जरा गौर कीजिए एक "टिपिकल" भारतीय स्कूल की क्लास पर: "पढ़ाते" टीचर और "पढ़ते" बच्चे। यानी टीचर बोलेंगे और बच्चे सुनेंगे व जो सुना उसे याद रखने की कोशिश करेंगे। यानी टीचर ब्लैकबोर्ड पर लिखेंगे और बच्चे अपनी कॉपी में उसे जस का तस उतारेंगे व जो उतारा उसे याद रखने की कोशिश करेंगे।
बच्चों को फिक्र कि सब कुछ याद करना है और टीचर को फिक्र कि इतने समय में सारा कोर्स पूरा करना है। आज यह पाठ निपटा दिया, कल वह और शनिवार तक उसके बाद वाला चैप्टर भी कम्पलीट करवा देना है।
इस झटपट, टारगेट ओरिएंटेड शिक्षण में वे बच्चे रोड़ा होते हैं, जो सवाल करते हैं। टाइम वेस्ट करते हैं वे बच्चे! तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार कोर्स "निपटाने" में बाधा खड़ी करते हैं। अच्छे स्टूडेंट वे होते हैं जो कुछ पूछते नहीं, सिर्फ सुनते हैं। जो सोचते नहीं, सिर्फ रटते हैं।
कहने की जरूरत नहीं कि यह प्रक्रिया न बच्चों के लिए आनंददायी है और न ही शिक्षकों के लिए। तेजी से भागती दुनिया में आज जो पढ़ाया, वह कल, परसों, नरसों कब तक उपयोगी रहेगा, कहा नहीं जा सकता।
ऐसे में निर्धारित पाठ बेवजह रटाने के बजाए होना यह चाहिए कि बच्चों में सीखने की ललक पैदा की जाए, तर्क करने का कौशल विकसित किया जाए। उनकी जिज्ञासा को खाद-पानी दिया जाए, उसमें मट्ठा न डाला जाए। तभी तो बेजान रोबोट के बजाए तैयार होंगे चीजों को जानने-समझने वाले युवा। नई खोज करने वाले युवा, नए शिखर छूने वाले युवा।
08 फ़रवरी 2010
याद करो और उगल दो!
Labels: मनपसंद करियर
Posted by Udit bhargava at 2/08/2010 07:34:00 am
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