02 दिसंबर 2009

वैभव ऐश्वर्य की प्रतीक है लक्ष्मी


अमावस्या का गहन अंधकार लक्ष्मी के स्वरूप और प्रकृति से मेल नहीं खाता। लक्ष्मी सौंदर्य, वैभव, ऐश्वर्य, पुष्टि और प्रकाश का प्रतीक है। इसलिए उनकी उपासना के लिए माघ शुक्ल पंचमी अर्थात श्री पंचमी या आश्विन पूर्णिमा ही उपयुक्त तिथि हैं। जब प्रकृति शिशिर के o£थ व आलस्य से निवृत होकर वनस्पति और किसलयों का प्ररोहण करती है या जब आश्विन का पूर्ण इन्दु पृथ्वी और अमृत वर्षा करता तो कृतज्ञ पृथ्वीवासी जीवन की आधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी की उपासना कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। कार्तिक अमावस्या की प्रकृति ऐसी नहीं है।
अमावश्य का घोर अंधकार जब दृष्य जगत को अपने आगोश में समेट लेता है तो जीवन प्रकाश और सौंदर्य के लिए अवकाश नहीं बचता। यह रहस्यमयी रजनी महाकाली की उपासना के लिए अधिक उपयुक्त लगती है। जब दृष्यमान विश्व किसी रहस्यपूर्ण अज्ञात के अनन्त अवकाश में विलीन हुआ जाता हैं, अस्तित्व अनिस्तत्व हो जाते है तो मृन्यृरूपिणी, मुक्त कुंतला मां काली की आराधना ही उपयुक्त हो सकती है।
लेकिन जब समूचा उतर भारत इस रात महालक्ष्मी की पूजा करता है तो इसका कुछ न कुछ कारण होना ही चाहिए। दश महाविद्याओं की उपसना पद्धति के दो क्रम हैं। और षोडशी क्रम। काली क्रम में काली, तारा, भैरवी और छिन्न मस्ता की उपासना की जाती है और षोडशी क्रम में त्रिपुर संदुरी, बगलामुखी, धुमावती, मातंगी, त्रिपुर, भैरवी और लक्ष्मी की। लक्ष्मी इनमें सबसे छोटी है।
इसलिए इन्हें कनिष्ठा भी कहते हैं। ये दोनों साधना क्रम प्रकृति के विलास के दो विपरीत पद्धतियों के प्रतीक है। दृष्यमान जगत के निरंतर अज्ञात में विलीन हो जाने की प्रक्रिया की अधिष्ठात्री देवी महाकाली है। वे श्यामवर्णा है और अधंकार उनका रूप हैं। अज्ञात से निकलकर अस्तित्व के मूर्तिमान होने की प्रक्रिया की अधिष्ठात्री है महात्रिपुर सुंदरी। वे रक्त वर्णा है और उनका स्वरूप है प्रकाश।
चन्द्रमा की बढ़ती और क्षय होती कलाओं में तांत्रिकों ने इन्हीं परस्पर विरोधी प्रक्रियाओं की अभिव्यक्ति देखी है। चांदनी रातों में हर तिथि को चंद्रमा विकसित होता जाता है। इस क्रम में अंधकार का अंश कम होता जाता है। पूर्णिमा की रात में चंद्रमा पूर्ण विकसित होता है। उस रात अंधकार बिल्कुल नष्ट हुआ सा लगता है। शुक्ल पक्ष की 15 रातों में हर तिथि को अंधकार की एक कला क्षय होती जाती है। फिर भी पूर्णिमा की रात में सोलहवीं कला के रूप में अंधकार विद्यमान रहता है।
इसे कहते हैं अनुमति। यह महाकाली है। यह अज्ञात, अनन्त, अननुमेय, महाकाली की शक्ति है। वह इस प्रत्यक्ष शक्ति का लगातार विधवंश कर रही है। वह जीवन के व्यापार से श्रांत जीवों को मृत्यु के निस पंद लोक में विश्राम का अवसर देती है और रूप, गंध, महात्रिपुरसुंदरी की लीला इससे भिन्न है। वे सृजन की देवी है। अनसितत्व को शुन्य से निकाल कर ले आती है और उन्हें अस्तित्व को शुन्य से निकाल कर ले आती है और उन्हें अस्तित्व प्रदान कर अपना लीलसखा बना लेती है। जीवन उनकी लीला है। प्रकाश उनका स्वरूप है। वे रोचना है, रोचिष्मति है, शुभा है।
अपने साधक को भोग और मोक्ष देती है। उनका यह रूप कृष्ण पक्ष की रातों में अभिव्यक्त होता है। कृष्ण पक्ष में हर तिथि को प्रकाश की एक कला कम होती जाती है। अमावस्या की रात तक प्रकाश की 15 कलाएं समाप्त हो चुकी होती है। उस रात अशेष प्रकाश की सोलहवीं कला शेष रहती है। इसे सिनीवाली कहते हैं। यह षोडशी कला है। यही महालक्ष्मी है। जिनकी महात्रिपुर सुंदरी के क्रम में अराधना होती है। यह जीवन, प्रकाश उत्कर्ष और पुष्टि का प्रतीक है।


कार्तिक अमावस्या के घोर अंधकार में जब सारी सृष्टि विलीन हो रही होती है, तो हिंदू प्रकाश की इसी षोडशी कला सिनीवाली की उपासना कहते हैं। यही महालक्ष्मी का रूप है। यह मृत्यु को भीषण दाढ़ों से जीवन को छीन लाने सरीखा है। जीवन का चरम उल्लास जैसे घोरतम निराशा में ही प्रकट हो सकता है। यही दीपावली की रात में महालक्ष्मी की उपासना का रहस्य। जो हिन्दुओं के परम उल्लास, महान शैर्य और अटल इच्छा शक्ति का प्रतीक है। यही हिन्दुत्व की अजेय जीवन शक्ति है।