शिव मंदिर में पंडित जयभगवानकसारियाने प्रवचनों में कहा कि उस परम रचनाकार की प्रत्येक रचना होम्योपैथिक औषधि की भांति सांसारिक विकारों के निराकरण में सहायक सिद्ध होती है पर इस रहस्य का कुशल उपयोग सद्गुरु चिकित्सक ही जानता है, जो परमात्मा का साकार रूप होता है। इसीलिए चिकित्सक को धरती का भगवान कहा गया है।
पंडित जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि होम्योपैथिक दवाओं का आकार, रूप, रंग सब देखने में एक सा होता है। दवाओं के पृथक-पृथक नाम हैं। उनमें मौजूद रोग को दूर करने की क्षमता का ज्ञान केवल दवा के निर्माता को होता है या चिकित्सक को होता है। दवा की शीशी पर लेबल लगाकर दवा निर्माता प्रत्येक की पृथकताका बोध तो करा देता है पर दवा का उपयोग सार्थक तरीके से रोगी पर कैसे हो, इसका ज्ञान केवल योग्य चिकित्सक को ही होता है। जिसे वह सतत साधना और अनुभव से अर्जित करता है। इसी प्रकार शरीर रूपी शीशी में बंद आत्मा का रूप, रंग एक है, उस पर जलचर, नभचर के लेबल परमात्मा ने लगाकर संसार में भेजा है। उस परम रचनाकार की प्रत्येक रचना होम्योपैथिक औषधि की भांति सांसारिक विकारों के निराकरण में सहायक सिद्ध होती है पर इस रहस्य का कुशल उपयोग सद्गुरु चिकित्सक ही जानता है, जो परमात्मा का साकार रूप होता है। चिकित्सक को धरती का भगवान इसीलिए कहा गया है।
विकास शरीर में होते हैं, विकास रहित आठमा,दवा की भांति शरीर रूपी शीशी में असंग रहता है। संसार के प्रत्येक पदार्थ में छुपे गुणदोष का ज्ञान प्राप्त कर, प्रकृति को उसी की शक्ति के माध्यम से मनुष्य के अधीन कर, उसके लिए ही प्रयोग करने वाला वैज्ञानिक भी साधक है और सिद्ध भी किन्तु वह परमात्मा की माया प्रकृति के आसपास ही शोधरतरहकर प्रकृति पर विजय पाने का गर्व जीता रहता है। इसलिए वह सिद्धियों का स्वामी तो हो जाता है पर मुक्तात्मानहीं हो पाता।
परमात्मा औषधीय पदार्थो का सृष्टाहै पर औषधि का निर्माता वैज्ञानिक होता है और उसका कुशल प्रयोगकर्ता पदार्थ के चामत्कारिक प्रयोग से मानव को चमत्कृत कर उसके एक बडे वर्ग का अपना भक्त बना लेता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए औषधि योगी का मार्ग दर्शन अनिवार्य है और अदृश्य प्राकृतिक शक्तियों को मानव के अनुकूल करने के लिए योगी का सहयोग अपेक्षित है। किन्तु पूर्ण मानवीय चेतना के उत्थान के लिए परम आवश्यकता है अध्यात्म योगी की।
उन्होंने कहा कि वेदान्त और भक्ति मार्ग अर्थात विज्ञान की अपेक्षा इनमें एकांगी और अतिवादी दृष्टिकोण की गंध समाहित है। इन दोनों अतिवादी स्थितियों का समन्वय सेतु है योगदर्शन। औषधि शरीर को रोग से मुक्ति दिलाती है और योग मार्ग शरीर के रहते हुए भी बंधन मुक्त आकाश विचरण की सामर्थ्य प्रदान करता है।
21 फ़रवरी 2010
योग मार्ग में निहित है बंधनों से मुक्ति
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 2/21/2010 08:15:00 am
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