एक बार कार्यक्रम बना, नवाब साहब कालेसर के जंगलों में शिकार खेलने जाएंगे।
कालेसर के जंगल खूंखार जानवरों के लिये सारे भारत में मशहूर थे। ऐसे जंगलों में अकेले शिकारी कुत्तों के दम पर शिकार खेलना निरी बेवकूफी थी। अतः वजीर ने बड़े पैमाने पर इंतजाम किए। पानीपत से इस काम के लिये विशेष रूप से सधाए किए। पानीपत से इस काम के लिये विशेष रूप से सधाए गए हाथी मंगाए गए। पूरी मार करने वाली बन्दूदें मुहैया की गईं। नवाब साहब की रवानगी से एक हफ्ता पहले ही शिकार में माहिर चुनिंगा लोगों की एक टोली कालेसर रवाना कर डी गई कि वे सही जगह का चुनाव करके मचान बांधें, ठहरने का बंदोबस्त करें और अगर जरूरत समझें, तो हांका लगाने वालों को भी तैयार रखें। इस तरह हर कोशिश की गई कि नवाब साहब कम-से-कम वक्त में ज्यादा-से-ज्यादा शिकार मार सकें।
अब सवाल उठा कि नवाब साहब के शिकार पर कौन-कौन जाएगा? जाहिर था कि शेखचिल्ली में किसी की दिलचस्पी न थी। हो भी कैसे सकती थी? एक तो माशाअल्ला खुदा ने उनको दिमाग ही सरकसी अता फरमाया था कि पता नहीं, किस पल कौन-सी कलाबाजी खा जाए! ऊपर से बनाया भी उन्हें शायद बहुत जल्दबाजी में था। हड्डियों पर गोष्ट चढ़ाना तो अल्लाह मियाँ जैसे भूल ही गए थे।
मगर शेखचिल्ली इसी बात पर अड़े थे कि मैं शिकार पर जरूर जाऊंगा। राजी से ले जाना हो, तो ठीक; वरना गैर-राजी पीछा करता-करता मौके पर पहुँच जाऊंगा।
नवाब ने सुना, तो शेख्चिल्ल्ली की ओर ज़रा गुस्से से देखा। बोले-"तुम जरूरत से ज्यादा बदतमीज होते जा रहे हो। एक चूहे को तो मार नहीं सकते, शिकार क्या ख़ाक करोगे?"
"मौक़ा मिलेगा, तभी तो कर पाऊंगा हुजूर!"--शेखचिल्ली ने तपाक उत्तर दिया--"चूहे जैसे दो अंगुल की शै पर क्या हथियार उठाना? मर्द का हथियार तो अपने से दो अंगुल बड़ी शै पर उतना चाहिए।"
नवाब साहब ने उनका जवाब सुनकर उन्हें अपने शिकारी लश्कर में शामिल कर दिया। काफिला पूरी तैयारी के साथ कालेसर के बियाबान जंगलों में जा पहुंचा। वहां पहले से ही सारा इंतजाम था। तय हुआ कि रात को तेंदुए का शिकार किया जाए।
दिन छिपने से पहले ही सारे लोग पानी, खाना और बंदूकें ले मचानों पर जा बैठे। पेड़ 'सहारा' बाँध दिया गया।
चांदनी रात थी। मचानों पर बैठे सब लोगों की निगाहें सामने बंधे चारे के आसपास लगी थीं। शेखचिल्ली और शेख फारूख एक मचान पर थे। हालांकि वजीर चाहता था कि शेखचिल्ली को अकेला ही एक मचान पर बैठा दिया जाए, ताकि रोज-रोज की झक-झक ख़त्म हो। मगर नवाब नहीं चाहते थे कि शेखचिल्ली को कुछ हो, या वह अपनी हवाई झोंक में कुछ ऐसा-वैसा कर बैठे कि शिकार हाथ से निकल जाए। इसलिए उनकी तजवीज पर शेख फारूख को पलीते की तरह उनकी दम से बाँध दिया गया था। न पलीते में आग लगेगी, न बन्दूक चलेगा।
तेंदुए का इंतज़ार करते-करते तीन घंटे बीत गए। शेखचिल्ली का धीरज छूटने लगा। वह शेख फारूख से फुसफुसाकर बोले--"अजीब अहमक है यह तेंदुआ भी! इतना बढ़िया शिकार पेड़ से बंधा है और कमबख्त गायब है!"
"शिकार में ऐसा ही होता है"--"शेख फारूख ने शेखचिल्ली को चुप रहने का इशारा करते हुए बेहद धीमी आवाज में कहा।
"ख़ाक ऐसा होता है."--शेखचिल्ली फुसफुसाकर बोले--"मेरा तो जी चाहता है, बन्दूक लेकर नीचे कूद पडून, और वह नामुराद जहाँ भी है, वहीं हलाल कर दूं।"
शेख फारूख ने उन्हने फिर चुप रहने को कहा। शेखचिल्ली मन मसोसकर एक तरफ बैठ गए। सोचने लगे--'कमबख्त सब डरपोक हैं। एक अदद तेंदुए के पीछे बारह आदमी पड़े हैं। ऊपर के सारे-के-सारे पेड़ों पर छिपे बैठे हैं। यह कौन-सी बहादुरी है, जिसकी देंगे वजीर हांक रहा था? बहादुर हैं तो नीचे उतारकर करें तेंदुए से दो-दो हाथ! वह जानवर ही तो है! हैजा तो नहीं कि हकीम साहेब भी कन्नी काट जाएं!
'कमबख्त मेरी बहादुरी पर शक करने चले थे। अरे, तेंदुआ कल का आता, अभी आ जाए। नीचे उतारकर वह थपेड दूंगा कि कमबख्त की आँखें बाहर निकल आएंगी।
'मगर सुना है, वह छलांग बड़े गजब की लगाता है। मेरे नीचे उतारते ही उसने मुझ पर छलांग लगा दी तो? '''तो क्या हुआ! बन्दूक को छतरी की तरह सिर पर सीधा तान दूंगा। ससुरा गिरेगा तो सीधा बन्दूक की नाल पर गिरेगा। पेट में धंस जाएगी नाल! हो जाएगा ठंडा!
'और छलांग का भरोसा भी क्या? कुछ अधिक ऊंचा उचल गया, तो जाकर गिरेगा सीधा मचान पर। उठाकर भाग जाएगा शेख फारूख को। सारे लोग अपने-अपने मचान पर से चिल्लाएंगे-- शेखचिल्ली, पीछा करो उस शैतान तेंदुए का! शेख फारूख को ले भागा!
'मैं बन्दूक तानकर तेंदुए के पीछे भागूंगा। तेंदुआ आगे-आगे, मैं पीछे-पीछे। शेख फारूख चिल्ला रहे होंगे-- शेखचिल्ली, बचाओ! शेखचिल्ली, मुझे बचाओ!
'आखिर तेंदुआ जानवर है, कोए जिन्न तो नहीं? कमबख्त भागता-भागता कभी तो थकेगा! थककर सांस लेने के लिये कहीं तो रूकेगा!
'बस, मैं अपनी बन्दूक को उसकी ओर तानकर यूं लबलबी दबा दूंगा और ''''
"ठांय!"--- तभी तेज आवाज गूंजी। सब चौंक उठे। शेखचिल्ली ने जोर से चिल्लाकर पूछा--"क्या हुआ?"
"तेंदुआ मारा गया।" --शेख फारूख बोले--"कमाल है शेखचिल्ली! चारे पर मुंह मारने से पहले ही तुमने उसके परखच्चे उड़ा दिए।"
'सच?'--शेखचिल्ली ने चारे की ओर देखा तो यकी न आया। पर यह सच था। दूसरे लोग निशाना साध भी न पाए थे कि शेखचिल्ली की बन्दूक गरज उठी थी।
मचान से नीचे उतारकर नवाब साहेब ने सबसे पहले शेखचिल्ली की पीठ ठोंकी। फिर वजीर की ओर देखकर कहा--"शेखचिल्ली जो भी हो, है बहादुर!"
मगर शेखचिल्ली जानते थे कि असलियत क्या थी! वह चुप रहे। चुप रहने में ही भलाई जो थी।
22 जून 2011
शेखचिल्ली - तेंदुए का शिकार
Posted by Udit bhargava at 6/22/2011 05:45:00 pm
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