शिव मंदिर में पंडित जय भगवान कसारियाने प्रवचन करते हुए कहा कि भय मनुष्य का सबसे बडा शत्रु है। यदि इसे अधिक बढने दिया जाता है तो हमारी आत्म संरक्षण की मूल प्रवृति की ही आघात पहुंचाने लगता है।
किंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य में कहीं न कहीं भय का तत्व रहता ही है जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन की सुख सुविधाओं का पूर्णरूप से आनन्द नहीं ले पाता है।
पंडित जी ने कहा कि मनुष्य को स्वयं को भय मुक्त करने के लिए प्रभु की शरण में ध्यान लगाना चाहिए। जो इंसान सांसारिक व्यसनों में उलझा रहता है उसे अनेक प्रश्न परेशान करते हैं। ये प्रश्न उस समय उसके समक्ष गंभीर रूप से आते हैं जब वह अस्वस्थ होता है या सामान्य जीवन की सुख सुविधाओं से वंचित हो जाता है अथवा उसके साथ कोई वैयक्तिक दुर्घटना हो जाती है। ऐसी स्थितियों में वह स्वयं से पूछता है मैं यहां क्यों हूं मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है मैं कहां से आया हूं मैं कहां जाऊंगा ये सब सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है। ये प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले प्रश्न है। ये प्रश्न उस समय विशेष रूप से उठते है जब मनुष्य अपने जीवन का विश्लेषण प्रारंभ करता है।
बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर जीवन का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए सुख प्राप्ति के अनेक प्रयासों के बाद भी मनुष्य अपने दुख का कारण नही जान पाता है। जैसे पति-पत्िन समाज में साथ रहते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं परस्पर ईमानदार रहते है तथा अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते है फिर भी वे पूर्णरूप से संतुष्ट नहीं रहते है। इसका मुख्य कारण है कि वे जीवन के इस दुख का कारण अवश्य अनुभव कर लें, जिससे अचेतन मन समस्याएं न उत्पन्न करे यदि कोई व्यक्ति यह जान ले कि वह कहां से आया है क्यों आया है तथा उसे मृत्यु का कोई भय न हो तो वह इंद्रि के स्तर पर भी आनन्द लेगा। सामान्यता लोग आनन्द का वास्तविक उपभोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे अनेक प्रकार के भयों से आक्रांत रहते हैं। यह भय ही इंसान का सबसे बडा शत्रु है। इस भय के कारण ही मनुष्य जीवन का वास्तविक आनन्द नही ले पाता है।
उन्होंने कहा कि यह भी सच्चाई है कि आंतरिक और वाह्य आनंद का उपभोग केवल भय मुक्त अवस्था में ही संभव है। भय मनुष्य जीवन के सुख में सबसे बडी बाधा है। केवल निर्भीक मनुष्य ही जीवन का वास्तविक आनन्द उठा सकता है। लेकिन यह निर्भीकता भावुकतापूर्ण या अज्ञानजन्यनहीं होनी चाहिए।
किंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य में कहीं न कहीं भय का तत्व रहता ही है जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन की सुख सुविधाओं का पूर्णरूप से आनन्द नहीं ले पाता है।
पंडित जी ने कहा कि मनुष्य को स्वयं को भय मुक्त करने के लिए प्रभु की शरण में ध्यान लगाना चाहिए। जो इंसान सांसारिक व्यसनों में उलझा रहता है उसे अनेक प्रश्न परेशान करते हैं। ये प्रश्न उस समय उसके समक्ष गंभीर रूप से आते हैं जब वह अस्वस्थ होता है या सामान्य जीवन की सुख सुविधाओं से वंचित हो जाता है अथवा उसके साथ कोई वैयक्तिक दुर्घटना हो जाती है। ऐसी स्थितियों में वह स्वयं से पूछता है मैं यहां क्यों हूं मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है मैं कहां से आया हूं मैं कहां जाऊंगा ये सब सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है। ये प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले प्रश्न है। ये प्रश्न उस समय विशेष रूप से उठते है जब मनुष्य अपने जीवन का विश्लेषण प्रारंभ करता है।
बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर जीवन का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए सुख प्राप्ति के अनेक प्रयासों के बाद भी मनुष्य अपने दुख का कारण नही जान पाता है। जैसे पति-पत्िन समाज में साथ रहते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं परस्पर ईमानदार रहते है तथा अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते है फिर भी वे पूर्णरूप से संतुष्ट नहीं रहते है। इसका मुख्य कारण है कि वे जीवन के इस दुख का कारण अवश्य अनुभव कर लें, जिससे अचेतन मन समस्याएं न उत्पन्न करे यदि कोई व्यक्ति यह जान ले कि वह कहां से आया है क्यों आया है तथा उसे मृत्यु का कोई भय न हो तो वह इंद्रि के स्तर पर भी आनन्द लेगा। सामान्यता लोग आनन्द का वास्तविक उपभोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे अनेक प्रकार के भयों से आक्रांत रहते हैं। यह भय ही इंसान का सबसे बडा शत्रु है। इस भय के कारण ही मनुष्य जीवन का वास्तविक आनन्द नही ले पाता है।
उन्होंने कहा कि यह भी सच्चाई है कि आंतरिक और वाह्य आनंद का उपभोग केवल भय मुक्त अवस्था में ही संभव है। भय मनुष्य जीवन के सुख में सबसे बडी बाधा है। केवल निर्भीक मनुष्य ही जीवन का वास्तविक आनन्द उठा सकता है। लेकिन यह निर्भीकता भावुकतापूर्ण या अज्ञानजन्यनहीं होनी चाहिए।
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