क्रोध एक तरंग है-क्रोध मनुष्य के स्वभाव का एक भाग है। प्राय: सभी प्राणियों को कमोबेश क्रोध आता है। प्रत्येक व्यक्ति इससे छुटकारा पाना चाहता है। छुटकारा पाने के लिए मनुष्य ने कई तरीके ढूंढ निकाले हैं जैसे क्रोध के समय पानी पीना, गिनती गिनना, जिस इष्ट को मानता है, उस इष्ट देव को याद करना, मन्त्र जाप या किसी गुरु महाराज का नाम लेना इत्यादि-इत्यादि। इन प्रचलित तरीकों से क्रोध तो कम होता है, किन्तु समाप्त नहीं होता। उस समय तो क्रोध कम होता है किन्तु जब वही परिस्थिति दुबारा पैदा होती हैं, तब क्रोध उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि ये प्रचलित उपाय हमारे मन के ऊपरी सतह पर कार्य करते हैं। जबकि क्रोध मन की गहराइयों से उत्पन्न होता है। क्रोध को मन की गहराइयों से समाप्त करने के लिए हमें क्रोध की उत्पत्ति को समझना चाहिए। भगवान बुद्ध ने क्रोध व अन्य विकारों की उत्पत्ति तथा उसका निदान कैसे हो उसका तरीका बहुत ही सरल एवं वैज्ञानिक ढंग से समझाया है। भगवान बुद्ध बताते हैं कि हमारे मस्तिष्क के चार भाग हैं। पहला भाग है, संज्ञान। कोई भी तरंग पहले हमारी इन्द्रियों तक पहुंचती है। आवाज की तरंग हमारे कान में पहुंचती है, दृश्य की तरंग हमारी आंख के पट पर पहुंचती है, सुगंध की तरंग हमारी नाक तक पहुंचती है, स्वाद की तरंग हमारी जिह्वा पर पहुंचती है तथा स्पर्श की तरंग हमारी त्वचा पर पहुंचती है। जैसे ही इनमें से कोई एक तरंग हमारी किसी इंद्रिय पर पहुंचती है, तो उस इंद्रिय को इसकी जानकारी होती है। यह जानना हमारे मस्तिष्क का पहला भाग है। हमारे मस्तिष्क का दूसरा भाग इस तरंग को पहचानता है। जिह्वा पहचानती है कि यह तरंग स्वाद है। कान पहचानता है कि यह शब्द है, नाक पहचानती है कि यह गन्ध है, आंख पहचानती है कि यह वस्तु है, त्वचा पहचानती है कि यह स्पर्श है। इस तरह मस्तिष्क का दूसरा भाग पहचानने का काम करता है। यह तरंग मस्तिष्क के दूसरे भाग से तीसरे भाग पर पहुंचती है। हमारे मस्तिष्क का तीसरा भाग इस तरंग का विश्लेषण करता है। कान द्वारा शब्द को पहचानने के बाद हमारा मस्तिष्क इस तरंग का विश्लेषण करके हमें बताता है कि यह शब्द अच्छा है या बुरा, मधुर है या तीखा। शब्द के विश्लेषण के बाद यह तरंग मस्तिष्क के तीसरे भाग से चौथे भाग के पास पहुंचती है। यह भाग विश्लेषण के आधार शब्द के अच्छे या बुरे का निर्धारण करता है। शब्द यदि अच्छा है, तो मन उसे और सुनना चाहता है और शब्द यदि बुरा है, तो मन उसे सुनना नहीं चाहता। अच्छे शब्द के और सुनने की चाहत को तृष्णा या राग कहते हैं। अप्रिय शब्द के न सुनने की इच्छा को द्वेष कहते हैं। इस प्रकार राग और द्वेष की उत्पत्ति होती है। जब इस द्वेष की मात्रा बढ जाती है, तो हम उसे क्रोध कहते हैं। क्रोध की उत्पत्ति का यह विज्ञान है, जो तथागत गौतम बुद्ध ने ढूंढा था। उन्होंने कहा कि क्रोध भी एक तरंग है, जो हमारे मस्तिष्क के पट पर प्रतिबिम्बित होती है, जिसे हम अपने शरीर के किसी न किसी अंग पर संवेदना के रूप में महसूस कर सकते हैं। भगवान ने यह नियम ढूंढ निकाला कि शरीर पर संवेदन के उत्पन्न हुए बिना मस्तिष्क में कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता।
यह तो हुआ क्रोध को बुद्धि के स्तर पर समझने का विज्ञान, किन्तु मात्र समझने से क्रोध दूर नहीं होता। भगवान ने क्रोध के विज्ञान को समझाने के साथ साथ इसे समूल नष्ट करने का तरीका भी बताया है। दबाने से नहीं अपितु मात्र देखने से क्रोध उत्पन्न नहीं होता यहां देखने से अभिप्राय है, महसूस करने से या अनुभव करने से। भगवान के इस विशेष तौर से देखने की विद्या को विपश्यना कहते हैं। क्रोध को सीधे-सीधे तो हम देख नहीं सकते, किन्तु जब आदमी क्रोधित होता है तो उसके हाथ पैर कांपने लगते हैं या ठंडे होने लगते हैं। उसकी सांस तेज हो जाती हैं। उसके दिल की धडकन बढ जाती है। ये सब क्रोधित मनुष्य के शरीर के ऊपर घटता है जिसे वह महसूस कर सकता है, देख सकता है। यह अनुभव प्रिय होगा या अप्रिय होगा। विपश्यनाहमें बुद्धि के विश्लेषण करने वाले भाग के स्तर पर हमें प्रिय या अप्रिय अच्छे या बुरे के रूप में विश्लेषण करने से बचा लेती है। एक साधक बार-बार अभ्यास करके बुद्धि के उस स्वभाव को बदल लेता है, जो कि प्रतिक्रिया करता है। यह स्वभाव का बदलाव मात्र बुद्धि के स्तर पर नहीं होता अपितु संवेदना के स्वभाव को जानने के आधार पर होता है। एक साधक उस सत्य को जान लेता है कि प्रत्येक संवेदना अनित्य है। अनित्यताके इस अनुभव पर वह अपने स्वभाव को भोक्ता-भाव से निकाल कर दृष्टा भाव में प्रस्थापित कर लेता है और प्रतिक्रियावादीस्वभाव से मुक्त होकर मात्र क्रियावादी बन जाता है। मन की गहराइयों में छुपे क्रोध के स्वभाव से धीरे-धीरे अभ्यास करते करते मुक्त हो जाता है। इसके अभ्यास के लिए साधक को दस का विपश्यनाका शिविर करना चाहिए। तब वह क्रोध को देखकर क्रोध से मुक्त होने का विज्ञान सीख सकता है। और अपने जीवन को सुखी बना सकता है तथा वातावरण को भी क्रोध के दुष्प्रभाव से मुक्त कर सकता है। क्रोध की तरंग से सचेत होकर कोई भी मनुष्य इस प्रकार क्रोध का उपचार कर सकता है।
17 जनवरी 2011
विपश्यना से क्रोध का उपचार
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/17/2011 12:31:00 pm
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Aapne bahut Gyan ki bat batai
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