यहां प्रेम सिखाया जा रहा है। और प्रेम को सिखाया कैसे जा सकता है? एक ही काम किया जा सकता है - ज्ञान छीन लिया जाए। चट्टान हट जाए, झरना बह उठे। वही काम यहां चल रहा है। यह अविद्यापीठ है। यह एंटी -यूनिवर्सिटी है।
इस काम को फैलाना है, क्योंकि दुनिया ज्ञान से बहुत बोझिल है। मनुष्य को ज्ञान से मुक्त करवाना है।
पश्चिम के एक विचारक डी. एच. लारेंस ने कहा था : अगर सौ साल के लिए सारे विश्वविद्यालय बंद हो जाएं तो आदमी फिर से आदमी हो जाए, बात कीमत की है।
लेकिन मैं इस बात के लिए राजी नहीं हूं कि विश्वविद्यालय बंद हो जाएं। मेरी प्रस्तावना दूसरी है। मेरी प्रस्तावना है - जितने विश्वविद्यालय हों, उतने एंटी-युनिवर्सिटी, उतने ही अविद्यापीठ भी हों। विश्वविद्यालय बंद हो जाएं तो कुछ अधिक नहीं हो जाएगा। आदमी इससे बेहतर आदमी होगा फिर भी - आदमी हो जाएगा, जैसे जंगलों के वासी हैं। फिर थाप पड़ेगी। फिर घुंघरू बंधेंगे। फिर लोग नाचेंगे, चांद-तारों के नीचे। फिर लोग प्रेम करेंगे।
मगर इससे भी ऊंची एक जगह है और वह है - विश्वविद्यालय से गुजरना और विश्वविद्यालय ने जो भी दिया है उसे छोड़ देना। वह उससे भी ऊंची जगह है। फिर प्रेम की थाप पड़ती है। फिर घुंघरू बंधते हैं। लेकिन यह ऊंची जगह है, पहली से।
इसको ऐसा समझो तो समझ में आ जाएगा। बुद्ध ने राजमहल छोड़ा, राजपाट छोड़ा, पद-प्रतिष्ठा छोड़ी, भिखारी हो गए। एक तो भिखारी बुद्ध हैं और एक भिखारी पूना की सड़कों पर। तुम किसी को भी पकड़ ले सकते हो- भिखारी को। ये दोनों भिखारी हैं ऊपर से देखने में। लेकिन बुद्ध के भिखारीपन में एक समृद्धि है। बुद्ध ने जान कर छोड़ा। अनुभव से छोड़ा। दूसरा भिखारी सिर्फ दरिद्र है। दोनों के भीतर बड़ा अंतर है। और तुम अगर दोनों की आंखों में झांकोगे तो पता चल जाएगा अंतर। बुद्ध में तुम्हें सम्राट दिखाई पड़ेगा; और भिखारी सिर्फ भिखारी।
इसलिए हमारे पास दो शब्द हैं- भिक्षु और भिखारी । वह हमने फर्क करने के लिए बनाए हैं। दुनिया की किसी भाषा में दो शब्द नहीं हैं- भिक्षु और भिखारी। भिक्षु या भिखारी - एक ही शब्द काफी होता है, क्योंकि दुनिया ने दूसरा अनुभव ही नहीं जाना है। बुद्ध जैसे भिखारी सिर्फ भारत ने जाने; भारत के बाहर किसी ने नहीं जाने। तो हमें एक नया शब्द खोजना पड़ा- ÷भिक्षु'। भिक्षु में बड़ा सम्मान है; भिखारी में बड़ा अपमान है।
भिखारी का इतना ही मतलब है - इस आदमी के पास धन कभी था नहीं; इसने धन कभी जाना नहीं। ÷भिक्षु' का अर्थ है, धन था, धन जाना और जाना कि व्यर्थ है और उसे छोड़+ा। यहां बड़ी ऊंची बात है। इसमें बड़ी गरिमा है।
ऐसा ही मेरा खयाल है। डी. एच. लारेंस से मैं थोड़ी दूर तक राजी, लेकिन मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि सारे विश्वविद्यालय बंद हो जाएं। विश्वविद्यालय मजे से रहें; लेकिन इनका मुकाबला भी पैदा हो। बुद्धि के विश्वविद्यालय मजे से रहें; उनकी जरूरत है - दुकानदारी में, काम-काज में, विज्ञान में - उनकी आवश्यकता है। गणित एकदम व्यर्थ नहीं है। लेकिन इनके मुकाबले हृदय के मंदिर भी हों, प्रेम के मंदिर भी हों - जहां सिर्फ ढाई अक्षर प्रेम के पढ़ाए जाते हों; जहां कुछ और न पढ़ाया जाता हो; पढ़ाया-लिखाया गया छीना जाता हो और झपटा जाता हो।
जब कोई आदमी सब जानकर जानता है कि जानना व्यर्थ है - तो वह सिर्फ आदमी नहीं हो जाता; वह सिर्फ आदिवासी नहीं हो जाता। सुकरात को तुम आदिवासी नहीं कहोगे। और आदिवासियों ने कोई सुकरात पैदा नहीं किया है, यह भी खयाल रखना। सुकरात के पैदा होने के लिए एथेंस चाहिए; एथेंस की शिक्षा चाहिए; एथेंस के शिक्षक चाहिए। और एक दिन सुकरात कहता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
सुकरात ने कहा कि जब मैं युवा था, तो मैं सोचता था कि मैं बहुत कुछ जानता हूं; फिर जब मैं बूढ़ा हुआ तो मैंने जाना कि मैं बहुत कम जानता हूं, बहुत कुछ कहां! इतना जानने को पड़ा है ! मेरे हाथ में क्या है- कुछ भी नहीं है, कुछ कंकड़-पत्थर बीन लिए हैं ! और इतना विराट अपरिचित है अभी ! जरा-सी रोशनी है मेरे हाथ में - चार कदम उसकी ज्योति पड़ती है और सब तरफ गहन अंधकार है ! नहीं, मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता; थोड़ा जानता हूं।
और सुकरात ने कहा कि जब मैं बिलकुल मरने के करीब आ गया, तब मुझे पता चला कि वह भी मेरा वहम था कि मैं थोड़ा जानता हूं। मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। मैं अज्ञानी हूं।
जिस दिन सुकरात ने यह कहा, मैं अज्ञानी हूं', उसी दिन डेलफी के मंदिर के देवता ने घोषणा की - सुकरात इस देश का सबसे बड़ा ज्ञानी है। जो लोग डेलफी का मंदिर देखने गए थे, उन्होंने आगे आकर सुकरात को खबर दी कि डेलफी के देवता ने घोषणा की है कि सुकरात इस समय पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञानी है। आप क्या कहते हैं?
सुकरात ने कहा - जरा देर हो गई। जब मैं जवान था तब कहा होता तो मैं बहुत खुश होता। जब मैं बूढ़ा होने के करीब हो रहा था, तब भी कहा होता, तो भी कुछ प्रसन्नता होती। मगर अब देर हो गई, क्योंकि अब तो मैं जान चुका कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
जो यात्री डेलफी के मंदिर से आए थे, वे तो बड़ी बेचैनी में पड़े कि अब क्या करें। डेलफी का देवता कहता है कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है और सुकरात खुद कहता है कि मैं सबसे बड़ा अज्ञानी हूं; मुझसे बड़ा अज्ञानी नहीं। अब हम करें क्या? अब हम मानें किसकी? अगर डेलफी के देवता की मानें कि सबसे बड़ा ज्ञानी है तो फिर इस ज्ञानी की भी माननी ही चाहिए, क्योंकि सबसे बड़ा ज्ञानी है। तब तो मुश्किल हो जाती है कि अगर इस सबसे बड़े ज्ञानी की मानें तो देवता गलत हो जाता है।
वे वापिस गए। उन्होंने डेलफी के देवता को निवेदन किया कि आप कहते हैं, सबसे बड़ा ज्ञानी है सुकरात और हमने सुकरात से पूछा। सुकरात उलटी बात कहता है। अब हम किसकी मानें? सुकरात कहता है - मुझसे बड़ा अज्ञानी नहीं।
डेलफी के देवता ने कहा- इसीलिए तो हमने घोषणा की है कि वह सबसे बड़ा ज्ञानी है। ज्ञान की चरम स्थिति है - ज्ञान से मुक्ति। ज्ञान की आखिरी पराकाष्ठा है- ज्ञान के बोझ को विदा कर देना। फिर निर्मल हो गए। फिर स्वच्छ हुए। फिर विमल हुए। फिर कोरे हुए।
आदिवासी भी कोरा है, लेकिन उसने अभी लिखावट नहीं जानी।
एक छोटा बच्चा, ऐसा समझो, छोटा बच्चा, अभी इसने कोई पाप नहीं किए- लेकिन तुम इसे संत नहीं कह सकते, क्योंकि इसने पाप किए ही नहीं, पाप का रस ही नहीं जाना, पाप का त्याग भी नहीं किया, पाप की व्यर्थता नहीं पहचानी। यह तो सिर्फ भोला है; इसको संत नहीं कह सकते। और चूंकि यह भोला है, इसलिए अभी पूरी संभावना है कि यह पाप करेगा, क्योंकि बिना पाप को किए कोई कब पाप से मुक्त हुआ है ! यह जाएगा बाजार में। यह उतरेगा दुनिया में। यह चोरी, बेईमानियां, सब करेगा। यह अभी भोला है, यह बात सच है। मगर यह भोलापन टिकनेवाला नहीं है, क्योंकि यह भोलापन कमाया नहीं गया। यह तो प्राकृतिक भोलापन है, नैसर्गिक भोलापन है। यह तो नष्ट होने वाला है। यह कुंवारापन, यह ताजगी, जो बच्चे में दिखाई पड़ती है, यह टिकने वाली नहीं। तुम भी जानते हो, सारी दुनिया जानती है कि यह आज नहीं कल दुनिया में जाएगा, जाना ही पड़ेगा। हर बच्चे को जाना पड़ेगा।
और अगर तुम बच्चे को घर में ही रोक लो चहारदीवारियां खड़ी करके, तो तुम उसके हत्यारे हो। क्योंकि वह बच्चा भोला ही नहीं रहेगा, पोला भी हो जाएगा। उसके जीवन में कुछ वजन ही नहीं होगा। उसके जीवन में वजन तो चुनौतियों से आनेवाला है। भटकेगा तो वजन आएगा। जो भटक-भटककर घर लौटता है, वही घर लौटता है। घर में ही जो बैठा रहा, भटका ही नहीं - उसका घर में बैठने का कोई अर्थ नहीं है - उसके भीतर का चित तो भटकता ही रहेगा। वह सोचता ही रहेगा कैसे निकल भागूं !
- ओशो वाणी
28 अगस्त 2010
प्रेम के लिए जरूरी है ज्ञान से मुक्ति ( Love's knowledge necessary for salvation )
Labels: अध्यात्म
Posted by Udit bhargava at 8/28/2010 08:01:00 am
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