हेलो दोस्तो! इस समाज में सही- गलत के न जाने कितने ही पैमाने बने हुए हैं। अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि जैसे भारी-भरकम शब्दों से हम हर समय दबे रहते हैं।
देखा जाए तो इस समाज में खुलकर साँस लेना बेहद मुश्किल है। पंडित, मुल्ला-काजी जैसे धर्मगुरुओं के अलावा भी समाज के नियम-कानून तय करने वाले अनेक ठेकेदार हैं। परंपरा की दुहाई देने वाले केवल कट्टरपंथी दकियानूस लोग ही नहीं बल्कि मौजूदा व्यवस्था को हर दृष्टिकोण से नकारा करार देने वाले अति प्रगतिशील लोग भी रिश्तों के घिसे-पिटे नियमों को ही सही एवं उचित मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि हम और हमारे रिश्ते व्यवस्था से भिन्न तो नहीं हो सकते। व्यवस्था पर होने वाला प्रहार और बदलाव हमें भी उतना ही प्रभावित करता है।
रिश्तों का बदला हुआ रूप सब तरह के लोगों को तिलमिला देता है और उनका तरह-तरह का मुखौटा उतरने लगता है। ऐसे तमाम लोगों के खिलाफ जाना बहुत बड़ी चुनौती होती है। खासकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाला मामला तो इतना नाजुक एवं संवेदनशील होता है कि वहाँ आपका जीना मुहाल हो जाता है। आप पश्चाताप की आग में इस कदर जलते हैं कि आपका जीना दूभर हो जाता है। ऐसी ही ग्लानि और गुनाह की आग में जल रहे हैं जगत कुमार (बदला हुआ नाम)। अब न तो उन्हें अपनी भूल को सही रूप देने का कोई रास्ता नजर आ रहा है और न ही उन्हें अपने पापों के प्रायश्चित का कोई उपाय समझ में आता है।
हुआ यह है कि जगत अपनी ममेरी बहन से प्यार कर बैठे हैं और शादी करना चाहते हैं। यदि शादी नहीं हुई तो इस पाप का प्रायश्चित उन्हें इस संसार में मुमकिन नहीं लगता है।
जगत जी, अपने अधीन किसी नासमझ आश्रित को डराकर या बहकाकर उसकी मजबूरी का फायदा उठाना सबसे बड़ा गुनाह होता है पर आपने ऐसा कोई पाप नहीं किया है। हाँ, समाज में प्रचलित नियमों का जिस प्रकार आपने उल्लंघन किया है उसे आमतौर पर लोग माफ नहीं करेंगे। ऐसा आपको नहीं करना चाहिए था। आप जिस धर्म से ताल्लुक रखते हैं वहाँ तो यूँ भी यह रिश्ता नाजायज है पर जिन धर्मों में ऐसी शादी की इजाजत है वहाँ भी इस प्रकार के रिश्ते बनाना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है।
आपने पूछा है कि क्या आप शादी कर सकते हैं? आपके धर्म के अनुसार जवाब है, नहीं। किसी और धर्म का सहारा लेकर भी यदि आपने शादी कर ली तो आप बेइंतहा अकेले पड़ जाएँगे और तबाह हो जाएँगे। आपका परिवार किसी रूप में इसे स्वीकार नहीं करेगा। यह इतना संवेदनशील मुद्दा है कि आपके संगी-साथी भी आपसे मुँह मोड़ लेंगे। इस प्रकार के सामाजिक बहिष्कार को झेलने में इनसान हर प्रकार से टूट जाता है। आप आत्मनिर्भर भी नहीं हैं। थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि आप सबसे दूर चले जाएँगे तो इस समाज में यूँ सबसे कटकर जीना आसान नहीं होगा।
इस रिश्ते को हर प्रकार से भूल जाना ही उचित है। इस समय समझदारी का यही तकाजा है कि अब आप अपनी रिश्ते की बहन से न मिलें।अब रही बात अपने को कोसने और ग्लानि में घुलकर मरने की तो खुद को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचाने वाली सोच से आप तौबा करें। यदि आप दिल से यह महसूस करते हैं कि आपने गलती की है तो यही आपकी सजा है। जगत जी, हर मनुष्य, नैतिक-अनैतिक की अवधारणा अपने परिवार, परंपरा और धार्मिक नियम कानून से सीखता है। कई बार एक ही धर्म में आस्था होने के बाद भी अलग भाषा, राज्य और प्रांत का होने के कारण रिश्तों की परिभाषा भिन्न होती है।
दक्षिण भारतीय समाज में सगे मामा-भांजी में शादी सबसे उत्तम संबंध माना जाता है जबकि अन्य राज्यों में इसी धर्म के लोग इसे घोर पाप समझेंगे। यहाँ तक कि जिस धर्म में ममेरे, चचेरे, फूफेरे भाई-बहनों में शादी जायज है, वहाँ भी सगे मामा, चाचा, मौसा आदि के साथ ऐसे रिश्ते की कल्पना नहीं की गई है यानी उनके लिए भी वह गुनाह है। एक ही संबंध किसी के लिए पाप है तो किसी के लिए बेहद पवित्र, आदरणीय और स्वीकार्य।
हम जिस राज्य, प्रांत, समाज और परिवार में पैदा हुए हैं वहाँ के नियम ही पाप-पुण्य की परिभाषा तय करते हैं। और, उन नियमों को मानकर चलने में ही हमारी भलाई है।
आपकी गलती होते हुए भी इसकी पूरी जिम्मेदारी समाज को जाती है। हमारा समाज नौजवानों को ऐसा स्वस्थ वातावरण नहीं दे पा रहा है जहाँ वह अपनी हमउम्र लड़की-लड़के से खुलकर दोस्ती कर सके। हँसी-मजाक के लिए उचित माहौल हो। अपनी सोच, रचनात्मकता और जिज्ञासा के लिए कोई परिपक्व मार्गदर्शक हो। किसी प्रश्न का उत्तर जानने का सही तरीका हो। जब कुछ भी नहीं है तो सारी उत्सुकता बहुत ही संकीर्ण रूप में सामने आती है। इसे प्रेम का नाम देना भी उचित नहीं जान पड़ता है। यह तो मजबूरी में एक अनजान भावना को जानने की चाह है।
ऐसा नहीं है कि आप जीवन में १०-२० लड़कियों के दोस्त रहे हों। उन्हें करीब से जाना है और फिर आपने अपनी इस रिश्ते की बहन में ऐसा विशेष गुण और विचारोत्तेजक बुद्धि व ज्ञान देखा कि आपके सोचने का तरीका बदल गया। आप उसके विचारों से इतने वशीभूत हो गए कि आपके सामने धर्म-अधर्म जैसे तर्क का कोई मतलब नहीं रह गया पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
यदि ऐसा होता तो आपको ग्लानि नहीं होती क्योंकि आप इस भावना को अपने दिल-दिमाग में लाने के पहले हजार दफा विचार करते। विचार द्वारा उठाया गया कदम न केवल साहस देता है बल्कि आपको सही व सच्चे होने की ताकत भी देता है। तब व्यक्ति, हाय यह मैंने क्या कर दिया, कहकर न तो मुँह छुपाता है और न ही अपना सीना कूटता है। आपका यह रिश्ता हर दृष्टिकोण से निहायत ही उथला, बचपना भरा और अनैतिक है। इस पर सियापा करने के बजाय इस अध्याय को चुपचाप बंद कर दें। अपने मन को स्थिर करें। आपका विश्वास भगवान में है तो मंदिर जाकर माफी माँग लें।
08 अगस्त 2010
सामाजिक बंधन तो निभाने ही होंगे ( If social bonds are about to play )
Labels: प्रेम गुरु
Posted by Udit bhargava at 8/08/2010 05:11:00 pm
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