20 जून 2010

सुखपूर्वक जीने की कला

वर्तमान में लोग भिन्न-भिन्न कारणों से बहुत दुखी हैं। इसलिये जब उन्हें सूचना मिलती है कि शहर में कोई ऐसा साधु, ज्योतिषी अथवा तांत्रिक आया है, जो दूसरों का दुःख दूर कर सकता है तो वे वहीँ चल पड़ते हैं। परन्तु आजकल सच्चे साधु-संत, ज्योतिषी या तांत्रिक प्राय: मिलते नहीं। जो मिलते हैं, वे केवल पैसा कमानेवाले, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले ही होते हैं। किसी-किसी की प्रारब्धवश झूठी प्रसिधी भी हो जाती है। किसी बनावटी साधु के पास सौ आदमी अपनी-अपनी कामना लेकर जायं तो उनमें से पच्चीस- तीस आदमियों की कामना तो उनके प्रारब्धके कारण यों ही पूर्ण हो जायेगी। परन्तु वे प्रचार कर देंते कि आमुक साधु की कृपा से, आशीर्वाद से ही हमारी कामना पूर्ण हुई। इस प्रकार बनावटी साधु का भी प्रचार हो जाता है।

परन्तु एक शहर में कोई सच्चे संत आये। वे किसी से कुछ नहीं मांगे। भिक्षा से जीवन-निर्वाह करते हैं। किसी से भी किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं जोड़ते। किसी को चेला-चेली भी नहीं बनाते। जो उनके पास आता है, उसी का दुःख दूर करने की चेष्टा करते हैं। शहर में उनकी चर्चा फ़ैली तो लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। अनेक लोग उन संत के पास इकट्ठे हो गए। कुछ लोग अपना-अपना दुःख सुनाने लगे। संत प्रत्येक श्रोता की बात सुनकर उस का समाधान करने लगे।

एक श्रोता - महाराजजी ! में बहुत दुखी हूँ। मेरा कष्ट कैसे दूर हो?
संत - देखो भाई ! संसार में सुख भी है, दुःख भी। आजतक एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ, जो सदा सुखी रहा हो अथवा सदा दुखी रहा हो। जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है, वैसे ही सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता ही है। न तो दुःख सदा रहता है, न दुःख. इसलिये घबारो मत। केवल इस सत्य को स्वीकार कर लो कि यह समय सदा ऐसा नहीं रहेगा। रात बीतेगी, दिन आयेगा।

श्रोता - परन्तु वर्तमान में जो दुःख है, वह मुझसे सहन नहीं हो रहा है। कोइ उपाय  बताएं।
संत - उसके लिये भगवान् से प्रार्थना करो। व्याकुल होकर भगवान् को पुकारो। उन्हें पुकारने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।

श्रोता - में भगवान् से प्रार्थना करता हूँ, पर वे सुनते ही नहीं!
संत - ऐसी बात नहीं है।

सच्चे ह्रदय से प्रार्थना जब भक्त सच्चा गाय है।
तो भक्तवत्सल कान में वह पहुँच झट ही जाय है।।
भगवान् तो सबके ह्रदय में बैठे हैं। वे आपकी प्रत्येक प्रार्थना सुनते हैं।
भगवान् वही कार्य करते हैं। जिससे परिणाम में मनुष्य का हित हो।
भगवान् श्री कृष्ण पांडवों के मित्र थे। द्रौपदी के पुकारते ही वे प्रकट हो जाते थे। फिर भी पांडवों को कितना कष्ट भोगना पडा! तुम्हारा काम है कि उन्हें पुकारो!

'हरिस्मृति: सर्वविपद्वीमोक्षणं'
'भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है।'

अन्य श्रोता - भगवान् दुःख देते क्यों हैं?
संत - भगवान् के पास दुःख है ही नहीं, फिर वे दुःख देंगे कैसे? दुःख तो तुम्हारा अपना पैदा किया हुआ है।

करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फ़लु चाखा॥
भगवान् तो तुम्हारे किये कर्मों का फल भुग्ताकर तुम्हें शुद्ध कर रहें हैं, मुक्त कर रहे हैं। भगवान् आनंददाता हैं, दुखदाता नहीं। वे तो तुम्हें दुखों से छुडाना चाहते हैं। परन्तु तुम उनसे विमुख होकर संसार में लगे हो, जो दुखालय है, दुखों का घर है। अब भैया, तुम ही सोचो, तुम्हारा दुःख दूर कैसे होगा?
दुःख भगवान् द्वारा बनायी सृष्टि में नहीं है, अपितु जीव द्वारा बनायी सृष्टि (मैं- मेरापन) में हैं। यदि जीव मैं-मेरापन मिटा दे तो दुखों की जड़ ही कट जायेगी। परमश्रधेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते थे कि त्याग से सुख मिलता है - यह अटकल लोगों को आती नहीं, तभी वे दुःख पाते हैं। दुःख से बचने का उपाय सुख नहीं है, अपितु त्याग है।'

अन्य श्रोता - महाराज ! मेरे व्यापार में निरंतर घाटा लग रहा है! आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गयी है। क्या करूं?
संत - रुपयों के अभाव को हम रुपयों से मिटा लेंगे- इसके समान कोई मूर्खता नहीं है! तुम प्रयत्न मत छोड़ो। पर भैया ! मिलेगा वही, जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है। जो तुम्हें मिलने वाला है, वह तुम्हें अवश्य मिलेगा। उस कोई दूसरा छीन सकता ही नहीं। एक लोटेको चाहे तालाब में डुबाओ, चाहे समुद्र में, जल लोटा भर ही निकलेगा।

जब दांत न थे तब दूध दियो,
अब दांत भये कहा अन्न न दैहैं।
जीव बसे जल में थल में,
तिन की सुधि लेई सौ तेरीहु लैहैं।।
जान को देत अजान को देत,
जहान को देत सौ तोहूँ कूँ दैहैं।
काहे को सोच करैं मन मूरख,
सोच करै कछु हाथ न ऐहैं।।

श्रोता - लडकियां बड़ी हो रही हैं। भविष्य में उनका विवाह भी करना है! कैसे होगा?
संत - इसके लिये चेष्टा करो, पर चिंता मत करो -"होइहि सोई जो राम रची राखा'। लडकियां केवल तुम्हारे प्रारब्धपर ही निर्भर नहीं हैं। उनका अपना भी प्रारब्ध है। इसलिए समय आने पर उनके प्रारब्ध के अनुसार जो मिलना है, वह अवश्य मिलेगा और उनका विवाह हो जायेगा।

अन्य श्रोता - बेटा मेरे प्रतिकूल चलता है। मेरी बात बिल्किल नहीं मानता।
संत - ऐसा समझो कि वह तुम्हारे पूर्वजन्म का बाप है! उसकी बात यदि अनुचित न हो तो मान लो। तुम्हें जो बात उचित दीखे, वह उससे कह दो। अब वह माने या न माने, उसकी मर्जी। यह आग्रह छोड़  दो कि वह मेरी बात माने।

जो पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान।।
भैया ! जब वह तुम्हारी बात मानता ही नहीं, तो फिर उसे अपना बेटा मानते ही क्यों हो? उसे अपना न मानकर भगवान् का मान लो, उसे भगवान् के अर्पण कर दो।

अन्य श्रोता - मैंने अपने रिश्तेदारों की समय पर बहुत सहायता की। पर अब वे मेरे विरुद्ध चलते हैं। वे दूसरों के आगे मेरी निंदा करते हैं और मेरे बारे में झूठी-झूठी बातें फैलाते हैं।
संत - तुम उनकी तरफ न देखकर अपने को देखो कि कहीं तुमसे कोइ गलती तो नहीं हुई है। यदि अपनी कोई गलती दीखे तो उसे दूर कर दो, और यदि अपनी कोई गलती न दीखे तो फिर दुखी होने की कोई जरूरत नहीं, प्रसन्न रहो। यह आशा मत रखो कि दूसरे तुम्हारे अनुकूल चलें। दूसरे सब हमारे अनुकूल चलें - यह सम्भव ही नहीं है। बड़े-बड़े संत हुए, भगवान् के अवतार हुए, पर उनके भी सब अनुकूल नहीं हुए।

अन्य श्रोता - महाराज जी ! मैंने सदा दूसरों पर विशवास किया, पर मेरे साथ सदा धोखा ही हुआ है।
संत - विश्वास करने योग्य तो केवल भगवान् ही है। संसार विशवास करने योग्य है ही नहीं। संसार पर विशवास करोगे तो धोखा ही मिलेगा।

संसार साथी सब स्वार्थ के हैं,
पक्के विरोधी परमार्थ के हैं।
देगा न कोइ दुःख में सहारा,
सुन तू किसी की मत बात प्यारा।
       
                                            X                       X                       X

सच्चा मित्र और जन्म का साथी ईश्वर सर्वाधार,
राधेश्याम शरण चल उसकी, तब तो बड़ा पार,
दुखी का वही ठीकाना है।
किससे  करिए प्यार यार खुदगर्ज ज़माना है।।
संसार सेवा के योग्य है, विश्वास के योग्य नहीं। उसकी सेवा कर दो, पर विशवास मत करो।

अन्य श्रोता - महाराजजी  ! मेरी कोई संतान नहीं है। मन में चिंता रहती है कि बुढापे में हमारी सेवा कौन करेगा? क्या कोई बालक गोद ले लें?
संत - संसार में देखो, जिनकी संतान है, वे सब सुखी हैं क्या? कई लोग तो अपनी संतान से इतने दुखी हैं कि सोचते हैं, संतान न होती तो अच्छा होता! क्या इस बात का तुम्हें पता है कि संतान होने से तुम सुखी हो ही जाते अथवा बुढापे में तुम्हारी सेवा होती ही? यदि बुढापे में सबकी संतान सेवा करती तो आज वृद्धाश्रम क्यों बनाए जा रहे हैं? जब अपनी संतान भी सेवा नहीं करते तो फिर गोद लिया बालक तुम्हारी सेवा करेगा, इसकी क्या गारंटी है? यदि प्रारब्ध में होगा तो बुढापे में उन लोगों की उपेक्षा भी अच्छे सेवा होगी, जिनकी संतान है। भगवान् किसी ऐसे व्यक्ति को भेज देंगे, जो बेटे से भी बढ़कर तुम्हारी सेवा करेगा। अतः भविष्य की चिंता मत करो।

अन्य श्रोता - मैं लम्बे समय से बीमार हूँ। किसी ने मुझ पर तांत्रिक प्रयोग कर दिया है। कोई  उपाय बताएं।
संत - यदि कोई तांत्रिक प्रयोग करता है तो उसका असर हम पर तभी पड़ता है, जब हमारे प्रारब्ध वैसा हो। दूसरा तो केवल उसमें निमित्त बनता है। यदि हमारे प्रारब्ध में न हो तो हमें कष्ट पहुंचाने की किसी में ताकत है ही नहीं। यदि तुम बीमार रहते हो तो यह तुम्हारा प्रारब्ध  है, पुरारे कर्मों का फल है और दूसरे (तांत्रिक प्रयोग करने वाले) का यह नया कर्म है, नया पाप है, जिसका फल उसे भविष्य में भुगतना पडेगा। याद रखो कि दूसरा कोई भी व्यक्ति तुम्हें सुख या दुःख नहीं पहुंचा सकता -

सुखस्य दुखास्य न कोSपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमान:
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोक:॥

'सुख या दुःख को देने वाला कोई और नहीं है। कोई दूसरा सुख-दुःख देता है- यह समझना कुबुद्धि है। मैं करता हूँ - यह वृथा अभिमान है। सब लोग अपने-अपने कर्मों की डोरी से बंधे हुए हैं

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।
निज कृत करम भोग साबू भ्राता।।

अन्य श्रोता - महाराजजी ! मैं बहुत  दुखी हूँ। मुझसे दुःख सहा नहीं जाता। मेरे मन में आत्महत्या करने की आती है।
संत - आत्महत्या करने से तुम अपने कर्मों के भोग से बच नहीं सकते। पूर्वकृत कर्मों का फल तो भोगना ही पडेगा, आत्महत्या करने से एक मनुष्य की हत्या करने का पाप लगता है। अत: आत्महत्या करने से तुम दुखों: से छूटोगे नहीं, अपितु और अधिक दु:खी हो जाओगे और प्रेतयोनि में भटकते रहोगे, नरकों में तडपते रहोगे। अभी जो दु:ख है, वह आगे मिट भी सकता है और तुम भविष्य में सुखी भी हो सकते हो। अंधेरी रात बीतने पर सूर्य का उदय भी हो जाता है। अत: अभी निराश न होकर नयी सुबह की प्रतीक्षा करो।

अन्य श्रोता - महाराज ! मैं पारिवारिक समस्याओं से बहुत दुखी हूं। कोई उपाय बतायें।
सन्त - दु:ख का मूल कारन है ममाता ! जिन वस्तुओं और व्यक्तियों में हमारी ममता है, उन्हीं के बनने-बिगडने का असर हम पर पडता है। संसार में असंख्य वस्तुएं हैं, पर उनके बनने-बिगडने, जीने-मरने आदि का असर हम पर नहीं पडता। इसलिये किसी भी वस्तु-व्यक्ति में ममता मत करो, फ़िर दु:ख नहीं आयेगा।
      विचार करो, जितनी भी वस्तुएं और व्यक्ति हैं, वे सब-के-सब मिलने बिछुडनेवाले हैं। पहले वे हमारे साथ नहीं थे, पीछे वे हमें मिल गये, और भविष्य में वे सदा हमारे साथ नहीं रहेंगे, एक दिन वे हमसे बिछुड जायेगे अथवा हम उनसे बिछुड जाएंगे।
     प्राय: मनुष्य अपने खराब स्वभाव के कारण दु:ख पाता है। अत: अपना स्वभाव सुन्दर बनाओ।
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