म संबंधों में एक इंसान अपने लिये, अपनी इच्छा अनुसार, अपने जैसा, अपने योग्य-अयोग्य, भला-बुरा आदि देख कर ही किसी को चुनता है, और संबंध बनाता है। प्रेम में इंसान बिना सोचे-समझे, किसी भी नफ़ा-नुकसान की चिंता के, किसी को चुनता नहीं है बल्कि किसी का हो जाता है। सामने वाले को ज्यों का त्यों हर बुराई-अच्छाई के साथ स्वीकार करता है और बिना किसी लोभ के संबंध बनाता है। एक मतलबी, चालाक व्यक्ति या राजनीतिज्ञ बहुत सोच समझकर किसी से संबंध बनाता है वह अपने से ऊंचे, ताकतवर या कामयाब आदि से संबंध बनाता है ताकि वह उसके काम आ सके, उसे अपनी सफलता का सोपान बना सके। तमाम तरह के संबंधों में से एक संबंध ऐसा भी है जो स्वयं में अद्भुत एवं पूजनीय है और वह है गुरू-शिष्य संबंध। यह एक ऐसा संबंध है जिससे जीवन के सारे द्वार खुल जाते हैं। यह एक ऐसा बंधन है जहाँ बंधन मुक्ति बन जाता है। न केवल संसार का बल्कि स्वयं का मोह भी पीछे छूट जाता है। यह बंधन जन्म-जन्म के बंधनों से शिष्य को स्वतंत्र कर देता है।
इस संबंध को और भी निराला बनाती है गुरू-शिष्य के बीच की असमानता। अर्थात जहाँ एक ओर अन्य संबंध अपने आपसी संबंधों में समानता तलाशते हैं वहीं गुरू-शिष्य संबंध में दोनों एक दूसरे के ठीक विपरीत होते हैं बल्कि असमान भी होते हैं। दोनों की अवस्था एवं स्तर में जमीन आसमान का अंतर होता है परन्तु यही अंतर दोनों के संबंध का आधार होता है। गुरू महाज्ञानी होता है तो शिष्य महामूढ़ होता है। गुरू मुक्त होता है, तो शिष्य बंधा होता है। गुरू देने वाला होता है तो शिष्य लेने वाला। इतनी असमानता होने के बावजूद भी दोनों में संबंध निर्मित होता है।
अन्य संबंधों में हर कोई स्वयं को ऊपर या श्रेष्ठ समझता है तथा अपने सामने वाले को हराना चाहता है। स्वयं की हार या नुकसान को कभी गले नहीं लगाना चाहता बल्कि अपनी हार या कमी को दूसरों के कंधे पर लाद देता है और अपनी हर असफलता के लिये दूसरे को जिम्मेदार ठहराता है परन्तु गुरू शिष्य संबंध में ऐसा नहीं है। जिस दिन गुरू अपने शिष्य से हार जाता है उस दिन उसका सीना गर्व से और चौड़ा हो जाता है। ठीक इसके विपरीत यदि शिष्य कहीं कोई गलती करता है या अपनी कमी के कारण लज्जित होता है तो गुरू स्वयं को जिम्मेदार पाता है। कमी अपने शिष्य में नहीं अपनी शिक्षा-दीक्षा में ढूँढता है।
अन्य सांसारिक संबंधों में हर इंसान पल प्रतिपल घुटता है, मरता है लेकिन किसी का शिष्य होकर इंसान पल-पल मिटता नहीं संवारता है, बल्कि बार-बार मिटने में ही वह बनाता है, सच तो यह है इस संबंध में इंसान का पुनर्जन्म होता है। गुरू के सानिध्य में आत्मिक रूपांतरण द्वारा इंसान को शिष्य के रूप में पुनःजीवन मिलता है। असली मुक्ति, असली जीवन या दूसरा जन्म का अवसर इंसान को इस संबंध से गुजर कर ही प्राप्त हो सकता है।
यह तो सभी जानते हैं कि शिष्य अपने गुरू से बहुत कुछ सीखता है तथा उसके निर्देशन में स्वयं को निखरता है। परन्तु इसी दीक्षा के दौरान गुरू भी स्वयं को मांझता रहता है। गुरू न केवल शिष्य की परीक्षाएं लेता है बल्कि स्वयं भी एक मूक, अद्रश्य परीक्षा से गुजरता रहता है। हर गुरू अपने हर शिष्य के साथ नए अनुभवों से गुजरता है और यहीं अनुभव गुरू को और भी ज्ञानी या परम ज्ञानी बनाते हैं। क्योंकि शिष्य के सवालों एवं जिज्ञासाओं को शांत करते-करते गुरू भी और निखरता रहता है। इसलिए जितना एक शिष्य एक अच्छा गुरू पाकर स्वयं को कृतज्ञ महसूस करता है, उतना ही एक गुरू भी एक अच्छा शिष्य पाकर स्वयं को धन्यभागी समझता है।
गुरू यदि अपने ज्ञान एवं अनुभव से गुरू बनाता तो शिष्य अपने समर्पण एवं सीखने के भाव से शिष्य बनता है। गुरू का ज्ञानी होना जरूरी है तो शिष्य का समर्पित होना जरूरी है। गुरू के देने एवं शिष्य के लेने के ढंग पर यह रिश्ता टिकता है। एक तरफ़ा यह संबंध नहीं टिक सकता। दोनों की समान रूप से प्रतिक्रया बहुत जरूरी है। गुरू चाहे कितना ही ज्ञानी हो यदि शिष्य ही मिटने को राजी नहीं है तो गुरू के ज्ञान का कोई लाभ नहीं। ठीक उसी तरह शिष्य कितना ही सच्चा या समर्पित शिष्य हो यदि गुरू ही नाम का गुरू निकले, ज्ञान का नहीं, तब भी सब व्यर्थ है।
सच्चे गुरू और सच्चे शिष्य का मिलाप ही इस संबंध की नींव है। बांटना एक कला है तो ग्रहण करना भी के हुनर है। यदि यह प्रमुख है कि गुरू क्या व कैसे बांटता है तो यह भी महत्वपूर्ण है कि शिष्य क्या, कैसे व कितना समझता है? गुरू के उपदेश में दम होना चाहिए तो शिष्य के अनुसरण में भक्ति। ताली दोनों हाथों से बजनी चाहिए ये नहीं कि बातें सुनी, कंठस्थ की और जीवन में नहीं उतारी। गुरू हर एक को शिष्य नहीं बनाता। गुरू पहले परिक्षा लेता है, परखता है तब किसी को अपना शिष्य बनाता है। गुरू अपने ज्ञान एवं गुणों से गुरू बनता है ठीक ऐसे ही शिष्य भी किसी का गुरू मंत्र लेने या किसी आश्रम में नियमित तौर में चक्कर काटने में शिष्य नहीं बनता, उसके स्वयं के सीखने की, झुकने की, मिटने की, नया होने की प्रबल इच्छा व लगन ही उसे सही मायने में शिष्य बनाती है।
आज के गुरू-शिष्य
आज टी.वी. खोलने की देर है आपको तमाम संत, गुरू आदि उपदेश देते दिख जायेंगे। लगता है कि गुरू बनाना, प्रवचन देना एक ट्रेंड सा बन गया है। कोई भगवे कपड़ों की आड़ ले रहा है तो कोई 'पर्सनेलिटी डेवलेपर' के मुखौटे में जनता को बदलने में लगा हुआ है। मजे की बात तो यह है कि गुरू बनने की ही होड़ नहीं लगी हुई शिष्य बनने की भी लोगों में एक अच्छी-खासी दौड़ जारी है।
शिष्य होना जैसे एक फैशन सा हो गया है। लोग भले ही गुरू का अनुसरण करे न करे, लेकिन उनके आसपास इकट्ठे होकर यह जरूर जता देते हैं कि उनसे बड़ा और सच्चा शिष्य कोई और नहीं है। गुरूओं के नाम पर लोग लड़ रहे हैं। एक पंथ दूसरे पंथ को नीचा दिखाने में तुला हुआ है। एक संस्थान दूसरी संस्थान की पोल खोलना चाहती है। हालत तो यह है कि गुरू-शिष्य एक दूसरे पर निर्भर हो गए हैं, दोनों की साझेदारी से ही दोनों की गाडी चलती है, तथा एक दूसरे की सहायता में ही एक दूसरे की भलाई है। शिष्य ज्यादा हैं तो गुरू को लाभ है और गुरू विख्यात है तो शिष्यों की चांदी हैं। संतुष्टि न शिष्य को न गुरू को। शिष्य गुरू होना चाहता है और गुरू भगवान् होना चाहता है। इसलिए न तो गुरू कहीं पहुंचता मालून होता है ना ही शिष्य।
सच्चे गुरू के बिना जीवन की मुक्ति सँभव नहीं। गुरू गोविंद सिंह जी ने प्रभु के स्तुतिगान तथा मनुष्य की मुक्ति का स्त्रोत 'गुरू ग्रंथ साहिब' को बताया और उन्हीं को अनंतकाल के लिए संपूर्ण मानवजाति का गुरू बनाया। गुरू जी का पावन वचन है,
जवाब देंहटाएं"गुरू ग्रंथ जी मानियो,
प्रगट गुराँ की देह।
जो प्रभ को मिलबो चहै,
खोज शबद महिं लेहु।"
(अर्थात, गुरू ग्रंथ साहिब को ही गुरू एवँ सभी पूर्व गुरूओं की ज्योति माना जाए।
जो कोई भी प्रभु को मिलना चाहे, वह उसे गुरू ग्रंथ साहिब के पावन वचनों में से ढूँढ ले।)
kripya article chori karne se pehle soch liya karen .............text ke saath saath aapne pictures tak bhi as it is chura rakhin hain ........kripya baat karen at 9810388549
जवाब देंहटाएंuparyukt lekh tasveer sahit patrika grehlaksmi july 2009 ke prisht 68-69 me chap chuka hai .............shigra ati shighra phone kare .....anyatha mujhe aap par case karna padega at 9810388549
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