मानव योनि का परम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति ही है। गीता के सातवें अध्याय के 18वें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि, 'चार प्रकार के भक्तों- आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी में से ज्ञानीजन तो साक्षात मेरा स्वरुप ही हैं। मुझमें और ज्ञानी भक्त में कुछ भी अंतर नहीं है। भक्त है, सो मैं हूँ और मैं हूँ तो भक्त है।
ऐसे भक्त के मन और बुद्धि पूर्णतया ईश्वर में रमे रहते हैं।' भगवान् के मुख से उच्चारण किये गए शब्द जिज्ञासु के मन में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा तो जाग्रत करते हैं, लेकिन वह यह समझ नहीं पाता है कि इस ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति वह कहाँ से करे। धर्मग्रंथों के आधार पर प्रवचन करने वाले ऐसे प्रचारकों की तो कोई कमी नहीं जो मानव को सत्य की अनुभूति करने की प्रेरणा देते हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्वयं भी इस संकेत से अनभिज्ञ हैं। जिसके द्वारा इस सर्वशक्तिमान निराकार परमात्मा को जाना जा सके, इसकी अनुभूति की जा सके। इसलिए वे जिज्ञासु का समाधान करने की उपेक्षा उसे कर्मकांड, जप-तप आदि करने के लिये कहते हैं।
आज का मानव अनपढ़ या गंवार नहीं है, वह बुद्धिमान हैं। प्रत्येक कथन पर सोच-समझकर तर्क के आधार पर विचार करता है। वह अन्धविश्वासी नहीं है। फिर भी वह ब्रह्म ज्ञान के लिये धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कसौटी का प्रयोग क्यों नहीं करता? हमारे पास गीता, रामायण, बाईबिल, पवित्र कुरआन, गुरुग्रंथ साहिब आदि जैसे ग्रन्थ कसौटी के रूप में उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त हमें प्राचीन गुरु-पीर-पैगम्बरों के आदेश-उपदेश भी विदित हैं। इनके अनुसार नेक धर्म, धार्मिक ग्रंथों का पठान-पठान कर्मकांड आदि के द्वार ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल ब्रह्म देवता पूर्ण सदगुरु के प्रति सब धर्मों का परित्याग करके समर्पित होने पर ही ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। जैसे गीता के चौथे अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, 'ब्रह्म ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभांति दण्डवत प्रणाम करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश प्रदान करेंगे।'
अतन मानव को चाहिए कि ईश्वर की खोज करने की उपेक्षा ब्रह्म वेत्ता सदगुरु की खोज करें जो उसे ब्रह्म ज्ञान प्रदान कर सकें। वर्तमान समय में भी मानव जब किसी गुरु के पास जाए, तो उससे आदरपूर्वक सीधा और स्पष्ट सवाल करे कि मैं ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, ईश्वर की अनुभूति करना चाहता हूँ, आय कृपा करके मुझे ब्रह्म ज्ञान प्रदान करें, अगर वह आपको सर्वव्यापक ईश्वर की जानकारी दे दे, तो उसके प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो जाएँ। इसके विपरीत यदि वह कर्मकांड आदि करने के लिये कहे, तो आगे बढ़ जाएँ और उस समय तक खोज जारी रखें जब तक कि आपको ब्रह्म वेत्ता सदगुरु न मिल जाए।
सदगुरु से पूर्ण सद्ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात मानव सर्वशक्तिमान, सर्व्यापक, सर्वज्ञ ईश्वर को अपने चारों ओर पाता है। सम्पूर्ण सृष्टि को ईश्वर में और ईश्वर को समूर्ण सृष्टि में देखता है। इसके विराट स्वरुप का दर्शन करता है।
ईश्वर एक ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा पूरी सृष्टि संचालित होती है। प्रत्येक जीव इसी शक्ति द्वारा गतिशील रहता है। सभी कर्मों का करता यह ईश्वर ही है। इसकी आज्ञा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता सभी क्रियाओं का नियंता यही है, ब्रह्म ज्ञान के पश्चात मानव की वास्तविक भक्ति आरम्भ होती है। इससे पूर्व उसके द्वारा की जा रही भक्ति परमात्मा की खोज मात्रा ही थी अर्थात वह ज्ञान प्राप्ति के मार्ग पर था। ब्रह्म ज्ञान के पश्चात उसके द्वार की जा रही भक्ति की प्राप्ति ही भक्ति है, क्योंकि वह ईश्वर की प्राप्ति कर चुका है। अब वह ब्रह्म शक्ति को सब कर्मों का करता मानता है। उसे प्रतिक्षण-प्रीतपल इस शक्ति का एहसास रहता है। अब उसके द्वारा किये जा रहे सांसारिक कार्य भी शक्ति बन जाते हैं, क्योंकि वह उन कार्यों को करते समय उनमें ब्रह्म शक्ति को सम्मलित कर लेता है। उसका प्रत्येक कार्य ईश्वर के प्रति समर्पण तथा प्रार्थना से प्रारंभ होता है और इसी से संपन्न होता है। इस प्रकार ब्रह्म ज्ञान के पश्चात मानव द्वारा ब्रह्म शक्ति के कारण उसका प्रत्येक कर्म शक्ति बन जाता है।
17 जून 2010
कर्मों में ब्रह्म शक्ति का प्रयोग ही भक्ति है
Posted by Udit bhargava at 6/17/2010 08:56:00 am
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