02 दिसंबर 2009

उलूक


उलूक यानी उल्लू, लक्ष्मी का वाहन। जो लक्ष्मी के साथ रहकर भी अंधेरे को प्रकाश मानकर विचरण करे, वही उल्लू। हम लक्ष्मी प्राप्ति के लिए पूजा-पाठ और अनुष्ठान करते हैं। कृष्ण कहते हैं कि ईश्वर जिससे रूष्ट होता है, उसे अथाह धन-सम्पदा, समृद्धि देता है। ताकि वह ईश्वर को याद ही नहीं करे। हम भी लक्ष्मी को पाकर ईश्वर को भूल जाना चाहते हैं। लक्ष्मी जिस पर सवारी करे, वही उल्लू। जीवन का यह कैसा विरोधाभास है। लक्ष्मी का त्यौहार भी अमावास की काली रात में। और हम इसी में ढूंढते हैं जीवन का प्रकाश।उलूक शब्द का अर्थ करें- उ = उधर, लू = ले जाना, क = शक्तिपूर्वक। उधर का भावार्थ हुआ स्वयं से दूर। जो जबरदस्ती खींचकर स्वयं से, आत्म प्रकाश या ईश्वर से दूर ले जाता हो। आत्मा चेतना का नाम है, लक्ष्मी अर्थ (पदार्थ) या जड का नाम है। व्यक्ति एक ही दिशा में तो चल सकता है। या तो गति चेतन की ओर रह सकती है, या फिर जड की ओर। लक्ष्मी की ओर जाना ही जड की ओर, चेतना से दूर जाना है। और इसी के वाहक को उल्लू कहते हैं। इस मति का नाम ही उल्लू है। यह कोई पक्षी का नाम नहीं है। लक्ष्मी के प्रभाव में हमारी बुद्धि उल्लू जैसे कार्य करने लग जाती है। अज्ञान के अंधकार को जीवन का प्रकाश मानने लगती है। भौतिक सुखो की चकाचौंध में रमण करने लग जाती है। अहंकार उसमें आसुरी वृत्तियों का प्रवेश करता जाता है। जीवन को अंधकार में ले जाने का यह क्रम आगे से आगे बढता ही जाता है। तब निश्चित ही है कि लक्ष्मी का वाहन उल्लू होना वाजिब ही है।लक्ष्मी का अंधेरे के साथ भी गहरा जुडाव है। लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है। विष्णु क्षीर सागर में रहते हैं। यह परमेष्ठी लोक है, सोम लोक है। इसी में गौ लोक है। कृष्ण सोम वंशी हैं। काले हैं। सृष्टि का नियम है कि अग्नि में सोम की आहुति से यज्ञ चलता है। अत: सोम को अन्न का पर्यायवाची कहा गया है। सारी अर्थ सृष्टि सोम रूपा लक्ष्मी से उत्पन्न होती है। अग्नि सोम का भक्षण कर लेती है। सोम दिखाई नहीं पडता। जो कुछ दिखाई पडने वाला स्वरूप है, सम्पूर्ण सृष्टि में, वह अग्नि का ही प्रकट स्वरूप है। हमारा शरीर भी अग्नि रूप है। इसमें निरन्तर अन्न की आवश्यकता रहती है। तभी हमारी सृष्टि का भी संचालन होता है। दिन में सूर्य की तपन से सोम की कमी सम्पूर्ण जगत में व्याप्त होती रहती है। रात्रिकाल में आकाश द्वारा उसी सोम की वर्षा होती है। कमी को पूरा किया जाता है। सोम से निर्माण और पोषण भी। यही विष्णु का कार्य है। उसी को वेदों में यज्ञ पुरूष कहा गया है। सोम के बिना यज्ञ संभव ही नहीं है।हमारा शरीर भी प्रकृति दत्त है। इसका निर्माण और पोषण भी सोम से होता है। दिन में खर्च हुआ सोम रात्रि को हमारी थकान भी दूर करता है। नई शक्ति देता है। इसी शक्ति को लक्ष्मी कहते हैं। जिसे हम अन्न कहते हैं, वह केवल हमारा भोजन ही नहीं है। हमारी सारी भोग्य सामग्री हमारा अन्न कहलाती है। हम सब एक-दूसरे का अन्न हैं। आप मेरे लिखे हुए को पढ रहे हो, मुझे भोग रहे हो। ये विचारों का अन्न है। इसी प्रकार मन का अन्न होता है। सारे अन्नों का निर्माण लक्ष्मी करती है। धन भी एक प्रकार का अन्न ही है।परमेष्ठी लोक जिस प्रकार सोम लोक कहा गया है, वैसे ही पितर प्राणों का लोक भी यही है। सोम और पितर प्राण दोनों ही हमको चन्द्रमा से प्राप्त होते हैं। परमेष्ठी लोक हमारी सृष्टि का चन्द्रमा है। हमारी पृथ्वी का चन्द्रमा पृथ्वी के चक्कर लगाता रहता है। सोम और पितर प्राणों की आपूर्ति करता है। रात्रिकाल में बरसने वाले सोम से ही औषध और अन्न पैदा होते हैं। पृथ्वी पर भी और अन्तरिक्ष में भी। फल पकने के बाद जिसका पेड/पौधा नष्ट हो जाए, उसे औषघि कहते हैं। जिसका पेड बच जाए, वह वनस्पति कहलाता है। इसी अन्न के जरिए पितर प्राणों की और सोम की आपूर्ति हमारे शरीर में भी होती है। अन्न से ही शुक्र का निर्माण होता है। अन्न से मन का निर्माण होता है। मन भी अन्न की ही श्रेणी में आता है। ये सारा ही लक्ष्मी का क्षेत्र है। सोम के सारे कार्य-कलाप रात्रि में ही होते हैं। दिन में सूर्य की उष्णता सोम को निर्बल बना देती है। जीवन में समृद्धि के साथ जो जडता का प्रवेश होता है, वह भी रात्रि में ही उसे प्रवृत्त करता है। मद्यपान-जुआ-मादक द्रव्य-यौनाचार आदि की सारी क्रियाएं अंधकार से ही जुडी होती हैं। रात्रि के अंधकार यही एक विश्ेाषता है। अंधकार से जुडे विषय जीवन में लाभकारी नहीं होते। जीवन के कृष्ण और शुक्ल पक्ष में से उल्लू को कृष्ण ही प्रिय होता है। उसमें कहीं कोई भेद दिखाई नहीं पडते। अच्छे-बुरे, छोटे-बडे सारे भेद अंधकार में समा जाते हैं। बिना विचारे, बिना भेद-ज्ञान के कार्य करने वाले को उल्लू ही कहेंगे।उल्लू स्वभाव से भी क्रूर और अत्याचारी होता है। निर्दोष पक्षियों को यातना भी देता रहता है। धन मद में भी बहुत कुछ ऎसा ही करता है आदमी। उसे सब कुछ जायज भी लगता है और धन की ताकत से उसे एक गलतफहमी यह भी हो जाती है कि धन से वह सब कुछ खरीद सकता है। आदमी को धन से खरीद लेना आज आम बात हो गई। धीरे-धीरे ऎसे लोगों का समाज में उठना-बैठना भी कम हो जाता है। यह अलग बात है कि धन के जोर पर कुछ लोग सामाजिक पद हथिया लेते हैं। पर इनका सम्मान आम आदमी नहीं करता। उल्लू भले ही हमारी पूज्या लक्ष्मी का वाहन हो, इसका भी सम्मान कोई नहीं करता। हमारे यहां तो कहा जाता है कि जिस मकान पर उल्लू आकर नित्य बैठता है, वह मौत की सूचना देता है। उसे कोई अपने मकान पर बैठने तक नहीं देता। यदि मैं लक्ष्मी का वाहक बन गया तो मुझे भी बैठने देंगे या नहीं।जीवन का लक्ष्मी के साथ यह व्यवहार कितना विरोधाभासी है। लक्ष्मी की पूजा करें, उसे आने के लिए प्रसन्न करें और उल्लू को आने से भी रोक दें। लक्ष्मी तो उस पर बैठकर ही आएगी। लक्ष्मी के आते ही घर जड पदार्थो से भरने लगेगा। न जाने हम कितनी वस्तुएं खरीदकर लाएंगे। घर को जड पदार्थो का श्मशान बना देंगे। दूसरों को दिखाकर फूले न समाएंगे। यही परिग्रह की शुरूआत है। जीवन में हिंसा का प्रवेश (भाव हिंसा का) यहीं से होता है। जीवन की चेतना के द्वार बन्द होने लगते हैं। एक मूच्र्छा-सी बुद्धि और मन पर छाने लगती है। भीतर का मार्ग पूरी तरह अवरूद्ध हो जाता है। व्यक्ति बाहर की ओर ही भागने लगता है। फिर वह कभी स्वयं के बारे में चिन्तन-मनन नहीं करेगा। अज्ञान के अंधकार में उल्लू की तरह, लक्ष्मी को बिठाए भटकता रहेगा। ईश्वर की ओर से उसके कर्मो की यही सजा है- जा, उल्लू हो जा!