151 हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है.
152 मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है. अपने तो पाप का बड़ा नगर बसाता है और दूसरे को छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है.
153 सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, माँ-अपमान, निंदा-स्तुति ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते हैं, दोनों में भगवान् को देखें.
154 मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी. इसके बिना बाहर के जगत का कोई व्यवहार नहीं चलेगा. अगर अंदर स्वयं को जगा लिया तो भीतर तेरा-तेरा शुरू होने से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर लेता है.
155 न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई वास्तु मिल सकती है, न चिंता से कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वास्तु दे दे. विधाता के विधान के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है.
156 जिस राष्ट्र में विद्वान् सताए जाते हैं, वह विपत्तिग्रस्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे टूटी नौका जल में डूबकर नष्ट हो जाती है.
157 पूरी दुनिया में 350 धर्म हैं. हर धर्म का मूल तत्व एक ही है, परन्तु आज लोगों का धर्म की उपेक्षा अपने-अपने भजन व पंथ से अधिक लगाव है.
158 तीनों लोगों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिलकुल नहीं. किन्तु दुःख के दो स्त्रोत हैं- एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव.
159 सारे काम अपने आप होते रहेंगे, फिर भी आप कार्य करते रहें. निरंतर कार्य करते रहें, पर उसमें ज़रा भी आसक्त न हों. आप बस कार्य करते, यह सोचकर कि अब हम जाए रहें बस, अब जा रहे हैं.
160 आप बच्चों के साथ कितना समय बिताते हैं, वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कैसे बिताते हैं.
161 पिता सिखाते हैं पैरो पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना. तभी वह अलग है, महान है.
162 माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा - इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है. इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों- सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग. उनके साथ गुजारा हर पल शानदार होता है.
163 जो संसार से ग्रसित रहता है, वह बुद्धू तो हो सकता; लेकिन बुद्ध नहीं हो सकता.
164 विपरीत दिशा में कभी न घबराएं, बल्कि पक्की ईंट की तरह मजबूत बनाना चाहिय और जीवन की हर चुनौती को परीक्षा एवं तपस्या समझकर निरंतर आगे बढना चाहिए.
165 सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है. इसलिए खा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हजारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं.
166 अखण्ड ज्योति ही प्रभु का प्रसाद है. वह मिल जाए तो जीवन में चार चाँद लग जाएँ.
167 दो प्रकार की प्रेरणा होती है - एक बाहरी व दूसरी अंतर प्रेरणा. आतंरिक प्रेरणा बहुत महत्वपूर्ण होती है; क्योंकि वह स्वयं की निर्मार्त्री होती है.
168 अपने आप को को बचाने के लिये तर्क-वितर्क करना हर व्यक्ति की आदत है. जैसे क्रोधी व लोभी आदमी भी अपने बचाव में कहता मिलेगा कि यह सब मैंने तुम्हारे कारण किया है.
169 जब-जब ह्रदय की विशालता बढ़ती है तो मन प्रफुल्लित होकर आनंद की प्राप्ति कर्ता है और जब संकीर्ण मन होता है तो व्यक्ति दुःख भोगता है.
170 जैसे बाहरी जीवन में युक्ति व शक्ति जरूरी है, वैसे ही आतंरिक जीवन के लिये मुक्ति व भक्ति आवश्यक है.
171 तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है.
172 जिसकी मुस्कराहट कोई चीन न सके, वही असल सफा व्यक्ति है.
173 मनुष्य का जीवन तीन मुख्य तत्वों का समागम है - शरीर, विचार एवं मन.
174 प्रेम करने का मतलब सम-व्यवहार जरूरी नहीं, बल्कि समभाव होना चाहिए. जिसके लिये घोड़े की लगाम की भांति व्यवहार में ढील देना पड़ती है और कभी खींचना भी जरूरी हो जाता है.
175 इस दुनिया में ना कोई जिन्दगी जीता है, ना कोई मरता है. सभे सिर्फ अपना-अपना कर्ज चुकाते हैं.
17 जनवरी 2011
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन ( 151 - 175 )
Posted by Udit bhargava at 1/17/2011 06:47:00 pm
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