मास्टर जी का असली नाम क्या था वे कहां के रहने वाले थे वे कब उस गांव में आये यह बहुत कम ही लोग जानते थे, सारा गांव उन्हें मास्टर जी के नाम से ही जानता था। कारण यह था कि मास्टर जी ने उस गांव की दो तीन पीढियों को पढाया था, इसलिये वे बच्चों से लेकर उनके पिताओं तक के लिये भी मास्टर जी ही थे। उनके विषय में गांव में लोगों के अलग-अलग विचार थे कोई उन्हें पागल कहता था तो कोई जीनियस, लेकिन उससे मास्टर जी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडता था। छठवें दशक में नौकरी के प्रारंभिक दिनों में जब मास्टर जी अवध के उस पिछडे गांव में प्रायमरी स्कूल के प्रधान अध्यापक बनकर पहुंचे तो वह गांव उन्हें इतना भाया कि वे वहीं के होकर रह गये। लेकिन पहले दिन जब वे स्कूल पढाने पहुंचे तो वहां की दशा देखकर उनका दिल भर आया, एक मडैया के सामने महुये के पेड के नीचे बिछी बोरियों पर आडे तिरछे बस्ते पडे हुए थे और बच्चों का एक झुंड कुछ दूर पर मनोयोग से कबड्डी खेलने में लीन था। मास्टर जी को देखकर झुंड में हलचल मच गई और सब चिडियों की तरह फुर्र से उड कर अपनी सीट पर आ डटे। सरकारी टाटपट्टी और मेज कुर्सी के बारे में पूछने पर पता चला वो सब परधान के घर की शोभा बढा रही थीं। मास्टर जी ने पढाई कराने से पहले बच्चों को लगाकर महुये के पेड से गिरी पत्तियां बिनवाई और मडैया के सामने की सफाई कराई। स्कूल के इतिहास में पहली बार प्रार्थना जैसी दुर्लभ चीज गाई गई- हे प्रभो आनन्द दाता, और फिर मास्टर जी ने खटिया पर बैठकर पढाना शुरू किया।
कुछ दिन तो मास्टर जी खामोश रहे फिर वे धीरे-धीरे अपने रंग में आने लगे बच्चों को सख्त हिदायत दी गई कि खडिया से तख्ती पोतकर स्याही से लिखने के बजाय घर के दिये में जो कालिख होती है उससे तख्ती पोती जाय और दावात में खडिया घोलकर लिखा जाये तो खडिया की बरबादी नहीं होगी। पढने में कमजोर बच्चों को फैशन में देखकर मास्टर जी फौरन दहाड लगाते, क्यों रे जितना टाइम बाल की पाटी बनाने में लगाया उतनी देर में तो एक हिसाब हल हो सकता था। हिसाब की बात पर ध्यान आया कि हिसाब में मास्टर जी का कोई जोड नहीं था पाइथागोरस की तरह गणित सिखाने के उनके अपने सिद्धांत थे। उनके अनुसार गणित बिना मार खाये आ ही नहीं सकती। इसलिए वे बच्चों को गणित में पारंगत करने के लिये एक गीली नीम का गोदा हमेशा अपने साथ रखते थे, जिसका नाम उन्होंने रख छोडा था समझावनदास। समझावनदास मास्टर जी को बहुत प्रिय थे और उनका इस्तेमाल बच्चों का दिमाग तेज करने के लिये दिन में कई बार अक्सर किया जाता था। मास्टर जी के छात्र उनसे बाघ की तरह डरते थे जिसमें निर्विवाद रूप से उनके सोटे का खासा योगदान था। लेकिन वे उनकी इज्जत भी करते थे क्योंकि मास्टर जी धुनाई और पढाई दोनों ही निष्काम भाव से करते थे।
मास्टर जी के पढाने का ढंग भी निराला था एक बार किसी की खोपडी में सोंटे के बल पर जो विद्या वे घुसा देते थे वह जिंदगी भर शिव की जटा में गिरने वाली गंगा की तरह बाहर निकलने का रास्ता भूल जाती थी और कुंडली मारकर वहीं पडी रहती थी। मास्टर जी को अपने बारह तेरह साल पहले आजाद हुये देश पर भी बहुत गर्व था। उनका एक प्रिय तकिया कलाम था चूंकि अब देश आजाद है जिसका वे बात-बात में इस्तेमाल करते थे। हिंदी भाषा के सूर, तुलसी, कबीर के पद उन्हें मुंहजबानी कंठस्थ रहते थे किंतु अंग्रेजी के वे प्रबल आलोचक थे। उनके हिसाब से यह एक अवैज्ञानिक भाषा थी जिसका वे खुलकर मजाक उडाते थे। सायकोलॉजी की स्पेलिंग बताते थे पिसाई का लोगी, नालेज की स्पेलिंग टिप्स देते कनउ लदिगे। इतिहास के बारे में भी उनकी सूझ नितांत मौलिक थी, कभी-कभी वे बच्चों से पूछते, बच्चों बताओ कौन महान था, राणाप्रताप या अकबर? तो बच्चे चकरा जाते। मन राणा प्रताप को महान मानता लेकिन इतिहास अकबर को महान बताता था। कोई बच्चा बहुत दिमाग लगाकर अगर जवाब देता, मास्टर जी, दोनों। तो तड से उसकी पीठ पर डंडा पडता क्यों बे, दोनों एक साथ कैसे महान हो सकते हैं! मास्टर जी विदेशी जीवन शैली के घोर विरोधी थे। अपने देश की परंपरा और संस्कृति एवं अपने देशीपन पर उन्हें हद तक प्यार था।
क्रिकेट, हॉकी उनके अनुसार पैसे की बरबादी थी। वे बच्चों को समझाते कबड्डी खेलो, दौड लगाओ, खो खो खेलो, इससे फेफडों का व्यायाम होगा और मां बाप का पैसा बचेगा। सत्तू को वे दुनिया का सबसे पौष्टिक फास्ट फूड मानते थे, उनके अनुसार गर्मी में घोल कर पीने पर सत्तू तरावट देता है और सर्दी में लिट्टी में भर कर खाने पर शरीर में गर्मी रहती है। मास्टर जी सिर्फ सलाह ही नहीं देते थे अपने ऊपर उसका एक्सपेरीमेंट भी करते थे। अपनी पुरानी घिसी धोतियों से वह मुलायम कथरियां बनवाते थे। उनके अनुसार गर्मियों में जो सुख कथरी पर लेटने में मिलता था वह रुई के गद्दे में कहां और बेकार धोतियों का उपयोग भी होता है। फूलों से उन्हें विशेष लगाव था उन्होंने मडैया के अगल-बगल क्यारियां बनवाई। उनमें गेंदा, गुलमेंहदी के फूल लगवाये जिसमें एक घंटे बच्चों को श्रमदान करना अनिवार्य था। उस ग्रामीण स्कूल में पढाते हुए मास्टर जी ने कैसे अपने छात्रों के शिक्षक के साथ-साथ गांव वालों के अभिभावक का भी दर्जा प्राप्त कर लिया यह कहना मुश्किल है। किन्तु देखा यही जाता था कि छात्रों के माता पिता शिक्षा के अलावा शादी ब्याह, खेती-बारी, हारी- बीमारी, दवा दारू के बारे में भी मास्टर जी से सलाह मांगने आते जिसका वे खुशी-खुशी निदान करते।
इसी प्रकार समय का चक्र चलता रहा। कितने ही बसन्त, पतझड आए और चले गए। धीरे-धीरे मास्टर जी के पढाये हुए बच्चे बडे होकर जीवन की राहों में जूझने के लिए बिखर गए और मास्टर जी के पास पढने वाले बच्चों की नई-नई खेपें आती गई। मास्टर जी ने अब प्राइवेट परीक्षा देकर इंटर और बी.ए. कर लिया था। पुराना प्रायमरी स्कूल हाई स्कूल हो गया था जिसे वे हमेशा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कहा करते थे। अब वे बूढे हो रहे थे और स्कूल में उनका वह जलवा नहीं रह गया था। गांव में अब कबड्डी, खो-खो नहीं खेला जाता था, बल्कि जमीन में डंडियों का विकेट गाड कर बच्चे क्रिकेट खेलते। स्कूल के छात्रों में अब अधिक संख्या ऐसे उद्दंड बच्चों की थी जिनके लिये अब बूढे मास्टर आउटडेटेड हो चुके थे। उनकी डांट सुनकर वे व्यंग्य से हंसते थे और मास्टर जी बिना विष के ढोंढवा सांप जैसे फुफकारते रहते थे। किन्तु एक दिन जब मास्टर जी ने सुना स्कूल के ऊंची क्लास के कुछ लडकों ने साप्ताहिक बाजार में माल बेचने जा रहे एक सीधे साधे व्यापारी का गल्ला लूटने की योजना बनाई है तो उनके सब्र का बांध टूट गया और वे अपनी उम्र और सहकर्मियों की चेतावनियों को नजरअंदाज कर घटनास्थल पर पहुंच गए। वहां अपने स्कूल के आधा दर्जन लडकों को देख मास्टर जी क्रोध से आग बबूला हो गए। उन्होंने रौद्र रूप धारण कर सबको रेस्टीकेट करने की धमकी दी, तो अभियुक्तों के चेहरे भय आशंका और क्रोध से विवर्ण हो गये। उन्होंने एक दूसरे को कनखियों से देखा, यह बुढ्डा यहां क्यों मरने चला आया? आंखों ही आंखों में इशारे हुए इसे छोडना नहीं है। इन इशारेबाजियों से अनभिज्ञ बुजुर्ग मास्टर ने जब छात्रों को सजा देने के लिए हाथ उठाया तो छात्रों के हाथ मार खाने के लिये आगे बढने के बजाय ऊपर उठे और उनका सोंटा बीच में ही पकडकर उन्हें नीचे गिरा दिया और उन पर हाकियों की बौछार होने लगी। नीचे गिरते हुए मास्टर जी ने धुंधली आंखों से देखा और आंखें मूंद लीं। बाद में जब लोग उधर पहुँचे तो देखा मास्टर लहूलुहान अर्धनग्न अवस्था में जमीन पर पडे थे, आंखें सदमें से फैली हुई थीं, नाक मुंह से बहा हुआ खून चेहरे पर सूखकर ऐसा लग रहा था जैसे भारत के मानचित्र पर लाल रंग से गंगा जमुना उकेरी गई हो। लोगों को देख कर उनके होंठों में हरकत सी हुई और फुसफुसाहट जैसी धीमी किन्तु स्पष्ट आवाज सुनाई दी, अब देश आजाद है उसके बाद वे बेहोश हो गए।
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