02 दिसंबर 2009

एक उजाड़ इमारत की पुराण गाथा


बहुत पुरानी बात है। एक राज्य हुआ करता था। कहने को वह लोकतांत्रिक था। शासक वर्ग (जिन्हें हम आज नेता के नाम से जानते हैं) के लोग बहुत खुशहाल थे। चूंकि लोकतंत्र था, इसलिए उनकी खुशहाली में किसी को दिक्कत नहीं थी। प्रजा भी अपने हिसाब से खुश थी। बहुत से लोग इस बात से खुश थे कि उन्हें लाइन में लगकर गैस सिलेंडर मिल जाता था तो कुछ लोग इसलिए खुश थे कि वे लाइन में नहीं लगकर ब्लैक में सिलेंडर ले आते थे।
कई लोग इसलिए खुश थे कि उन्हें दो जून की रोटी और शरीर ढंकने को एकाध लत्ता मिल जाता था। इसे वे ईश्वर की कृपा मानते थे। जिन्हें यह भी नसीब नहीं होता था, वे भी यह मानकर खुश थे कि भगवान की यही मर्जी होगी। कहने का मतलब यही है कि उस धर्मप्रधान राज्य की धर्मप्रेमी जनता हर हाल में खुश थी।
लेकिन उधर कुछ दिनों से शासक वर्ग को लगने लगा था कि राज्य में धर्म का प्रभाव कम हो रहा है। वे यह सोचकर चिंतित हुए कि इससे तो बेचारी प्रजा की खुशियां कम होती जाएंगी। ऐसा कुछ किया जाए कि धर्म की प्रतिष्ठा फिर से बहाल हो सके, ताकि जनता की खुशियां कम न होने पाएं।
गहन चिंतन-मनन के बाद अंतत: शासक वर्ग के परामर्शदाताओं का ध्यान अपने राज्य के एक बहुत प्राचीन नगर में स्थित एक बेहद प्राचीन इमारत की ओर गया। वह इतनी उजाड़ हो चुकी थी कि उसकी ओर कोई झांकता भी नहीं था। ऐसा सुनने में आया था कि वह कभी कोई धर्मस्थल हुआ करता था।
एक दिन बाहर से एक बर्बर आक्रमणकारी आया और उसे नष्ट करके अपने नाम पर नया धर्मस्थल बनवा दिया। लेकिन प्रजा को उससे कोई मतलब नहीं था। प्रजा के लिए राज्य में पहले ही ढेर सारे धर्मस्थल बने हुए थे, जो उसकी खुशियों के लिए काफी थे, किंतु शासक वर्ग के एक समूह ने खुद ही मान लिया कि उस उजड़ी हुई इमारत के स्थान पर नया धर्मस्थल बनाने से प्रजा बहुत खुश होगी और धर्म का राज कायम होगा। अंतत: वह इमारत गिरा दी गई। प्रजा खुश हुई या नहीं, यह तो मालूम नहीं हुआ, लेकिन शासक वर्ग का एक समूह बहुत खुश हुआ क्योंकि उसे स्वयं को खुश करने का एक मंत्र मिल गया था।
तो जो इमारत पहले काफी सुनसान और उजाड़ थी और जिसकी किसी को कोई फिक्र नहीं थी, प्रजा के दिमाग में घुसा दी गई। प्रजा का एक वर्ग इमारत के ढहने से बहुत खुश हुआ तो दूसरा वर्ग बहुत नाराज हुआ। दोनों ने अपनी खुशियों व नाराजगी का इजहार एक-दूसरे का खून पीकर किया। उधर, इमारत के विध्वंस को लेकर राज्य के मुखिया ने एक आयोग बिठा दिया, क्योंकि अब वह इमारत ढहने के बाद उजाड़ नहीं रह गई थी। वहां राजनीति की खेती होने लगी थी।
धीरे-धीरे समय गुजरता गया। प्रजा के दिमाग से इमारत की यादें धुंधली पड़ने लगीं। प्रजा अपने-अपने ढंग से खुश होने लगी थी। लेकिन शासक वर्ग को फिर प्रजा की खुशियों की चिंता होने लगी तो उसे आयोग की रिपोर्ट की याद आई, जिसे सदियों पहले गठित किया गया था।
रिपोर्ट राज्य के सबसे बड़े सदन में पेश की गई। रिपोर्ट पर शासक वर्ग के विभिन्न प्रजातियों के लोग आपस में गुत्थम-गुत्था होने लगे, यह दिखाने के लिए कि उन्हें अपनी प्रजा की कितनी ंिचंता है और उससे प्रजा खुश होगी। लेकिन अब तक प्रजा समझदार हो चुकी थी। उसने अपनी खुशियां कहीं और तलाश ली थीं। प्रजा अब भी धर्मप्रेमी है और रोज प्रार्थना करती है कि भगवान उसके शासकों को सद्बुद्धि दे।