20 जुलाई 2011

अनुराग के नए उपमान दिए मेहंदी ने

मध्यकाल में सुंदरियों की कोमल हथिलियों पर मेहंदी की लाली ऐसी चढ़ी कि उसके पूर्व के साहित्य में वर्णित अनुराग के सभी उपमान पीछे रह गए। लोगों का विरोध जितना होता है अनुराग का लाल रंग उतना ही गाढ़ा होता है। मुश्किलें जितनी आती हैं, इंसान उतना सुर्खरू होता है। ऐसा ही मेहंदी के साथ भी तो होता है। वह जितनी पीसी जाती है, हथेलियों पर उसकी लाली उतनी ही चढ़ती है।
सुर्खरू होता है इंसा, मुश्किलें सहने के बाद।
रंग लाती है हिना, पत्थर पे घिस जाने के बाद॥
मेहंदी का नई नवेलियों के साथ, दूसरी नई चीजों से भी अच्छा मेल बैठता है। शेरों, दोहों से होती हुई लोकगीतों में जब मेहंदी आती है तो नई आभा से वह दमक उठती है। उसका यह नवीन प्रेम कजरी के इस बोल में अच्छी तरह मुखरित हो उठा है।

काशी में साइकिल नई-नई आई है तो नवेली अपने पति से अनुरोध करती है -
पिया मेहंदी लिआइद मोतीझील से,
जाइके साइकील से ना।
मोतीझील से मंगाई द, छोटका देवरा से पिसाइ द,
अपने हथवा से लगाई द कांटी-कील से,
जाइके साइकील से ना।
मेहंदी की फरमाइश करने वाली नवेली, 
लाने का माध्यम बनने वाली साइकिल नई और मेहंदी पीसने वाला छोटका देवर तो और नया।

नवेलियों के हाथों में मेहंदी ऐसी चढ़ी कि पुराने सौंदर्यशास्त्रियों द्वारा वर्णित सोलह श्रृंगारों में से कंगन को इसने विस्थापित सा कर दिया। परंतु ऐसा है नहीं। मेहंदी भला क्यों किसी को विस्थापित करने जाए। हकीकत यह है कि सौंदर्यशास्त्रियों के 16 श्रृंगार धनिकों के घरों की नवयौवनाओं के लिए थे। सामान्य परिवारों की नवेलियों के पास कंगन कहां? मेहंदी ने इतना भर किया कि वह ऐसी नवेलियों के हाथों में भी चढ़ी जिनको कंगन मयस्सर नहीं था।
जिसके पास हो वह पहने, मेहंदी तो हाथों के सौंदर्य-वृद्धि का काम कर ही चुकी है।

अरब से आई मेहंदी ने सबसे पहले अपना रंग राजस्थान, पंजाब और गुजरात में जमाया और वहां के मांगलिक कृत्यों में इस कदर घुसी कि बिना मेहंदी उन कृत्यों के पूरा होने में ही संकोच होने लगे। मेहंदी की रस्म बिना भला शादी कैसे? नवेलियों की हथेलियों पर लता-पल्लवों का रूप धर लहलहाती मेहंदी और कलात्मक रूप लेती देश के मध्य भागों में भी फैल गई। शब्दकोशों में मेहंदी के अनेक नाम वर्णित हैं, जिनमें रक्तरंगा, रागगर्भा, रंजिका, नखरंजिका प्रमुख हैं।

वैसे तो मेहंदी अब किसी ऋतु विशेष की मोहताज नहीं परंतु इसका मेल वर्षा ऋतु से सबसे ज्यादा है। जब सभी नाले-नदियां इठला उठती हैं, अपने सभी बंध तोड़ प्रियमिलन के लिए चल पड़ती हैं और चारों ओर हरियाली छाई होती है तो मेहंदी भी नवेलियों की हथेलियों पर और गाढ़ी हो किसी झूले पर पेंगें भरती हुई गलबहियों के लिए मचलने लगती है।

हथेलियों पर मेहंदी के कलात्मक रूप में वृद्धि के साथ विशेषज्ञता भी जुटती गई और संग-सहेलियों से मेहंदी मढ़वाने के बजाय नवेलियों ने घोषित-अघोषित मेहंदी पार्लरों की ओर मुंह मोड़ लिया। इस समय शादी में मेहंदी की रस्म में बुलाई जाने वाली मेहंदी मढ़ने की विशेषज्ञाओं की फीस एक-एक हजार रुपये तक है। वैसे सामान्य तौर पर कोई गुनी सहेली ही मेहंदी लगा देती है और नहीं तो २५-५० रुपये में कोई विशेषज्ञ ही लगा देती है।

मेहंदी का रंग चढ़ने में आठ-नौ घंटे का समय लगता है परंतु आज के भागमभाग भरे जीवन में इतना समय निकाल पाना मुश्किल लगता है, इसलिए अब इसकी जगह ब्लाक पेंटिंग भी आ गई है। सीधी-सादी मेहंदी के साथ अन्य चीजें भी जुड़ गई हैं, जिससे मेहंदी का रंग जल्दी और ज्यादा चढ़े। मेहंदी लगाने के पहले हथेली को पहले नीलगिरि के तेल से खूब साफ कर लिया जाता है। फिर खूब बारीक मेहंदी के सूखे पाउडर का, चाय की पत्ती के खूब उबले पानी में पेस्ट बनाना चाहिए। पेस्ट बनाते समय इसमें थोड़ा सा इमली का पानी और नीलगिरि के तेल की कुछ बूंदें भी मिलानी चाहिए। इससे मेहंदी का रंग गाढ़ा और पक्का हो जाता है। अब इसे कोन में भरकर धैर्यपूर्वक कलात्मक ढंग से बेल-बूटे उकेरते हुए लगाना चाहिए। मेहंदी लगाते समय सूखने न पाए, इसलिए बीच-बीच में नीबू और चीनी का पानी छिड़कते रहना चाहिए। मेहंदी लग जाने पर कम से कम पांच-छह घंटे तो वैसे ही लगे रहने देने के बाद उसे साफ कर लें, फिर मेहंदी रची हथेली पर नीलगिरि का तेल या सरसों का तेल लगा दें।

मेहंदी केवल श्रृंगार की ही वस्तु नहीं, इसमें अद्‌भुत औषधीय गुण भी होता है। बालों में लगाने से बाल मुलायम और काले होते हैं। इसकी तासीर ठंडी होती है। यह अच्छा एंटीसेप्टिक है तथा इसके लेप से हथेलियों और तलवों की जलन कम होती है। चेचक का जलन कम करने और श्वेत कुष्ट में भी मेहंदी का प्रयोग गुणकारी है।