रवींद्र नाथ टैगोर के सपनों की विश्वभारती की परंपरा में भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और गुटबाजी का पलीता लगा हुआ है। विश्वविद्यालय का गुरुकुल जैसा परिसर इन दिनों राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है। इस संस्थान की स्थापना के समय पुरातन गुरुकुल परंपरा के आदर्श को ध्यान में रखा गया था। इस संस्थान के संस्थापक के शब्दों में यहाँ विश्व भर की शिक्षा की प्यास बुझेगी। आज की तारीख में यह संस्थान विवादों के केंद्र में है। भ्रष्टाचार से लेकर खस्ताहाल प्रबंधन तक के आरोपों का अंबार लगा हुआ है। आखिर कैसे बिगड़े हालात?
यहाँ बात बंगाल के शांतिनिकेतन स्थित प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय विश्वभारती की हो रही है। संस्थापक गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का जमाना देख चुके लोग आज इसके मौजूदा हालात पर खून के आंसू रो रहे हैं। यहाँ के कुलपति रजत कांत राय के खिलाफ धन लेकर मनमर्जी से नियुक्तियां करने, फर्जी मेडिकल बिल जमा कर 10 लाख से अधिक रुपए का री-इंबर्शमेंट लेने, यहाँ के प्राथमिक स्कूल में अपने रिश्तेदारों को नौकरियाँ देने और गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की कुछ पेंटिंग्स को अवैध तरीके से एक निजी कंपनी को बेच देने से आरोप लग रहे हैं। विश्वविद्यालय परिसर में पिछले 15 सितंबर से धरना-प्रदर्शन पर बैठे विश्वभारती के शिक्षकों-कर्मचारियों के संगठनकर्मी सभा के अध्यक्ष देवव्रत सरकार का दावा है कि 12वीं पास लोगों तक को शिक्षक पद पर नियुक्त कर लिया गया है।
हालात यह हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से कर्मी सभा के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई। मामला आगे बढ़ा और भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर सीबीआई जांच की मांग पर 24 अक्टूबर से विश्वविद्यालय में हड़ताल करा दी गई। उसी दिन बेहद नाटकीय अंदाज में कर्मी सभा के खिलाफ विश्वविद्यालय के वीसी भी धरने पर बैठ गए। वीसी ने राज्यपाल से मिलकर अपना पक्ष रखा है लेकिन हालात बिगड़ते जा रहे हैं। विश्वविद्यालय में गुटबाजी चरम पर है। अब ताजा घटनाक्रमों के संदर्भ में विश्वविद्यालय के काले अतीत की खूब चर्चा है।
गुटबाजी की स्थिति तब से ही चली आ रही है, जब 1951 में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महान वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस को यहाँ का वीसी बनाया था। उनके जमाने में चित्रकार रामकिंकर बैज और अंग्रेजी के एक वरिष्ठ प्राध्यापक के बीच गुटबाजी चरम पर थी। कैंपस दो गुटों में बंट गया था। विवाद बढ़ा तो नेहरूजी ने मशहूर कृषि वैज्ञानिक लियोनार्द एमहर्स्ट की अगुवाई में जांच आयोग बिठाया, जिसने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि वीसी बोस प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हैं लेकिन अच्छे प्रशासक नहीं।
उस जमाने में हालात गुटबाजी और अन्य प्रशासनिक दायित्वों को लेकर सीमित रहे लेकिन रवींद्र के सपनों के इस मंडप पर 2004 से भ्रष्टाचार की छाया मंडराने लगी। तब के वीसी दिलीप सिन्हा पर आरोप लगा कि उन्होंने फर्जी अंकपत्र के आधार पर अपने एक रिश्तेदार को गणित का प्राध्यापक बना दिया। उन्होंने देशभर में कई कॉलेजों को अवैध रूप से मान्यता पत्र जारी कर दिया। दोनों ही मामलों में केंद्रीय जाँच टीम ने सिन्हा के खिलाफ आरोपों को सही पाया और उन्हें जेल भी हुई। उनके बाद आए वीसी सुजीत बासु के जमाने में टैगोर को मिले नोबेल पुरस्कार के मेडल और अन्य बहुमूल्य पेंटिंग आदि चोरी चले गए और अब वीसी रजत कांत राय के खिलाफ आरोपों का पुलिंदा! आश्रम से जुड़े रहे कुछ ऐसे लोगों की मानें तो अगर 1951 में विश्वभारती को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के अंतर्गत लाए जाने के बजाय इसके मूल स्वरूप को बचाए रखते हुए कोई अलग दर्जा दिया जाता तो शायद यहाँ के परिवेश में राजनीति, गुटबाजी, चूहादौड़ और अन्य गंदगियों का प्रवेश नहीं होता।
यह भारत का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जहाँ केजी से लेकर डॉक्टरेट तक की पढ़ाई की व्यवस्था है। गुरुदेव ने ऐसे शैक्षणिक केंद्र का सपना देखा था जहाँ किसी प्रकार की कोई दीवार न हो। यहाँ के बांग्ला विभाग और विद्या भावना (कला) के 41 साल तक प्रमुख रह चुके बुजुर्ग अमृतसूदन भट्टाचार्य का मानना है कि यहाँ ऐसे वीसी की जरूरत है जो टैगोर की फिलॉसफी को समझता हो। यहाँ केंद्र ने भारत के बेस्ट स्कॉलर्स को वीसी बनाया लेकिन यह देखने की कोशिश नहीं की कि वे टैगोर के विचारों को कितना समझ पाते हैं।
शायद अपने आखिरी दिनों में गुरुदेव भी आज के हालात को ताड़ चुके थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई दफा विश्वभारती के तेजी से विस्तार पर नाखुशी जताते हुए टिप्पणी की थी कि इसे किसी आम विश्वविद्यालय की तरह नहीं बनना चाहिए। ऐसा होने पर विश्वभारती अपना मूल स्वरूप खो बैठेगा। 1941 में टैगोर के निधन के बाद विश्वभारती को सरकारी फंड मिलना शुरू हुआ। 1951 में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। यहाँ पढ़ा चुके 92 साल के पेंटर दिनकर कौशिक के अनुसार, शायद वहीं से गड़बड़ियों का पौधारोपण हो गया। कौशिक यहाँ 1940 में नंदलाल बोस और रामकिंकर बैज से चित्रकारी सिखने आए थे। शांतिनिकेतन में ही रह रहे टैगोर खानदान के वंशज सुप्रिय टैगोर यहाँ के पाठ भवन के प्रिंसिपल की हैसियत से चार दशक पहले रिटायर हुए। उनके अनुसार, "केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने पर यहाँ फंड अफरात आने लगा। गुरुदेव के जमाने में धन की कमी महसूस की जा रही थी जो दूर हो गई थी लेकिन नियुक्तियों और कामकाज में जिस तरह से सरकारी नियमों की पैठ बढ़ी गड़बड़ियाँ बढ़ती चली गईं।
08 फ़रवरी 2010
विवादों का विश्वविद्यालय
Labels: मनपसंद करियर
Posted by Udit bhargava at 2/08/2010 07:36:00 am
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