अपने जीवन पर यदि हम दृष्टि डालें तो पता चलेगा की हमने अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है। हमारे देश में इस विषय पर हजारों वर्ष तक विचार हुआ की आखिर जीवन का लक्ष्य क्या है। कोई व्यक्ति अपने जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करना चाहता है, उसे चार भागों में बाँट दिया गया है -
1. रोटी, कपड़ा, मकान, दवाई, यान-वाहन इत्यादि शरीर के लिए आवश्यक भौतिक पदार्थ। इन सबको "अर्थ" नाम दिया गया। ये सबको चाहिये।
2. प्रेम, श्रद्धा, वात्सल्य, स्नेह, मैत्री, अपनापन इत्यादि मनोनुकूल भाव। इन्हें "काम" नाम दिया गया। ये भी सबको चाहिए।
3. न्याय, तर्क, औचित्य इत्यादि विवेकपूर्ण संतुलित व्यवहार। इसे "धर्म" नाम दिया गया।
4. स्वतंत्रता, पूर्णता, कृतकृत्यता इत्यादि का आनंद। इसे "मोक्ष" नाम दिया गया।
कोई व्यक्ति जो कुछ भी जीवन में चाह सकता है, वह इन चार पुरुषार्थों - अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष में ही कहीं न कहीं समाविष्ट हो जाता है।
प्रश्न होता है की इन चारों का परस्पर क्या सम्बन्ध है? उत्तर है की इनमें धर्म अर्थात सदाचार, अर्थ और काम की प्राप्ति का साधन है। अर्थ और काम में भी अर्थ काम की प्राप्ति का साधन है। इसी प्रकार काम मोक्ष का साधन है। मोक्ष स्वयं परम साध्य है, वह किसी का साधन नहीं है।
सरल शब्दों में हम सावधानी से परिश्रमपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करें तो हम हमारी भौति आवश्यकताओं की पूर्ती के साधन जुटा पायेंगे। किन्तु ये साधन जुटा लेना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। हम इन साधनों का उपयोग आपस में बांटकर इस प्रकार करें की आत्मीयता की सरसता जीवन में बरसे। पुनः हमारी यह आत्मीयता इतनी सघन हो जाए की हमारे लिए कोई पराया ही न रहे। तब हमें अपने जीवन में कृतकृत्यता का अनुभव होगा, यही मोक्ष है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। शेष सभी उपलब्धियां भौतिक, मानसिक तथा बौद्धिक - इसी चरम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है।
एक बार जीवन के इस चरम का निर्णय हो जाए तो दृष्टि स्पष्ट हो जाते है। तब -
1. व्यक्ति अनुचित व्यवहार को छोड़ देता है, क्योंकि अनुचित व्यवहार चरम लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक है।
2. व्यक्ति आसक्ति में नहीं पड़ता। साधन को साध्य समझकर उसी से चिपक जाना आसक्ति है। आसक्ति व्यक्ति को रास्ते के बीच में ही भटका देती है, उसे लक्ष्य तक नहीं जाने देती।
3. व्यक्ति का चित्त लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो जाता है। वह लक्ष्य के अतिरिक्त और इधर-उधर की बातों में अपना मन नहीं भटकाता। इसे ही ध्यान कहा जाता है।
इसके विपरीत यदि जीवन का लक्ष्य स्पष्ट नहीं है तो व्यक्ति चंचलचित्त से जहाँ-तहाँ परिश्रम तो करता है और लौकिक दृष्टि में "बड़ा" भी बन जाता है, किन्तु उसे मन में शांति नहीं मिलती। पुरानी भाषा में वह मुक्त नहीं होता, बंधन में ही रहता है।
1. रोटी, कपड़ा, मकान, दवाई, यान-वाहन इत्यादि शरीर के लिए आवश्यक भौतिक पदार्थ। इन सबको "अर्थ" नाम दिया गया। ये सबको चाहिये।
2. प्रेम, श्रद्धा, वात्सल्य, स्नेह, मैत्री, अपनापन इत्यादि मनोनुकूल भाव। इन्हें "काम" नाम दिया गया। ये भी सबको चाहिए।
3. न्याय, तर्क, औचित्य इत्यादि विवेकपूर्ण संतुलित व्यवहार। इसे "धर्म" नाम दिया गया।
4. स्वतंत्रता, पूर्णता, कृतकृत्यता इत्यादि का आनंद। इसे "मोक्ष" नाम दिया गया।
कोई व्यक्ति जो कुछ भी जीवन में चाह सकता है, वह इन चार पुरुषार्थों - अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष में ही कहीं न कहीं समाविष्ट हो जाता है।
प्रश्न होता है की इन चारों का परस्पर क्या सम्बन्ध है? उत्तर है की इनमें धर्म अर्थात सदाचार, अर्थ और काम की प्राप्ति का साधन है। अर्थ और काम में भी अर्थ काम की प्राप्ति का साधन है। इसी प्रकार काम मोक्ष का साधन है। मोक्ष स्वयं परम साध्य है, वह किसी का साधन नहीं है।
सरल शब्दों में हम सावधानी से परिश्रमपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करें तो हम हमारी भौति आवश्यकताओं की पूर्ती के साधन जुटा पायेंगे। किन्तु ये साधन जुटा लेना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। हम इन साधनों का उपयोग आपस में बांटकर इस प्रकार करें की आत्मीयता की सरसता जीवन में बरसे। पुनः हमारी यह आत्मीयता इतनी सघन हो जाए की हमारे लिए कोई पराया ही न रहे। तब हमें अपने जीवन में कृतकृत्यता का अनुभव होगा, यही मोक्ष है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। शेष सभी उपलब्धियां भौतिक, मानसिक तथा बौद्धिक - इसी चरम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है।
एक बार जीवन के इस चरम का निर्णय हो जाए तो दृष्टि स्पष्ट हो जाते है। तब -
1. व्यक्ति अनुचित व्यवहार को छोड़ देता है, क्योंकि अनुचित व्यवहार चरम लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक है।
2. व्यक्ति आसक्ति में नहीं पड़ता। साधन को साध्य समझकर उसी से चिपक जाना आसक्ति है। आसक्ति व्यक्ति को रास्ते के बीच में ही भटका देती है, उसे लक्ष्य तक नहीं जाने देती।
3. व्यक्ति का चित्त लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो जाता है। वह लक्ष्य के अतिरिक्त और इधर-उधर की बातों में अपना मन नहीं भटकाता। इसे ही ध्यान कहा जाता है।
इसके विपरीत यदि जीवन का लक्ष्य स्पष्ट नहीं है तो व्यक्ति चंचलचित्त से जहाँ-तहाँ परिश्रम तो करता है और लौकिक दृष्टि में "बड़ा" भी बन जाता है, किन्तु उसे मन में शांति नहीं मिलती। पुरानी भाषा में वह मुक्त नहीं होता, बंधन में ही रहता है।
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