शिव शक्ति मंदिर में पण्डित भोलानाथ ने प्रवचनों में कहा कि मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है। अत:मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सुधारने के लिए अच्छे कर्म करने के साथ-साथ रामनाम का जाप करे।
राम नाम का जाप करने से जहां मनुष्य का मन शुद्ध होता है। वहीं मनुष्य इससे परोपकारी भी हो जाता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को त्याग कर दूसरों के भले ही सोचे और अपने मन को स्थिर करे। इस प्रकार सत्कर्म करने का फल उसे अवश्य मिलेगा और उसका जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।
उन्होंने कहा कि मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आना स्वाभाविक है, परन्तु मनुष्य अध्यात्म के बल पर सभी बाधाओं को आसानी से पार कर लेता हैं। अध्यात्म की शक्ति मनुष्य को प्रेरणा देती है कि वह कर्म फल की प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण कर दे। साधना करने के परिणाम काफी सुखद होते हैं। हालांकि प्रारंभ में साधना करते हुए मनुष्य को कुछ परेशानियों का सामना करना पडता है परंतु आखिरकार इसके परिणाम काफी सुखद होते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है और धर्म के सेवन से ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक ऊर्ज का आविर्भाव होता है। ईश्वर की उपासना समर्पण भाव से की जानी चाहिए और मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर के रोग-द्वेष को अपने विवेक की कैंची से काट डाले तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए मानव को इंद्रियों पर काबू पाना सीखना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों का संचालन करना मानव को सिखाया है। इंद्रियों का संचालन ही हृदय का गोकुल है। उन्होंने कहा कि भोजन थाली में होगा तो पेट में भी होगा और अगर थाली ही खाली हो तो पेट भरने की आश छोड देनी चाहिए। कुछ लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन इस पूजा से ही अंदर की पूजा तक पहुंचा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि अंदर की पूजा को जानने से पहले यानी भगवान को जानने के लिए अंदर की पूजा से पहले बाहर की पूजा बहुत जरूरी है। आंखें जो बाहर देखती हैं उसी का ध्यान अंदर करती हैं। इसी प्रकार से कान बाहर से सुनकर उसका अंदर चिंतन करते हैं इसलिए पूजा की जोत की ज्वाला शरीर के बाहर तक ही नहीं बल्कि अंदर तक भी जानी बहुत जरूरी है।
राम नाम का जाप करने से जहां मनुष्य का मन शुद्ध होता है। वहीं मनुष्य इससे परोपकारी भी हो जाता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को त्याग कर दूसरों के भले ही सोचे और अपने मन को स्थिर करे। इस प्रकार सत्कर्म करने का फल उसे अवश्य मिलेगा और उसका जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।
उन्होंने कहा कि मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आना स्वाभाविक है, परन्तु मनुष्य अध्यात्म के बल पर सभी बाधाओं को आसानी से पार कर लेता हैं। अध्यात्म की शक्ति मनुष्य को प्रेरणा देती है कि वह कर्म फल की प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण कर दे। साधना करने के परिणाम काफी सुखद होते हैं। हालांकि प्रारंभ में साधना करते हुए मनुष्य को कुछ परेशानियों का सामना करना पडता है परंतु आखिरकार इसके परिणाम काफी सुखद होते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है और धर्म के सेवन से ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक ऊर्ज का आविर्भाव होता है। ईश्वर की उपासना समर्पण भाव से की जानी चाहिए और मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर के रोग-द्वेष को अपने विवेक की कैंची से काट डाले तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए मानव को इंद्रियों पर काबू पाना सीखना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों का संचालन करना मानव को सिखाया है। इंद्रियों का संचालन ही हृदय का गोकुल है। उन्होंने कहा कि भोजन थाली में होगा तो पेट में भी होगा और अगर थाली ही खाली हो तो पेट भरने की आश छोड देनी चाहिए। कुछ लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन इस पूजा से ही अंदर की पूजा तक पहुंचा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि अंदर की पूजा को जानने से पहले यानी भगवान को जानने के लिए अंदर की पूजा से पहले बाहर की पूजा बहुत जरूरी है। आंखें जो बाहर देखती हैं उसी का ध्यान अंदर करती हैं। इसी प्रकार से कान बाहर से सुनकर उसका अंदर चिंतन करते हैं इसलिए पूजा की जोत की ज्वाला शरीर के बाहर तक ही नहीं बल्कि अंदर तक भी जानी बहुत जरूरी है।
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