिति आयी है, वह सदा नहीं रहेगी, और दूसरी बात, प्रतिकूल परिस्थिति हमारे पापों का फल है, इसलिए उसे भोग लेने से हमारे पाप कट जायेंगे, हम शुद्ध हो जायेंगे, सुखी हो जायेंगे.
पहली बात पर विचार करें तो इस संसार में कोई भी परिस्थिति सदा रहनेवाली नहीं है. दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता ही है-
सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छया:।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम॥
'संसार में समस्त संग्रहों का अंत विनाश है, उन्नतियों का अंत पतन है, संयोगों का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है.'
इसलिए जो परिस्थिति आए, उसका सदुपयोग करें. सदुपयोग कैसे करें? अनुकूल परिस्थिति आने पर दूसरों की सेवा करें और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर सुख की इच्छा का त्याग करें. जो दूसरों को सुख पहुंचाता है और जो सुख की इच्छा का त्याग कर देता है, वह कभी दुखी नहीं होता.
दूसरी बात पर विचार करें तो प्रत्येक प्रतिकूक परिस्थिति हमारे पूर्क्रत पापों का फल है. अपने पापों का फल तो हमें भोगना ही पडेगा, चाहे वर्तमान में भोगें या भविष्य में -
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम।
यदि अपने पापों का फल हम अभी नहीं भोगेंगे तो भविष्य में ब्याजसहित उनका फल भोगना पडेगा! योगिराज श्रीश्यामाचरण लाहिड़ी एक बार अपने सेवक कृष्णाराम के साथ कहीं जा रहे थे. अचानक योगिराज ने अपने सेवक से कहा - 'कृष्णाराम! कपड़ा पकड़ो.' सेवक उनकी बात को ठीक समझ नहीं पाया. कुछ ही देर में एक मकान की छत से एक ईंट आकर योगिराज के पैर पर गिरी. पैर की अंगुली से खून बहने लगा सेवक ने तुरंत कपड़ा फाड़कर अंगुली में बाँध दिया. फिर सेवक ने पूछा की महाराज ! यदि आपको पहले ही पता था की पैर पर ईंट गिरेगी तो फिर आप दूर हट क्यों नहीं gae ? योगिराज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया की कृष्णाराम ! यदि मैं दूर हट जाता तो प्रारब्ध का यह भोग मुझे आगे चलकर ब्याज्साहित चुकाना पड़ता ! ऋण जितनी जल्दी चुक जाय, उतना ही अच्छा है.
'मानव-सेवा-संघ' के प्रवर्तक ब्रहाम्लीन स्वामी श्रीशरणानंदजी महाराज की अमर वाणी है - "सुख के जाने से किसी का अमंगल नहीं होता और दुःख के आने से किसी का अहित नहीं होता." इसलिए भगवान के भक्त सांसारिक प्रतिकूलता को विपत्ति न मानकर भगवान् के विस्मरण को ही विपत्ति मानते हैं -
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
आइए, सब मिलकर सूरदासजी का पद गायें -
भावी काहू सौं न टरै।
कहं वह राहु, कहां वै रबि-ससि,
आनि संजोग परै॥
मुनि बशिष्ट पंडित अति ज्ञानी,
रचि-पचि लगन धरै।
तात-मरन, सिय-हरन,
राम बन बपु धरि बिपति भरै॥
रावन जीति कोटि तैंतीसा,
त्रिभुवन-राज करै।
मृत्युहि बाँधी कूप मैं राखै,
भावी बस सो मारे॥
अरजुन के हरि हुते सारथी,
सोऊ बन निकारे।
द्रुपद-सुता को राजसभा,
दुस्सासन चीर हरै॥
हरीचंद-सौ को जग दाता,
सौ घर नीच भरै।
जो गृह छांडि देस बहु धावै,
तउ वह संग फ़िरै॥
भावी कैं बस तीन लोक हैं,
सुर नर देह धरै॥
सूरदास प्रभु रची सु ह्रैहै,
को करि सोच मरै॥
होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं. कहाँ वह राहू और केतु और कहाँ वे सूर्य-चन्द्र, बहुत दूरी है उनमें; किन्तु इनका भी (ग्रहण के समय) संयोग हो जाता है! वसिष्ट मुनि बड़े विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बड़ी मेहनत से राज्याभिषेक का मूहर्त निकाला; किन्तु परिणाम यह हुआ की दशरथजी मर गए, सीताजी का हरण हो गया और राम कको वनवासी वेश धारण करने वन में कष्ट झेलने पड़े ! रावण ने तैंतीस कोटि देवताओं को जीत लिया था और त्रिलोकी पर राज्य कर रहा था. उसने मृत्यु को बाँधकर कुँए में डाल रखा था; किन्तु प्रारब्धवश वह भे मारा गया! अर्जुन के तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण सारथी थे, पर उन्हें भी वनवास भोगना पडा! द्रौपदी श्रीकृष्ण की परम भक्ता थीं, पर राजसभा में सुशासन ने उनका वस्त्र खींचा! संसार में राजा हरिश्चंद्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें भी नीच चाण्डाल के घर नौकरी करनी पडी !
यदि कोई अपना घर छोड़कर दूसरे अनेक देशों में घूमता फिरे, तो भी प्रारब्ध उसके साथ ही घूमता है, उसका पीछा नहीं चोदता. तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देहधारी हैं, सभी प्रारब्ध के वश में हैं. अतः सूरदासजी कहते हैं की 'प्रभुने जो विधान कर रखा है, वही होगा, फिर चिंता करके क्यों मरे?
23 जनवरी 2008
सुखपूर्वक जीने की कला (भाग दो)
Posted by Udit bhargava at 1/23/2008 11:24:00 pm
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प्रेरक कथा।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
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