03 अक्टूबर 2010

एकवीर की कथा ( Ek Ki Katha )




क बार की बात है-- लक्ष्मी और श्रीविष्णु वैकुण्ठ में बैठे सृष्टि-निर्माण के विषय में वार्तालाप कर रहे थे। तभी किसी बात से क्रोधित होकर लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को अश्वी (घोडी) बनने का श्राप दे दिया। इससे लक्ष्मी अत्यंत दुखी हुईं। श्रीहरि को प्रणाम कर देवी लक्ष्मी मृत्युलोक में चली गयी। पृथ्वीलोक में भ्रमण करते हुए लक्ष्मी सुपर्णाक्ष नामक स्थान पर पहुँची। इस स्थान के उत्तरी तट पर यमुना और तमसा नदी का संगम था। पहले किसी समय सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा ने यहाँ बड़ा कठिन तप किया था। सुन्दर पेड़-पौधे उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे। लक्ष्मी उसी स्थान पर अश्वी रूप धारण करके भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगीं।

कालांतर में, देवी लक्ष्मी की तपस्या से प्रसन्न होकर  भगवान् शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और कहा-- "देवी! मैं तुम्हें वर देता हूँ की तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने के लिये श्रीहरि शीघ्र अश्वरूप में यहाँ पधारेंगे। तुम उनके जैसे एक पुत्र की जननी बनोगी। तुम्हारा पुत्र एकवीर के नाम से प्रसिद्द होगा। इसके बाद तुम श्रीहरि के साथ वैकुण्ठ चली जाओगी।"

लक्ष्मी जी जो इच्छित वर देकर भगवान् शिव कैलाश लौट गए। कैलाश पहुंचकर भगवान् शिव ने अपने गण चित्ररूप को दूत बनाकर श्रीविष्णु के पास भेजा। चित्ररूप ने भगवान् विष्णु को देवी लक्ष्मी की तपस्या और भगवान् शिव के द्वारा उन्हें वर देने की बात विस्तार से बताई।

देवी लक्ष्मी को शाप से मुक्त करने के लिए श्रीहरि ने एक सुन्दर अश्व का रूप धारण कर उनके साथ संसर्ग किया। इसके फलस्वरूप लक्ष्मी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। तब श्रीहरि बोले-- "प्रिय! ययाति वंश में हरिवार्मा नाम के राजा है। पुत्र पाने के लिये वे सौ वर्षो से घोर तप कर रहे हैं। उन्हें के लिये मैंने यह पुत्र उत्पन्न किया है।

वैकुण्ठ जाने से पूर्व भगवान् विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ राजा हरिवार्मा के सामने प्रकट हुए और उसे इच्छित वर मांगने को कहा। हरिवार्मा ने हाथ जोड़कर कहा-- "भगवान्! मैंने पुत्र पाने के लिये तप क्या है। मुझे अपने जैसा एक वीर, तेजस्वी और धर्मात्मा पुत्र प्रदान करने की कृपा करें, प्रभु।"

भगवान् विष्णु बोले-- "राजन! तुम यमुना और तमसा नदी के पावन संगम पर चले जाओ। वहां मेरा एक पुत्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। स्वयं देवी लक्ष्मी उस बालक की जननी हैं। उसकी उत्पत्ति तुम्हारे लिये ही की गई है। अतः उसे स्वीकार करो।"

भगवान् विष्णु की बात सुनकर हरिवार्मा अत्यंत प्रसन्न हुआ। वह रथ पर सवार होकर बताए स्थान पर गया और उस बालक को पुत्र रूप में स्वीकार कर प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर की ओर चल पड़े। हरिवार्मा की पत्नी एक साध्वी स्त्री थी। वह उस बालक को देखकर आनंद-मग्न हो गई। हरिवार्मा ने एक समारोह का आयोजन करके पुत्रोत्सव मनाया। याचकों को प्रचुर दान  दिया गया। हरिवार्मा ने अपने उस पुत्र का नाम एकवीर रखा।

राजा हरिवार्मा ने बालक के सभी संस्कार संपन्न करवाए और उसके लिये गुरू की व्यवस्था की। ग्यारहवें वर्ष में राजा ने यज्ञोपवीत संस्कार कराकर एकवीर को धनुर्विघा पढ़ाने की व्यवश्ता की। जब हरिवार्मा ने देखा, राजकुमार ने धनुर्विघा सीख ली है और राजधर्म के सभी नियम उसे भली भांति ज्ञात हो गे हैं। तब उसके मन में उसका राज्याभिषेक करने का विचार उत्पन्न हुआ।

शीघ्र ही एक शुभ मुहूर्त में अभिषेक में प्रयोग आपने वाले सारी सामग्री एकत्र की गई। वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता ब्रह्मण बाले गए और हरिवार्मा ने राजकुमार एकवीर का विधिवत राज्याभिषेक करवाया। एकवीर को राज्य का कार्यभार सौंपकर राजा हरिवार्मा रानी सहित वन में चला गया।

राजा बनने के बाद एकवीर कुशलपूर्वक राज्य का शासन चला रहा था-- कुशल मंत्रियों के सहयोग से उसके राज्य में चारों ओर सुख-शांति व्याप्त थी। अपने प्रजा से वह पिता की भांति प्रेम करता था। वह स्वयं प्रजा के कष्टों को सुनता और उन्हें दूर करने का हार सम्भव प्रयास करता था। उसके राज्य में कोई भी व्यक्ति दुष्ट, पापी और व्यभिचारी नहीं था। सभी सुखमन जीवन व्यतीत करते थे।