एक दिन श्री कृष्ण और अर्जुन जब यमुना तट पर विचरण कर रहे थे तो उनकी भेंट स्वर्ण रंग के एक अति तेजस्वी ब्राह्मण से हुई। कृष्ण एवं अर्जुन ने ब्राह्मण को प्रणाम किया उसके पश्चात् अर्जुन बोले, "हे ब्रह्मदेव! आप पाण्डवों के राज्य में पधारे हैं इसलिये आपकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है। बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।"
अर्जुन के वचनों को सुन कर ब्राह्मण ने कहा, "हे धनुर्धारी अर्जुन! मुझे बहुत जोर की भूख लगी है। तुम मेरी क्षुधा शान्त करने की व्यवस्था करो। किन्तु मेरी भूख साधारण भूख नहीं है। मैं अग्नि हूँ तथा इस खाण्डव वन को जला कर अपनी क्षुधा शान्त करना चाहता हूँ। परन्तु इन्द्र मुझे ऐसा करने नहीं देते, वे अपने मित्र तक्षक नाग, जो कि खाण्डव वन में निवास करता है, की रक्षा करने के लिये मेघ वर्षा करके मेरे तेज को शान्त कर देते हैं तथा मुझे अतृप्त रह जाना पड़ता है। अतएव जब मैं खाण्डव वन को जलाने लगूँ उस समय तुम इन्द्र को मेघ वर्षा करने से रोके रखो।" इस पर अर्जुन बोले, "हे अग्निदेव! मैं तथा मेरे मित्र कृष्ण इन्द्रदेव से युद्ध करने का सामर्थ्य तो रखते हैं किन्तु उनके साथ युद्ध करने के लिये हमारे पास अलौकिक अस्त्र शस्त्र नहीं हैं। यदि आप हमे अलौकिक अस्त्र शस्त्र प्रदान करें तो हम आपकी इच्छा पूर्ण कर सकते हैं।"
अग्निदेव ने तत्काल वरुणदेव को बुला कर आदेश दिया, "वरुणदेव! आप राजा सोम द्वारा प्रदत्त गाण्डीव धनुष, अक्षय तूणीर, चक्र तथा वानर की ध्वजा वाला रथ अर्जुन को प्रदान करें।" वरुणदेव ने अग्निदेव के आदेश का पालन कर दिया और अग्निदेव अपने प्रचण्ड ज्वाला से खाण्डव वन को भस्म करने लगे। खाण्डव वन से उठती तीव्र लपटों से सारा आकाश भर उठा और देवतागण भी सन्तप्त होने लगे। अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला का शमन करने के लिये देवराज इन्द्र ने अपनी मेघवाहिनी के द्वारा मूसलाधार वर्षा करना आरम्भ किया किन्तु कृष्ण और अर्जुन ने अपने अस्त्रों से उन मेघों को तत्काल सुखा दिया। क्रोधित हो कर इन्द्र अर्जुन तथा श्री कृष्ण से युद्ध करने आ गये किन्तु उन्हे पराजित होना पड़ा।
खाण्डव वन में मय दानव, जो कि विश्वकर्मा का शिल्पी था, का निवास था। अग्नि से सन्तप्त हो कर मय दानव भागता हुआ अर्जुन के पास आया और अपने प्राणों की रक्षा के लिये प्रार्थना करने लगा। अर्जुन ने मय दानव को अभयदान दे दिया। खाण्डव वन अनवरत रूप से पन्द्रह दिनों तक जलता रहा। इस अग्निकाण्ड से वहाँ के केवल छः प्राणी ही बच पाये वे थे - मय दानव, अश्वसेन तथा चार सारंग पक्षी। खाण्डव वन के पूर्णरूप से जल जाने के पश्चात् अग्निदेव पुनः ब्राह्मण के वेश श्री कृष्ण और अर्जुन के पास आये तथा उनके पराक्रम से प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा। कृष्ण ने अपनी तथा अर्जुन की अक्षुण्न मित्रता का वर माँगा जिसे अग्निदेव ने सहर्ष प्रदान कर दिया। अर्जुन ने अपने लिये समस्त प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र माँगा। अर्जुन की इस माँग को सुन कर अग्निदेव ने कहा, "हे पाण्डुनन्दन! तुम्हें समस्त प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र केवल भगवान शंकर की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है, मैं तुम्हें यह वर देने में असमर्थ हूँ। किन्तु मैं तुम्हें सर्वत्र विजयी होने का वर देता हूँ।" इतना कह कर अग्निदेव अन्तर्ध्यान हो गये।
04 मई 2010
महाभारत - खाण्डव वन का दहन
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Posted by Udit bhargava at 5/04/2010 07:30:00 pm
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