नटराज- यज्ञ रूप है। सनातन यज्ञ के बिम्ब हैं। नटराज सूर्य हैं। उनकी किरणें सनातन नृत्य करते रहती हैं। अग्नि यानि अंजार यानि आग की लपटें यानि प्रकाश यानि सूर्य। सोम यानि जल यानि बर्फ यानि- बीज रूप यानि चन्द्र। अग्नि- सोम के मध्य में अत्रि प्राण है। इसकी खोज अत्रि ऋषि ने की थी। उनकी पत्नी अनुसूया थी। अंगार से अंगीरा शब्द बना है। अंगारा से अंगीरा शब्द बना है। अंगीरा और भृगु ऋषि हैं। भृगु सोम के एक रूप हैं।
राम, कृष्ण, विष्णु, शिव की उपासना शुध्द ब्रहम ही की उपासना है। किसी भी वस्तु में चित्त को एकागत करने से मूल परमात्मपद की ही प्राप्ति होती है। एक शुध्द ब्रहमतत्व ही माया के सम्बन्ध से अव्यक्त ब्रहम और सूक्ष्म प्रपंच उपाधि से उपधित होने पर हिरण्यगर्म एवं स्थूल प्रपंच से उपहित होकर वही विराद् कहलाता है। स्थूल का चिन्तन करते करते सूक्ष्म का और फिर उसका चिन्तन करते करते कारण का, फिर कार्य्यकारणातीत शुध्द ब्रहम का बोध (साक्षात्कार) होता है। मानस जप में मन को ही मानस मन्त्र बनना पड़ता है। इस मानस जप और ध्यान से मन की शुध्दि, एकाग्रत, भगवान के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति बड़ी ही सुविधा के साथ हो जाती है । परमात्मा के संकल्प से ही अन्नतकोटि ब्रहमाण्ड बनकर तैयार होता है। किसी भी कार्य के मूल में संकल्प का होना आवश्यक है। संसार की सभी गति अथवा उन्नति का मूल संकल्प ही है। परमात्मा किसी भी सामग्री की अपेक्षा न करके मात्र अपने संकल्प मात्र से विश्व का उत्पादन, पालन और संहार करता है। वही इसके उत्पादन हैं, वही निमित्त भी हैं। भगवान की सभी शक्तियां जीवात्मा में होती हैं। माया की शक्तियां मन में रहती हैं। अत: जीवात्मा अपने संकल्पों-विचारों से बहुत कुछ कर सकता है। अत्याचार, अनाचार, पापाचार, व्यभिचार आदि से संकल्प की शक्तियां दृढ़ हो जाती हैं। परमेश्वर की आराधना से जीवात्मा में स्वाभाविक परमात्मासंबंधी ऐश्वर्य प्रकट होते हैं, अन्यथा छिपे रहते हैं। सिध्द लोग अपने संकल्प से ही घट को पट और पट को घट बना सकते हैं। विश्वामित्र के संकल्प से मेनका अप्सरा को पहाड़ी बनना पड़ा । अगस्त्य के वचन से नहुष को अजगर बनना पड़ा । वचन के साथ भी संकल्प रहता है। वचन के प्रभाव के साथ संकल्प का प्रभाव रहता है। स्थूल जगत सूक्ष्म जगत के नियंत्रण में रहता है। विचार भी संकल्प रूप है। पुरूष जैसा संकल्प करता है वैसा ही कर्म करने लगता है, जैसा कर्म करता है वैसा ही बन जाता है । बुरे कर्मों को त्यागने के पहले बुरे विचारों को त्यागना पड़ता है । भग्विद्वान से, मन्त्र-जप से , श्रवण से सत्संग से बुरे विचारों की धारा को तोड़ देनी चाहिए। एकाएक मन का संकल्प - विकल्प से रहित होना असंभव है परंतु सात्विक वृत्तियों से तामस वृत्तियों को शनै: शनै: काट कर मन को एकाग्र करना संभव है।
30 मई 2010
नटराज और वैदिक यज्ञ
Posted by Udit bhargava at 5/30/2010 06:29:00 am
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