03 अक्टूबर 2010

राजा पृथु ( Raja Prithu )


चीन समय की बात है, विष्णु-भक्त ध्रुव के वंश में अंग नामक एक राजा हुए। वे बड़े धर्मात्मा और प्रजा-प्रिय थे। वृद्धावस्था में वे राजपाट त्याग कर तपस्या करने वन में चले गए। भृगु आदि मुनियों ने जब देखा कि उनके जाने के बड पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं बचा है, तब उन्होंने उनके पुत्र वे का राज्याभिषेक कर दिया। राजा बनते ही वें अपने बल और ऐश्वर्या के मद में चूर हो गया।  उसने राज्य में घोषणा करवा दी कि रिशनी-मुनि किसी भी प्रकार का य्गाग्य और हवन न करें। जो राजाज्ञा का उल्लंघन करेंगे उन्हें दण्डित किया जायेगा। उसके भय से चारों ओर धर्म-कर्म बंद हो गए।

धर्म-संबंधी कार्य में विध्न उत्पन्न होने पर सभी ऋषि-मुनि एकत्रित होकर राजा वें के पास गए और उनसे विनम्र स्वर में बोले - "राजन ! कृपा हमारी बात ध्यानपूर्वक सुनें। इससे आपकी आयु, बल और यश में वृद्धि होगी। राजन ! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का पालन करे तो उसे स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और यदि वह निष्काम भाव से धर्म का पालन करे तो मोक्ष का अधिकारी बनता है। अतः प्रजा का धर्म आप द्वारा नष्ट नहीं होना चाहिए। धर्म नष्ट होने पर राजा भी नष्ट हो जाता है। राजन ! आपके राज्य में जो यज्ञ और हवन आदि होंगे, उनसे देवता भी प्रसन्न होकर आपको इच्छित वर प्रदान करेंगे। अतेव आपको य्गयादी अनुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।"

दुष्ट वें अहंकार भरे स्वर में बोला - "मुनियों ! तुम बड़े मूर्ख हो। तुमने सारा ज्ञान त्यागकर अधर्म में अपनी बुद्धि लिप्त कर रखी है। तभी तो तुम अपने पालन करने वाले मुख प्रत्यक्ष इश्वर को छोड़कर किसी दूसरे इश्वर की पूजा अर्चना करना चाहते हो, जो तुम्हारे लिये कल्पित है। जो लोग मूर्खतावश अपने राजा-रूपी परमेश्वर क अपमान करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और न ही परलोक में। देवगन राजा के शरीर में ही वास करते हैं। इसलिए तुम मेरा ही पुजन करो और मुझे ही यज्ञ का भाग अर्पित करो।" अहंकार के कारण वें की बुद्धि पूर्णतः भ्रष्ट हो गई थी। वह अत्यंत क्रूर, अन्यायी, अधर्मी और कुमार्गी हो गया था, इसलिए उसने ऋषि-मुनियों की विनती प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया।

उसके पापयुक्त शब्द सुनकर मुनिगण क्रोधित होकर बोले - "वेन ! तू बड़ा अधर्मी और पापी है। यदि तू जीवित रहा तो कुछ ही दिनों में इस सृष्टि को नष्ट कर देना। जिन भगवान् विष्णु की कृपा से तुझे पृथ्वी का राज्य प्राप्त हुआ है, तू उन्हीं परब्रह्म का अपमान कर रहा है। जगत के कल्याण के लिये तेरा मरना ही उचित है।"

इस प्रकार उन्होंने दुष्ट वेन को मारने का निश्चय कर उस पर प्रहार करने आरम्भ कर दिए। फिर शीघ्र हे उन्ह्होने उसका काम तमाम कर दिया और अपने आश्रमों को लौट गए। इधर वेन की माता मोहवश अपने पुत्र के मृत शरीर की रक्षा करने लगी। वेन की मृत्यु के पश्चान राज्य में चोरों-डाकुओं का आतंक बढ़ गया।

एक दिन सरस्वती नदी के तट पर कुछ मुनिगण बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे। तबभी डाकुओं क एक दल इधर से निकला। उन्हें देखकर मुनिगण सोच में पद गए। उनके मन में एक ही विचार उत्पन्न होने लगा - 'वेन के मरते ही राज्य में अराजकता फ़ैल गई है। राज्य में चोर और डाकू बढ़ गए हैं, जो निर्दोष प्रजा को लूट रहे हैं। यघपि रिशनी-मुनि शांत स्वभाव के होते हैं, तथापि दीनों की उपेक्षा करने से उनका तप क्षण भर में क्षीण हो जाता है। राजा अंग का वंश नष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें उनके पराक्रमी और धर्मात्मा राजा हो चुके हैं। इसलिए हमें उनका उत्तराधिकारी  अवश्य उत्पन्न करना होगा जो अपने पुरूषार्थ से प्रजा की रक्षा कर सके।'

तब उन्होंने आपस में विचार कर राज्य के उत्तराधिकारी के लिये वेन की जंघा को बड़े जोर से माथा तो उसमें से एक बौना पुरूष उत्पन्न हुआ। उसका रंग काला था, उसके सभी अंग टेढ़े-मेढे और छोटे थे। उसके जन्म लेते ही राजा वेन के सभी भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया। बाद में, वह और उसके वंशधर वन और पर्वतों पर रहने वाले 'निषाद' कहलाये। इसके बाद मुनियों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया। उस्मने से दिव्य स्वरुप धारण किये हुए स्त्री-पुरूष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। उस पुरूष के दाहिने हाथ में भगवान् विष्णु की हश्रेखाएं और चरणों में कमल का चिन्ह अंकित देखकर उन्होंने उसे भगवान विष्णु का ही अंश समझा।

मुनिगण प्रसन्न होकर बोले - "यह पुरूष भगवान् narayan की कला से प्रकट हुआ है और यह स्त्री साक्षात लक्ष्मी का अवतार है। यह दिव्य पुरूष अपने सुयश का विस्तार करने के कारण संसार में पृथु के नाम से प्रसिद्द होगा। सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत यह अतीव सुन्दर स्त्री इसकी पत्नी आर्ची होगी। पृथु रूप में स्वयं भगवान् विष्णु ने संसार की रक्षा के लिये लक्ष्मीरूपा आर्ची के साथ अवतार लिया है।"

महात्मा पृथु जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर अपने शुभ-कर्मों द्वारा पापी वेन को नरक से छुडा दिया। तत्पश्चात ऋषि-मुनियों ने पृथु के राज्यभिशेक का आयोजन किया। इस शुभ अवसर पर समस्त देवगन उपस्थित हुए। भगवान् विष्णु ने पृथु को अपना सुदर्शन चक्र, ब्रह्माजी ने वेदमयी कवच, भगवान् शिव ने दस चक्राकार चिन्हों वाली दिव्य तलवार, यायुदेव ने दो चंवर, धर्म ने कीर्तिमय माला, देवराज इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यमराज ने कालदंड, अग्निदेव ने दिव्य धनुष और कुबेर ने सोने का राजसिंहासन भेंट क्या।

जब मुनिगण पृथु की स्तुति करने लगे, तब पृथु बोले - "मान्यवरो ! अभी इस लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ, फिर आप किन गुणों के लिये मेरी स्तुति करेंगे? आप केवल परब्रह्म परमात्मा की ही स्तुति करें। भगवान् विष्णु के रहते तूच मनुष्यों की स्तुति नहीं करते। इसलिए कृपा आप मेरी स्तुति न करें।" उनकी बात सुन सभी ऋषि-मुनि आत्मविभोर हो गए। तब पृथु ने उन्हें अभिलिषित वस्तुएँ देकर संतुष्ट किया। वे सभी राजा पृथु को आशीर्वाद देने लगे। जब ऋषि-मुनिओं ने राजा का राज्याभिषेक किया, उन दिनों पृथ्वी अन्नही हो गई थी, प्रजाजन के शरीर अन्न के अभाव में बड़े दुर्बल हो गए थे, उन्होंने राजा पृथु से सहायता की विनती की।

प्रजाजन की करूणा विनती सुनकर पृथु का मन करूणा से द्रवित हो गया। कुछ देर विचार करके उन्हें पृथ्वी के अन्नहीन होने का कारण ज्ञात हो गया। वे जान गए कि पृथ्वी ने सभी प्रकार के अन्न और औषधियों को अपने गर्भ में छिपा लिया है। तब उन्होंने क्रोधित होकर धनुष उठाया और पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर बाण चलाने के लिये उघत हो गए। उन्हें बाण चढ़ाए देखकर पृथ्वी अपने प्राण बचाने के लिये गाय का रूप रखकर भागने लगी।

पृथ्वी को गाय-रूप में भागते देख क्रोधित पृथु उसका पीछा करने लगे। वह प्राण बचाते हुए जिस-जिस स्थान पर जाती, वहीं-वहीं उसे राजा पृथु हाथ में धनुष-बाण लिये दिखाई देते।

जब उसे कहीं भी शरण न मिली तो वह भयभीत होकर उन्हीं की शरण में आए और बोली - "महाराज ! आप सभी प्राणियों की रक्षा करने को सदा तत्पर रहते हैं, फिर मुझ दीन-हीन और निरपराधिनी को क्यों मरना चाहते हिं? आप धर्मज्ञ हैं, फिर क्या आपका क्षत्रिय धर्म एक स्त्री क वध करने की अनुमति देगा? स्त्रियाँ कोई अपराध करें तो साधारण जीव भी उन पर हाथ नहीं उठाते, फिर आप जैसे करूणामय और दीन-वत्सल ऐसा कैसे कर सकते हैं? फिर सोचें कि मेरा वध करें के बाद अपनी प्रजा को कहाँ रखेंगे?"

तब पृथु बोले - "पृथ्वी ! तुमने यज्ञों का भाग लेकर भी प्रजा को अन्न नहीं दिया, इसलिए आज मैं तुम्हे समाप्त कर दूंगा। तुम्हारे बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुमने ब्रह्म्माजी द्वारा उत्पन्न किये गए अन्नादि बीजों को अपने गर्भ में छिपा लिया है और उन्हें न निकालकर अनेक जीवों की हत्या कर रही हो। जो केवल अपना पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो - उसका वध शाश्त्रों में तर्कसंगत है। अब मैं तुम्हारे गर्भ को अपने बानों से चिन्न-भिन्न कर दूंगा और प्रजाजन कि क्षुधा शांत कर योगबल से उन्हें धारण करूंगा।"

क्रोध की तीव्रता से राजा पृथु उस समय साक्षात काल के समान दिखाई पड़ रहे थे। उनके भयंकर रूप को देखकर पृथ्वी करूं स्वर में उनकी स्तुति करते हुए बोली - "राजन ! ब्रह्माजी ने जिस अन्नादि को उत्पन्न किया था, उसे केवल दुराचारी मनुष्य ही खा रहे थे। अनेक राजाओं ने मेरा आदर करना छोड़ दिया था, इसलिए  मैंने अन्न को अपने गर्भ में छिपा लिया। यदि आप वह अन्न प्राप्त करना चाहते हैं तो मेरे योग्य एक बछडा, दोहन पात्र और दुहने वाले कि व्यवस्था कीजिये। मैं दूध के रूप में आपको वे पदार्थ प्रदान कर दूंगी। एक बात और राजन ! आप मुझे समतल कर दें। जिससे कि मेरे ऊपर इन्द्र बरसाया गया जल वर्ष भर बना रहे। यह आप सभी के लिये मंगलकारी होगा।"

तब पृथु ने स्वयंभू मनु को बछडा बनाकर अपने हाथों से ही पृथ्वी का सारा दुग्ध दुह लिया। फिर उन्होंने अपने धनुष की नोक से पर्वतों को तोड़कर पृथ्वी को समतल कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने पृथ्वी को अपनी पुत्रीरूप में स्वीकार किया। दैत्य मधु-कैटभ के मेड से निर्मित होने के कारण पृथ्वी को पहले मेदिनी कहा जाता था, किन्तु राजा पृथु की पुत्री बनने के बाद यह पृथ्वी नाम से प्रसिद्द हुई। इस प्रकार राजा पृथु ने पृथ्वी का मनोरथ सिद्ध करते हुए अपनी प्रजा की रक्षा की।