प्रत्येक को शांति और अलौकिक आनंद की चाह होती है केवल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह किसी न किसी धार्मिक विश्वास के साथ स्वयं को जोड़ लेता है।
यह आचरण कई बार जातीय विषमता के कारण स्वार्थी लोग मानवता को दानवता द्वारा कुचलने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात को सोचना होगा कि जब संसार में इंसान पैदा हुआ तो क्या वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, हिंदू , मुसलिम, सिख था। क्या जब बच्चे का जन्म होता है तो उसे कोई कहता है कि यह हिन्दु पैदा हुआ है या मुसलमान पैदा हुआ है। जहां सभी शांति चाहते हैं वहीं अशांति बढ़ती जा रही है। इंसान अपने ही भाई का खून बहा रहा है। अपनी पहचान को मिटाता जा रहा है। इसके पीछे एक ही कारण है, बचपन से गलत शिक्षा देकर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए भोले भाले प्रभु भक्तों को गुमराह कर दिया और धर्म के तवे पर अपने स्वार्थ की चपातियों को सेंकने लगे।
धर्म का प्रचार करने वाले धार्मिक लोग ही जब अधर्म करने लग जाएं तो धर्म के ऊपर से लोगों का विश्वास उठने लग जाएगा। चारों तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही संप्रदायिकता का जहर कैंसर की तरह फैलता जा रहा है। पुराने रीति-रिवाज जो भी रहे हैं वे गलत नहीं रहे हैं, लेकिन कुछ लोगों ने धर्म ग्रंथों की शिक्षाओं के बीच से अपनी स्वार्थ पूर्ति का रास्ता बना लिया और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।
यह विश्वास हिंदु, मुसलिम,सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न संप्रदायों के रूप में हमारे सामने है। इंसान जिस परिवार में जन्म लेता है। उसके संस्कार उसकी सभ्यता को स्वीकार करते हैं और अपने पूर्वजों के उत्तराधिकारी के रूप में खुद को आगे बढ़ाता है। इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं रहा, क्योंकि विश्वास तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता है, लेकिन अंधविश्वास से द्वेष भावना, ईष्र्या, नफरत की चिंगारी, इंसान, परिवार और समाज को जलाकर राख कर देती है।
यह आचरण कई बार जातीय विषमता के कारण स्वार्थी लोग मानवता को दानवता द्वारा कुचलने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात को सोचना होगा कि जब संसार में इंसान पैदा हुआ तो क्या वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, हिंदू , मुसलिम, सिख था। क्या जब बच्चे का जन्म होता है तो उसे कोई कहता है कि यह हिन्दु पैदा हुआ है या मुसलमान पैदा हुआ है। जहां सभी शांति चाहते हैं वहीं अशांति बढ़ती जा रही है। इंसान अपने ही भाई का खून बहा रहा है। अपनी पहचान को मिटाता जा रहा है। इसके पीछे एक ही कारण है, बचपन से गलत शिक्षा देकर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए भोले भाले प्रभु भक्तों को गुमराह कर दिया और धर्म के तवे पर अपने स्वार्थ की चपातियों को सेंकने लगे।
धर्म का प्रचार करने वाले धार्मिक लोग ही जब अधर्म करने लग जाएं तो धर्म के ऊपर से लोगों का विश्वास उठने लग जाएगा। चारों तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही संप्रदायिकता का जहर कैंसर की तरह फैलता जा रहा है। पुराने रीति-रिवाज जो भी रहे हैं वे गलत नहीं रहे हैं, लेकिन कुछ लोगों ने धर्म ग्रंथों की शिक्षाओं के बीच से अपनी स्वार्थ पूर्ति का रास्ता बना लिया और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।
यह विश्वास हिंदु, मुसलिम,सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न संप्रदायों के रूप में हमारे सामने है। इंसान जिस परिवार में जन्म लेता है। उसके संस्कार उसकी सभ्यता को स्वीकार करते हैं और अपने पूर्वजों के उत्तराधिकारी के रूप में खुद को आगे बढ़ाता है। इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं रहा, क्योंकि विश्वास तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता है, लेकिन अंधविश्वास से द्वेष भावना, ईष्र्या, नफरत की चिंगारी, इंसान, परिवार और समाज को जलाकर राख कर देती है।
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