गांव सौलधा के सत्संग भवन में उपस्थित श्रद्धालुओं के बीच प्रवचन सुनाते हुए पंडित कर्णसिंह ने कहा कि धर्म की व्याख्या करते करते लोग थक जाते हैं, और समय समाप्त हो जाता है। ज्ञानी जन धर्म की परिभाषा में कुछ इस तरह उलझ जाते हैं कि संपूर्ण जीवन उसके रहस्य को समझने में व्यतीत हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति धर्मात्मा बनने की दिशा में नहीं चल पाता, क्योंकि अधिकांश लोग यही समझते हैं कि धर्म मार्ग उनके लिए बना ही नहीं है।
पंडित जी ने कहा कि मानवमात्र को यह मानना उपयोगी होगा कि धर्म केवल आचरण का विषय है, आख्यान-व्याख्यान का नहीं। सभी का लक्ष्य एक ही है मानव मात्र का कल्याण और विश्व शांति। धर्ममार्ग सदैव आनंद और शांति की ओर जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सबका मालिक एक है, क्योंकि आनंद और शांति की अनुभूति समान होती है। धर्मात्मा कोई साधारण मानव ही होता है, जो अपने से अधिक अन्य को महत्व देता है। कहा गया है कि अपने लिए जीना कोई जीना नहीं। धर्मात्मा सदैव दूसरों के लिए जीता है और मरता भी है। वह निष्क्रिय धर्म विवेचक नहीं होता। उसका चरित्र पवित्र एवं उ“वल होता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में दूसरों का हित सर्वोपरि है। इसके लिए जंगल में धूनी रमाने से लेकर समाधिस्थ होने तक की यात्रा का संबंध पारंपरिक नहीं। धर्मात्मा तो गृहस्थ जीवन में भी रहकर लोक हितकारी प्रेरणा प्राप्त करता है। वह संसार के प्राणियों का हित न केवल चाहता है, वरन् उसके लिए हर पल तत्पर भी रहता है। उसके मन में मानव के प्रति द्वेष, घृणा की प्रवृति जन्म ही नहीं लेती। उसका हृदय जन-जन का प्रवेश द्वार होता है। हर व्यक्ति के लिए उसके हृदय में समान व सम्मानजनक स्थान होता है। ऐसा धर्मात्मा ही मानव का वास्तविक प्रतिनिधि माना जाता है। मानव के लिए मानव का सिद्धान्त निरापद है, लेकिन उसका संवाहक धर्मात्मा ही समाज में सत्य धर्म का निरूपण कर पाता है। यह कठिन तपस्या के समान है कि लोग धर्मात्मा के चरित्र का अनुशीलन कर सकें, लेकिन यह अत्यंत सरल साधना है कि स्वयं सच्चा मानव बनने का प्रयास किया जाए। उन्होंने कहा कि प्राणी मात्र कभी घृणा का पात्र नहीं हो सकता। यद्यपि अनेक अवसरों पर विशेष सावधानीवश किसी प्राणी से कठोर व्यवहार की आवश्यकता अनिवार्य प्रतीत होती है, फिर भी उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि घृणा का बीजारोपण हो। मानव को सदैव मानव ही समझा जाए और इस तरह मानव के हित की परंपरा को आरंभ किया जाए। व्यवहारिक धरातल पर यह बात अटपटी सी लगने लगती है, परंतु धैर्य और विवेक के साथ इसी धर्म मार्ग का पालन करना होगा। धर्मात्मा का यही संदेश है।
21 फ़रवरी 2012
दूसरों के लिए जीते हैं धर्मात्मा: कर्णसिंह
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 2/21/2012 12:28:00 pm
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