हमारे देश में पौराणिक देवियों को षोडशी माना जाता है। कहा जाता है कि इनकी आयु सदा सोलह साल की ही रहती है। इस प्रकार की चर्चा देवताओं के बारे में कहीं सुनने को नहीं मिलती। वास्तविकता यह है कि षोडशी शब्द के साथ ब्राह् के विस्तार में 'पुरूष' शब्द का अनिवार्य प्रयोग होता है। सोलह कलाओं से युक्त पुरूष भाव को षोडशी पुरूष कहा जाता है। उसके अन्तर्गत सम्पूर्ण स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि समाहित रहती है। इसमें ब्राह् और माया, दोनों की कलाएं साथ-साथ रहती हैं। ब्राह् अकेला तो कहीं होता ही नहीं है। माया स्वयं बल रूप में ब्राह् की शक्ति होती है। ब्राह् के साथ एकाकार रहती है। जब ब्राह् षोडशी है, तब माया भी निश्चित ही षोडशी है। सृष्टि के आरंभ में केवल आकाश है। जो कुछ पदार्थ आकाश (व्योम) में व्याप्त है, वही ब्राह् है। चारों ओर अंधकार है। कोई गतिविघि नहीं दिखाई पडती। ब्राह् की शक्ति सुप्त अवस्था में है। ब्राह् की स्वतंत्रता ही उसका आनन्द भाव है। ऋषि प्राण वहां ज्ञान अगिA रूप हैं। ब्राह् को सृष्टि का बीज कहते हैं। उसमें सृष्टि का पूरा नक्शा रहता है। जैसे किसी बीज में पेड, पत्ते, फल-फूल आदि रहते हैं। यह ज्ञान ही इच्छा पैदा करता है। बिना ज्ञान के कर्म नहीं होता। ज्ञान के विकास को हम कर्म कहते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि ब्राह् के ज्ञान का कर्म रूप विकास है, विवर्त है। पुन: अपने मूल स्वरूप में लौटने की क्षमता रखता है। यह इच्छा ब्राह् की शक्ति के जागरण से पैदा होती है। यह शक्ति 'स्पन्दन शक्ति' के नाम से शैव साहित्य में कही गई है। वेद में इसे 'बल' कहा गया है। इच्छा में क्रिया नहीं होती। इच्छापूर्ति की दिशा में बल या स्पन्दन शक्ति की क्रिया शुरू होती है। जिस बल से क्रिया शुरू होती है, उसे माया कहते हैं। इच्छा को ही मन रूप या मन का बीज कहा जाता है। मन पर क्रिया रूप में प्राणों की क्रिया होती है, तब कर्म होता है। इसी को वाक् कहते हैं। इस वाक् में प्राण, मन, ज्ञान (विज्ञान रूप) और आनन्द समाहित रहते हैं। यह मन अव्यय मन होता है। चूंकि स्पन्दन शक्ति पूर्ण स्वतंत्र चेतना शक्ति है, वह अपने सामथ्र्य से अपने को ही स्थूल क्रिया में विकसित कर लेती है। प्रत्येक क्रिया का मूल इच्छा रूप स्पन्दन ही है। जब तब इच्छा मन में रहती है, कोई क्रिया नहीं होती। जैसे ही स्थूल क्रिया से जुडती है, इस पर देश-काल का प्रभाव चढ जाता है। सृष्टि में प्रथम वाक् रूप अव्यय पुरूष बनता है। विष्णु की नाभि से सर्व प्रथम ब्राह् पैदा हुए। ये प्राण रूप थे। अति सूक्ष्म तत्व के रूप में पैदा हुए थे। इन्हीं के मन में इच्छा पैदा हुई-एकोहं बहुस्याम्। जिस प्रकार ब्राह् की सर्वज्ञता, पूर्णता आदि विशेषताएं अव्यय में सीमित हुईं, वैसे ही माया की शक्तियां भी यहां आकर सीमित हो जाती हैं। माया यहां पर कला, विद्या, राग, नियति और काल तत्व रूप में परिणत हो जाती है। यही ब्राह् के मूल स्वरूप का प्रथम आवरण कहलाता है। कला से सीमित आदान-प्रदान, विद्या से कर्म की विवेचना, राग से आसक्ति, काल से समय गणना और नियति से कार्य कारण भाव की सुदृढता तय होती है। षोडशी पुरूष की व्याख्या परा विद्या में विस्तार से मिलती है। यहां अव्यय, अक्षर और क्षर पुरूष की पांच-पांच कलाएं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, वाक्- ब्राह्ा, विष्णु, इन्द्र, अगिA, सोम तथा प्राण, आप, वाक्, अन्न, अन्नाद के साथ परात्पर मिलकर षोडशी पुरूष रूप आत्मा बनता है। अपरा विद्या अथवा शब्द ब्राह् में अव्यय, अक्षर और क्षर पुरूष को ही स्फोट, अक्षर और वर्ण कहा है। अक्षर और वर्ण ही स्वर और व्यंजन हैं। शैव शास्त्रों में जहां स्पन्दन रूप माया का विस्तार मिलता है, वहां माया, महामाया और प्रकृति रूप स्पन्दन ही अव्यय, अक्षर और क्षर पुरूष का शक्ति रूप विवेचन है। चूंकि सृष्टि का विकास मूलत: दो धाराओं में होता है-एक अर्थ सृष्टि, दूसरी शब्द सृष्टि अत: किसी एक धारा के ज्ञान से दूसरी का ज्ञान सहजता से हो जाता है। अर्थ सृष्टि तो लक्ष्मी का क्षेत्र है। अर्थ का निर्माण सोम की आहुति से ही होता है। विष्णु ही सोम अथवा परमेष्ठि लोक के अघिपति हैं। शब्द वाक् की अघिष्ठात्री सरस्वती है। परमेष्ठी लोक का ही दूसरा नाम सरस्वान समुद्र है। दोनों ही प्रकार की सृष्टियां वहीं से शुरू होती हैं। वहां वाक् का स्वरूप परावाक् होता है। लोक व्यवहार में देखा जाता है कि शब्द वाक् ही अर्थवाक् में परिवर्तित होता है। हमारा सारा जीवन व्यवहार शब्दों के अर्थ पर ही टिका होता है। जो विश्व हमें दिखाई देता है, वह भी अर्थ सृष्टि ही है। अर्थ के धन का पर्यायवाची नहीं है। प्राण रूप, स्थूल-सूक्ष्म-सृष्टि का वाचक है। हमारी उपासना-अनुष्ठान सभी शब्द वाक् पर आधारित हंै। मंत्रों के उच्चारण पर टिके हैं। सारे यज्ञ मंत्रों के माध्यम से पूर्ण होते हैं। फलरूप हम किसी न किसी अर्थ की कामना करते हैं। कोई धन मांगता है, कोई संतान, कोई साçन्नध्य चाहता है। सरस्वती ही लक्ष्मी रूप में बदलती है और सम्पूर्ण वाक् षोडशी रूप है। अत: देवियां सदा षोडशी रूप कहलाती हैं। सच तो यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि, जिसमें ऋषि, पितर और देव कारक बनते हैं, षोडशी स्वरूपा ही रहती है। हर देवी स्वयं में स्वतंत्र न होकर किसी न किसी देव की शक्ति ही तो है। बिना विष्णु के लक्ष्मी कहां रह सकती है। अर्थ रूपता के कारण विष्णु ही इस सृष्टि के निर्माता और पोषक हैं। ब्राह् है तो माया है। ब्राह्ा है तो सरस्वती है। हम केवल देवियों को पूजते हैं। उनके पति कभी साथ नहीं होते। इस तरह की पूजा में सामान्य लोक व्यवहार भी दिखाई नहीं पडता। षोडशी पुरूष में अव्यय की पांच कलाओं से हमारे पांच कोश बनते हैं। इसी से हमारा कारण शरीर + मन बनता है। अक्षर पुरूष हमारा सूक्ष्म शरीर और प्राण रूप आवरण बनता है। यह अव्यय पुरूष या कारण शरीर के साथ चिपका होता है। क्षर सृष्टि हमारा स्थूल शरीर है। स्थूल अन्त:करण और पंच महाभूत हैं। स्थूल पुर्यष्टक कहलाता है। यही मन-प्राण-वाक् का स्वरूप है। यही अव्यय-अक्षर-क्षर है। इसी में स्फोट, अक्षर-वर्ण का रूप समाहित रहता है। हमें षोडशी पुरूष का स्वरूप समझकर कारण शरीर के आवरणों से मुक्त होना है। अत: इसका ज्ञान हमारी प्रथम आवश्यकता है। क्योंकि हम सभी षोडशी हैं।
02 दिसंबर 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
एक टिप्पणी भेजें