15 सितंबर 2010

भगवान कृष्ण जन्म

सूतजी बोले, मुनिवरों । जैसा मैंने बताया, वही सब आगे चलकर घटित हुआ । जैसे-जैसे देवकी गर्भ धारण करती जाती थी, जैसे- जैसे शिशु पैदा होते थे, वैसे-वैसे ही कंस उनको एक शिला पर पटककर उनका वध कर देता था । इस प्रकार देवकी के छह गर्भ नष्ट हो गए । कालनेमि के छहों पुत्र हिरण्यकशिपु का शाप पूर कर मुति प्राप्त कर गये । जब देवकी का सातवां गर्भ आया, तो योगमाया ने देवकी के गर्भ को रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया फिर अर्धरात्रि में ही रजस्वला देवकी का गर्भपात हो गया । वह मूर्छित हो गयी । उसको योगमाया के इस कार्य का कुछ पता न चला । उसी रात रोहिणी ने पुत्र को जन्मा । रोहिणी पुत्र पाकर हर्षित हो गयी । रोहिणी वासुदेव की दूसरी पत्नी थी । उसकी संतानों से कंस को किसी प्रकार का भय न था ।

कंस ने सप्तम गर्भ की खोज की, पर कुछ पता न चला । इसी बीच देवकी आठवीं बा र गर्भवती हो गयी । आठवां गर्भ होने के कारण कंस द्घारा अत्यन्त सावधानी के साथ देवकी की देखभाल हो रही थी । कंस ने सारी सुरक्षा कर ली थी । देवकी के आठवें गर्भ में स्वयं भगवान विष्णु आ गये । दूसरी ओर भगवान विष्णु के आदेशानुसार निद्रा ने यशोदा के गर्भ मे प्रवेश किया । इस प्रकार हे मुनिवरों । आठवें माह में यहां देवकी ने और वहां यशोदा ने क्रमशः एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया । भगवान का जन्म होते ही समस्त भूमंडल प्रसन्न हो गया । देवी देवता उनकी आरती उतारने लगे । तब वासुदेव ने भयभीत होकर कहा, हे प्रभो आपने अलौकिक रुप में मेरे यहां जन्म लिया है, पर यह सब कै संभाले । कंस मेरी सब संतानें नष्ट कर चुका है । आप अपने रुप को संवरित करे । इस पर भगवान विष्णु ने अपनो को संवरित कर लिया । वसुदेव से वह बोले, हे पिताजी आप कृपा कर मुझे यहां से गोपराज नंद के यहां ले चलिये । भगवान की इस आज्ञा को पाकर वसुदेव रात में ही यशोदा के घर गये । उन पर किसी प्रकार की रोक-टोक न हुई । सर्वत्र निद्रा का गहरा राज व्याप्त था । यशोदा के निवास पर भी यह दशा थी । वह एक बालिका को जन्म देकर सो रही थी । सब सो रहे थे ।

मुनिवरों यह सब भगवान विष्णु की माया थी । योगमाया का मायाजाल फैला था । इस कारण वसुदेव अपना पुत्र यशोदा के पास रखकर उसकी पुत्री उठाकर सकुशल वापस आ गये ।

किसी को कानों कान पता न चला । यहां तक कि देवकी भी बेखबर रह गयी । यह रहस्य केवल वसुदेव तक ही रह गया । वापस आते ही सब की निंद्रा टूट गयी । देवकी का शिशु रुदन करने लगा । आठवीं संतान का जन्म देखते ही तत्काल कंस को सूचना दी गई । कंस तुरन्त दौड़कर आ गया । उसने देवकी की गोद से जन्मी उस कन्या को छीन लिया । देवकी रोने लगी, बोली, हे भाई, तुमने मेरे छह पुत्रों का वध कर डाला । अब यह एक कन्या उत्पन्न हुई है । इस पर दया करो । वैसे ही यह परी सी लगती है । मुनिवरों । इस पर कंस हंसकर बोला, हां सचमुच परी लगती है । और उसने कन्या को शिला पर दे मारा । जैसे ही कन्या शिला से टकरायी, वह अपना कलेवर दल आकाश में उड़ गयी । कंस अवाक चकित रह गया । निगाहें उठाकर उसने आकाश की ओर देखा । आकाश में उसके केश फैले थे । उसकी देह दिव्य चंदन सी सुशोभित थी । उसने नील-पीत वर्ण के परिधान धारण कर रखे थे । हाथी के मस्तक के समान उठे, उभरे उसके स्तन थे । उसका मुख चन्द्रमा के समान रुपवान था । वह मदिरा पान करती आश में उन्मुक्त विचरण कर रही थी । उसने भयानक अट्टाहास के साथ क्रोधित होकर कहा, रे कंस तूने अकारण ही मुझे पृथ्वी पर पटका । पर तेरा काल तो आयेगा और तेरे शत्रु तेरा नाश कर डालेंगे, उस समय तेरी छाती चीरकर मैं तेरा रुधिरपान करुंगी । और इस प्रकार कह कर वह आकाश में विलीन हो गयी ।
कंस भौचक्का रह गया, पर वह अट्टाहास करते हुए बोला, मेरा नाश करने वाला उत्पन्न ही नहीं हुआ है । इस प्रकार कहकर कंस वापस अपने भवन में आ गया । नारद की बात पर उसे आश्र्चर्य हुआ देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा । आठवीं संतान तो कन्या हुई । नारद का कथन सच नहीं निकला । वह असमंजस में पड़ गया । क्या उसका वध अन्य व्यक्ति के द्घारा होगा । वह मन ही मन भयभीत हो गया ।

फिर वह देवकी के पास गया । देवकी के पास जाकर पश्चाताप करने लगा, बोला, मैं बड़ा निष्ठुर हूँ मैंने अपने प्रियजनों का ही दमन किया है । फिर भी विधाता ने जो भाग्य में लिख दिय है वह होकर रहेगा । हे बहन उसमें मैं किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता । हे सती तुमको दुख त्याग देना चाहिए और मेरे प्रति भी कटुता नहीं रखनी चाहिए क्योंकि जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ, वह विधाता के हाथों का खिलौना बनकर कर रहा हूँ । जो होना होता है, वह अवश्य होता है लेकिन दुखद दशा तो यह है कि देव के विधान का मनुष्य स्वयं कर्ता बन जाता है । समय ही मनुष्या का सबसे बड़ा दुश्मन है । वही उसका विनाशक भी है इस कारण तुमो मुझ पर क्रोध नहीं करना चाहिये । हे बहन मैं पुत्रवत् होकर तुम्हारे चरणों में प्रणाम करता हूँ । मैंने तुम्हार बड़ा अपकार किया है । इस प्रकार कहकर कंस देवकी के चरणें में लोट गया । हे मुनिवरों । कंस को इस प्रकार पने चरणें में लोटता देखककर देवकी की आँखों में आंसू उमड़ आये । वह अपने पति को विलोक कर एक मां के द्रवित हृदय से बोली, मं तुम पर नाराज नहीं हूँ । यह सब काल की माया है । मैं तुमको क्षमा करती हूँ । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । देवकी से इस प्रकार का संतोष पा कंस अन्तःपुर में चला गया । देवकी से क्षमा-याचना करने के उपरान्त भी वह चिंतित उद्घिग्न था ।

मुनिवरो वसुदेव ने भगवान विष्णु का कृष्ण रुप में जन्म होने से पहले ही अपनी पत्नी रोहिणी को गोपराज नंद के यहां भेज दिया था । बाद में उनको पता चला कि रोहिणी ने एक बालक को जन्म दिया है । वह अत्यन्त प्रसन्न हुए और जब गोपराज नन्द अपना वार्षिक कर देने मथुरा आये तो वसुदेव ने उनसे भेंट की । उनसे निवेदन किया कि रोहिणी पुत्र को वह अपना पुत्रवत् माने और उसका नामसकरण संस्कार अपने पुत्र (जो वास्तव में वसुदेव का था) के साथ सम्पन्न करा दे । कंस के कारण वह रोहिणी से उत्पन्न पुत्र का मुख नहीं देख पा रहे है । इस प्रकार वसुदेव का दुख देखकर गोपराज नन्द ने उनको धैर्य बंधाया और सब प्रकार से आश्वासन देकर संतुष्ट कर दिया । नंदराज का आश्वासन पाकर वसुदेव को बड़ा संतोष मिला ।

वह तब जलमार्ग से मथुरा जाते हुए गौ-ब्रज नामक स्थान पर रुक गये । ब्रज बड़ी सुन्दर और मनोरम भूमि थी । वहां के गोप-गोपियों की शोभा देखते ही बनती थी । अतएव गोपराज नेंद का मन रम गया । इसके साथ-साथ वहां के तमाम गोप-गोपियों ने उनसे रुकने का भी निवेदन किया था । उत्तम स्थान देखककर गोपराज नंद वहीं वास करने लगे । यहीं पर दोनों पुत्रों का नामकरण-संस्कार भी किया गया । बड़े पुत्र का नाम संकर्षण और छोटे का नाम कृष्ण रखा गया । इस प्रकार नंद सुखपूर्वक वहां पर वास करने लगे ।