केस 1- गायिका आकांक्षा जाचक ने अपनी ऑरकुट प्रोफाइल पर अपने रिकॉर्ड, गाने के उद्देश्य, उपलब्धियों सहित कुछ गीत भी डाउनलोड कर रखे हैं। इतना ही नहीं, किसी खास अवसर पर वे अपनी फ्रेंड लिस्ट में शामिल लोगों को स्क्रेप में भी अपने द्वारा गाया गीत ही भेजती हैं।
केस 2- सॉफ्टवेयर इंजीनियर अनुराग ने अपनी ऑरकुट प्रोफाइल पर सभी प्रोजेक्ट्स की डिटेल दे रखी है। पुरानी कंपनी में जहाँ वे काम कर चुके हैं, उसके साथ ही वर्तमान कंपनी की डिटेल सहित खुद के पद, जॉब प्रोफाइल आदि के बारे में भी दर्शा रखा है।
केस 3- मीडिया प्रोफेशनल अभिनव ने भी अपनी ऑरकुट प्रोफाइल में अपने कार्यक्षेत्र और बीट्स के बारे में निर्धारित तरीके से बताया है। इसी के साथ उन्होंने अपनी एक्सक्लूसिव स्टोरी फोटो के साथ यहाँ लोड कर रखी है।
एचआर हेड कहते हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स से अच्छे उम्मीदवारों की हाइरिंग करना काफी पुराना फंडा है। यह बात अलग है कि यह लाइमलाइट में अब आया है। वे बताते हैं हेड हंटर्स फेसबुक, ऑरकुट या लिंक्डइन जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स अचानक से विजिट करते हैं।
यहाँ वे प्रोफाइल में दी गई जानकारियों के जरिए जॉब सीकर्स (जॉब लेने वाले) को तलाशते हैं। उनकी प्रोफाइल को आधार बनाकर वे कम्युनिटी के ऑनर से कॉन्टेक्ट करते हैं और निर्धारित व्यक्ति के बारे में जानकारियाँ लेते हैं। उन्होंने कहा, इसलिए कोई फ्रेशर हो या अनुभवी व्यक्ति अपनी प्रोफाइल में जानकारियों को अच्छे से सजाकर जॉब प्रोफाइडर को आकर्षित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए मीडिया संबंधित कोर्स कर चुके फ्रेशर हाल ही में स्वयं द्वारा पूरा किया गया प्रोजेक्ट अपलोड कर सकते हैं। वे अपनी प्रोफाइल पर लिंक भी क्रिएट कर सकते हैं।
एक अन्य एचआर मैनेजर कहती हैं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए किसी व्यक्ति की स्कील्स के बारे में पता चलता है और कंपनी की कॉस्ट में कट भी हो जाता है। वे कहती हैं हाँ लेकिन यह ध्यान रखने योग्य बात है कि ऑरकुट जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट से शॉर्टलिस्ट होने के बाद अपने रिज्यूम को अच्छे-से तैयार करें।
जब भी इंटरव्यू के लिए जाएँ, अपने सीवी में किसी भी झूठी बात का समावेश न करें, क्योंकि आपके सीवी को आपकी ऑरकुट प्रोफाइल से वेरीफाई भी किया जा सकता है। इसके अलावा स्क्रेपबुक को चेक करके ब्रेकग्राउंड चेकिंग भी की जा सकती है।इंदौर। इन तीन केसेस के जरिए हम बताना चाह रहे हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट केवल चैटिंग, दोस्तों से कनेक्ट रहने और एंटरटेनमेंट के लिए ही नहीं है, बल्कि इसके जरिए अब कंपनियाँ व जॉब प्रोफाइडर अपने-अपने श्रेत्र के बेहतर कर्मचारियों को भी ढूँढ़ रहे हैं यानी अब क्लासीफाइड्स को भूल जाइए...।
अब अदद उम्मीदवार ढूँढने वाले लोग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सही उम्मीदवार का चयन करने लगे हैं। ऐसे में हो सकता है आपकी ऑरकुट या लिंक्डइन प्रोफाइल इनका अगला डेस्टिनेशन हो।
31 दिसंबर 2010
यहाँ भी मिल सकती है नौकरी
Labels: मनपसंद करियर
Posted by Udit bhargava at 12/31/2010 08:30:00 pm 1 comments
29 दिसंबर 2010
गुरू कैसा हो?
2 - जो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि साधनों को तत्व से ठीक-ठीक जानने वाले हों.
3 - जिनके संगसे, वचनों से हमारे ह्रदय में रहने वाली शंकाएं बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों.
4 - जिनके पास में रहने से प्रसन्नता, शान्ति का अनुभव होता हो.
5 - जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही संबंध रखते हुए दीखते हों.
6 - जो हमारे से किसी भी वास्तु की किंचिन्मात्र भी आशा न रखते हों.
7 - जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएं केवल साधकों के हित के लिये ही होती हों.
8 - जिनके पासे में रहने से लक्ष्य की तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो.
9 - जिनके संग, दर्शन, भाषण, स्मरण आदि से हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुण-सदाचार रूप देवी संपत्ति आती हो.
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन से
Posted by Udit bhargava at 12/29/2010 09:32:00 am 0 comments
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के कल्याणकारी वचन
सुनना चाहते हैं, इसलिए न सुनने का दुःख होता है.
देखना चाहते हैं, इसलिए न दीखने का दुःख होता है.
बल चाहते हैं, इसलिए निर्बलता का दुःख होता है.
धन चाहते हैं, इसलिए निर्धनता का दुःख होता है.
जवानी चाहते हैं, इसलिए बुढापे का दुःख होता है.
जीना चाहते हैं, इसलिए मरने का दुःख होता है.
तात्पर्य है कि वास्तु के अभाव से दुःख नहीं होता, प्रत्युत उसकी चाहना से दुःख होता है.
संसार की मात्रा वास्तु का निरंतर वियोग हो रहा है. उत्पन्न होते ही शरीर में विनाश की क्रिया आरम्भ हो जाती है. इसलिए बालक जन्मता है तो वह बड़ा होगा कि नहीं होगा, पढेगा कि नहीं पढेगा, व्यापार आदि करेगा कि नहीं करेगा, विवाह करेगा कि नहीं करेगा, उसकी संतान होगी कि नहीं होगा, वह धनी बनेगा कि नहीं बनेगा आदि सब बातों में संदेह रहता है, पर वह मरेगा कि नहीं मरेगा- इस बात में कोई संदेह नहीं रहता. अगर इस संदेहरहित बात को हम वर्तमान में ही धारण कर लें अर्थात जिसका वियोग अवश्यम्भावी है, उसके वियोग को वर्मान में ही स्वीकार कर लें और उसमें सुख की आशा न रखें तो फिर हमें दुखी नहीं होना पडेगा.
(प्रवचन से)
Posted by Udit bhargava at 12/29/2010 09:17:00 am 0 comments
24 दिसंबर 2010
परहित में निहित स्वहित
पार्वती ने तप करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया, संतुष्ट किया। शिवजी प्रकट हुए और पार्वती के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया। वरदान देकर अन्तर्धान हो गए। इतने में थोडे दूर सरोवर में एक मगर ने किसी बच्चे को पकडा। बच्चा रक्षा के लिए चिल्लाने लगा। पार्वती ने गौर से देखा तो वह बच्चा बडी दयनीय स्थिति में है: मुझ अनाथ को बचाओ॥ मेरा कोई नहीं..बचाओ..बचाओ। वह चीख रहा है, आक्रंद कर रहा है। पार्वती का हृदय द्रवीभूत हो गया। वह पहुंचीं, वहां। सुकुमार बालक का पैर एक मगर ने पकड रखा है और घसीटता हुआ लिए जा रहा है गहरे पानी में। बालक क्रंदन कर रहा है: मुझ निराधार का कोई आधार नहीं। न माता है न पिता है। मुझे बचाओ.. बचाओ..बचाओ..।
पार्वती कहती है: हे ग्राह! हे मगरदेव!इस बच्चे को छोड दो। मगर बोला: क्यों छोडूं? दिन के छठे भाग में मुझे जो जो आ प्राप्त हो वह अपना आहार समझकर स्वीकार करना, ऐसी मेरी नियति है। ब्रह्माजीने दिन के छठे भाग में मुझे यह बालक भेजा है। अब मैं इसे क्यों छोडूं? पार्वती ने कहा :हे ग्राह! तुम इसको छोड दो। बदले में जो चाहिए वह मैं दूंगी।
तुमने जो तप किया और शिवजी को प्रसन्न करके वरदान मांगा, उस तप का फल अगर मुझे दे दो तो मैं बच्चे को छोड दूं। ग्राह ने यह शर्त रखी।
बस इतना ही?॥तो लो :केवल इस जीवन में इस अरण्य में बैठकर जो तप किया इतना ही नहीं बल्कि पूर्व जीवनों में भी जो कुछ तप किए हैं, उन सबका फल, वे सब पुण्य मैं तुमको दे रही हूं। इस बालक को छोड दो। जरा सोच लो। आवेश में आकर संकल्प मत करो। मैंने सब सोच लिया है।
पार्वती ने हाथ में जल लेकर अपनी संपूर्ण तपस्या का पुण्यफलग्राह को देने का संकल्प किया। तपस्या का दान होते ही ग्राह का तन तेजस्विता से चमक उठा। उसने बच्चे को छोड दिया और कहा: हे पार्वती! देखो! तुम्हारे तप के प्रभाव से मेरा शरीर कितना सुन्दर हो गया है! मैं कितना तेजपूर्णहो गया हूं! मानों मैं तेजपुंजबन गया हूं। अपने सारे जीवन की कमाई तुमने एक छोटे-से बालक को बचाने के लिए लगा दी? पार्वती ने जवाब दिया: हे ग्राह! तप तो मैं फिर से कर सकती हूं लेकिन इस सुकुमार बालक को तुम निगल जाते तो ऐसा निर्दोष नन्हा-मुन्ना फिर कैसे आता? देखते-ही-देखते वह बालक और ग्राह दोनों अन्तर्धान हो गए। पार्वती ने सोचा: मैंने अपने सारे तप का दान कर दिया। अब फिर से तप करूं। वह तप करने बैठीं। थोडा-सा ही ध्यान किया और देवाधिदेव भगवान शंकर प्रकट हो गए और बोले:
पार्वती! अब क्यों तप करती हो?
प्रभु! मैंने तप का दान कर दिया इसलिए फिर से तप कर रही हूं।
अरे सुमुखी! ग्राह के रूप में भी मैं था और बालक के रूप में भी मैं ही था। तेरा चित्त प्राणिमात्र में आत्मीयता का एहसास करता है कि नहीं, इसकी परीक्षा लेने के लिए मैंने यह लीला की थी। अनेक रूपों में दिखने वाला मैं एक का एक हूं। अनेक शरीरों में शरीर से न्यारा अशरीरी आत्मा हूं। मैं तुझ से संतुष्ट हूं।
परहित बस जिन्हके मन माहीं।
तिन्हको जग दुर्लभ कछुनाहीं।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 12/24/2010 12:43:00 pm 0 comments
21 दिसंबर 2010
वाणी ही व्यक्तित्व की सही पहचान है
रघुनाथ मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए पण्डित माधवानन्दने कहा कि वाणी के सही इस्तेमाल करने पर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की सही पहचान होती है। इसी के माध्यम से कोई संत-महात्मा बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा। उन्होंने कहा कि मनुष्य को मन, वचन व कर्म से नि:स्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए। मन में किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखना चाहिए तथा अपनी वाणी से किसी को कठोर शब्द नहीं कहने चाहिए। उन्होंने कहा कि मनुष्य के बोलचाल के ढंग के माध्यम से ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण भी होता है।
इसी के माध्यम से कोई संत-महात्मा बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा बन जाता है। यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपने भाषाई स्वर का किस प्रकार इस्तेमाल करता है। उन्होंने कहा कि एकता के अभाव में अधिकतर लोग अपनी शक्ति का उपयोग एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए करते हैं जबकि उन्हें अपनी शक्ति का उपयोग आपस में लडने की बजाय अन्याय व दूसरी बुराईयों से लडने के लिए करना चाहिए। मनुष्य में भक्ति भावना व संस्कार ग्रहण करने की प्रवृति गायब होती जा रही है, जिसके चलते हमारे समाज में निरन्तर बुराइयों को अपनाने की प्रवृति को बढावा मिल रहा है।
बुराइयों पर विजय प्राप्त करने पर ही मनुष्य का सर्वागीण विकास संभव है। उन्होंने कहा कि मानव सेवा ही सबसे बडा धर्म है इसलिए मनुष्य को अपनी शक्ति का उपयोग मानव सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति मानव सेवा में लीन रहते हैं वे मनुष्य सदैव बुराईयों से दूर रहते हैं। जिसके कारण उन्हें मानव सेवा करने पर अत्यन्त खुशी महसूस होती है। उन्होंने कर्म के संदर्भ में कहा कि मनुष्य द्वारा किया गया कर्म ही उसका भाग्य विधाता होता है अच्छे कर्मो से ही अच्छे भविष्य का निर्माण होता है।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 12/21/2010 08:49:00 am 0 comments
19 दिसंबर 2010
नए वर्ष में खुशी का पैगाम
हेलो दोस्तो! यह कैसा विचित्र सा समय है। वर्ष के बीत जाने का दुख और नए वर्ष के आने की खुशी, दोनों ही अहसास इस कदर घुलमिल गए हैं कि उनमें भेद कर पाना कठिन हो रहा है। ऐसा लगता है मानो हम बीते वर्ष के साथ अभी पूरी तरह जी भी नहीं कह पाए थे कि वह हाथ से निकल गया। कितना कीमती था वह हर पल, हर लम्हा, हर दिन, हर सप्ताह और हर महीना! आज उसकी अहमियत समझ में आ रही है। मन में यही कसक उठती है कि काश एक बार फिर से यही वर्ष जीने को मिल जाए तो वे सारे पल जिसकी हम कद्र नहीं कर पाए, उसे आदरपूर्वक गले लगा लेते। वर्ष के हर क्षण का सदुपयोग कर पाते। पर गया वक्त कभी हाथ आया है क्या? इस वास्तविकता को स्वीकार करते हुए नए वर्ष का पूरे सम्मान के साथ स्वागत करना चाहिए।
जो छूट गया उसका अफसोस करने के बजाए जो आने वाला है उसके स्वागत की तैयारी करनी है हमें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी जरा सी चूक से आने वाला समय भी हमसे कतराकर चला जाएगा। हमारा फर्ज बनता है कि आने वाले हर लम्हे के लिए हम सतर्क हो जाएँ। आने वाले हर पल का हिसाब हमारे मन में, हमारी डायरी में भली-भाँति होना चाहिए। आने वाले वर्ष का हर लम्हा, हर दिन हमारे लिए अनेक अनमोल तोहफे और कामयाबी की सौगात लेकर खड़ा है। उसे जतन और प्यार से हासिल करने का सचेत प्रयास हमें जी-जान से करना चाहिए। आने वाला हर समय खुशियों के अनेक रंगों के गुलदस्ते लिए हमारे इंतजार में है इसलिए बेहद चतुराई से आलस को चकमा देकर उसे हमें हासिल करना है।
यह बहुत ही सही समय है जब हमें बारीकी से विचार कर लेना चाहिए कि हम कहाँ-कहाँ चूक गए और हमें संकल्प लेना चाहिए कि वह भूल हम फिर नहीं दुहराएँ। समय तभी तक हमारा है जब तक हम कुछ सोच सकते हैं और उसके अनुरूप कार्य कर सकते हैं। जब हमारे अंदर वह ताकत नहीं बचती कि हम अपनी सोच को साकार कर सकें तो वह समय हमारा होकर भी हमारा नहीं होता इसीलिए उन सभी लोगों के लिए यह समय बेशकीमती बन जाता है जो वयस्क हैं और जिन्हें अपने सपने को साकार करने का मौका मिला है।
हमें आने वाले वर्ष में इस बात का बेहद सतर्कता से ध्यान रखना चाहिए कि हम खुद को न भूलें। समय का सही उपयोग तभी होता है जब हम स्वयं को खुश रखने के बारे में गंभीरता से सोचें। एक खुश व्यक्ति अपनों को भी खुश रखने की चेष्टा करता है।
कहते हैं प्रेम से जो खुशी मिलती है वह और किसी चीज से नहीं मिल सकती। प्रेम से जो प्रेरणा मिलती है वह हर हौसले को इतना बुलंद कर देती है कि सागर, पर्वत सब तुच्छ जान पड़ते हैं पर प्रेम के सही मायने तभी तक सार्थक लगते हैं जब तक इसकी ताकत से जीवन को सकारात्मकता के साथ रचा जाए। इसकी ताकत का सही उपयोग तभी होता है जब प्रेम की भावना में मिट जाने के बजाए निर्माण की सोचें।
यदि प्रेम में कोई भी साथी दूसरे को गंभीरता से नहीं लेता है, केवल अपनी सुविधा, अपनी मर्जी से रिश्ते को चलाना चाहता है तो सामने वाला अपना धैर्य खो देता है। कोई पूरी निष्ठा, ईमानदारी से कितना भी समर्पित भाव क्यों न रखता हो उसके बलिदान की भी सीमा होती है। एक वक्त आता है जब ऐसे रिश्ते बेजान होकर टूट जाते हैं। प्रेम के रिश्ते में दोस्ती की भावना को सबसे ज्यादा अहमियत देनी चाहिए ताकि दोनों को समान रूप से उसकी शक्ति मिलती रहे।
प्रेम करने वाले एक-दूजे के साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करें, जितना भी समय बिताएँ पर नेकनीयती का दामन न छोड़ें। यदि एक दूसरे के बारे में नीयत साफ न हो तो वह प्यार अपनी गरिमा खो देता है। कई बार अच्छा समय बिताने को भी प्यार का नाम दे देते हैं। पर समय के बीतने के साथ ही उसकी गहराई समझ में आ जाती है। दोनों की भावना, नीयत एक समान है या नहीं इसे जानने का एक ही तरीका है, समय। जिस रिश्ते को दूर तक ले जाना है, उसे धीमी गति से परखने का मौका देना चाहिए।
नए वर्ष में पूरी ईमानदारी से रिश्ते को निभाने का संकल्प लें। जिनके दिल टूट गए हैं उनके लिए जिंगल बेल अवश्य बजेंगे। बस इस बार प्यार का दामन जीवन को संवारने के लिए थामें, जिंदगी में घुन लगाने के लिए नहीं।
Labels: प्रेम गुरु
Posted by Udit bhargava at 12/19/2010 06:25:00 pm 0 comments
15 दिसंबर 2010
वैदिक साहित्य में पुरूषार्थ चतुष्टय
सामान्य रूप में पुरूषार्थ का शाब्दिक अर्थ है 'पुरूषार्रथ्यर्ते इति पुरूषार्थ:' अर्थार्थ पुरूष के द्वारा इष्ट होता है, वही पुरूषार्थ है। पुरूषार्थ शब्द पुरूष एवं अर्थ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। पुरूष से तात्पर्य है; विवेकशील प्राणी' और अर्थ से तात्पर्य है 'लक्ष्य'। उक्त लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास जब सचैतान्य किया जाता है, तो यह पुरूषार्थ कहलाता है। ये चार्पुरूशार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। ये चारों पुरूषार्थ मानव जीवन के आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आदि विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध है। इनमें से अर्थ और काम प्रवृत्ति मूलक पुरूषार्थ हैं। मोक्ष निवृत्ति मूलक पुरूषार्थ है एवं धर्म प्रवृत्ति-निव्रत्तिमूलक पुरूषार्थ है अर्थात धर्म ही एकमात्र ऐसा पुरूषार्थ है, जो संसार में प्रवृत्त कराते हुए मोक्ष की ओर प्रेरित कर्ता है। इससे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उन्नति सम्भव है।
हमारा वैदिक साहित्य उक्त चारों पुरुषार्थों के विषय में क्या कहता है - इस विषय को प्रस्तुत करना ही इस शोध लेक का उद्देश्य है।
'धर्म शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत एवं व्यापक है। धर्म शब्द का सबसे व्यापक अर्थ उसके व्याकरंगत मूल धातु 'धृञ्' पर आश्रित है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - धारण करना. अतः धर्म उन सब नियमों एवं वावास्थाओं का नाम है, जो समाज और व्यक्ति को धारण करती है।
वस्तुतः देखा जाए तो धर्म मानव की अनवारी आवश्यकता है। आज समाज में जो हिंसा, क्रूरता, क्रोध, अहंकार, परस्पर ईर्ष्या एवं वैचारिक भिन्नता के बाव पनप रहे हैं उसका एक कारण हमारे धर्म विमुखता भी है। धर्म, कर्म के अभाव में हम अपने नैतिक मूल्य छोड़ते जा रहे हैं। अतः हमें आवश्यकता है स्वहित की भावना के ऊपर उठकर सर्वहित की भावना अपने मन में विकसित करने कि तथा वेदोक्त धर्म को समझने की, क्योंकि ऋग्वेद में धर्म का प्रयोग विश्व को धारण करने के अर्थ में हुआ है।
धर्म का उद्देश्य समाज को संतुलन में रखना है। यह संतुलन तभी रह सकता है। जब हम अपनी वैचारिक संकीर्णताओं को छोड़कर प्राणिमात्र को ईश्वर की सृष्टि समझ कर सबके प्रति समानता का व्यवहार करें तथा परस्पर मिलकर अपने कर्तव्य का पालन करें। इसी उदात भावना का उल्लेख हमें ऋग्वेद के अंतिम मंडल से प्राप्त होता है--
संगच्छध्वं संवदध्वं संवै मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ॥
समानो मंत्र: समिति: समानी, समानं मन: सहचित्तमेषाम् ।
समानं मंत्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि । ऋ. 10.191.3
वैदिक धर्म की पहचान हेतु मनु ने अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में वैदिक धर्म के दस लक्षण बताते हुए कहा है---
धृति: क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्वीघा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनु. 6.91
अर्थात धैर्य, क्षमा, दं, असते, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं, जिन्हें ऋग्वेद के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है --
1. धृति --- धृति अर्थात धैर्य से तात्पर्य है मानव का सुख-दुःख, सफलता-असफलता, गरीबी-अमीरी आदि द्वंद्वात्मक अवस्थाओं में भी विचलित न होना। ऋग्वेद में धीर पुरूषों के द्वारा ही सफलता का विधान किया गया है -- धीरा इच्छेकुर्धरूणेष्वारभम्।
2. क्षमा - क्षमा को भी वैदिक धर्म का लक्षण माना गया है. अपने प्रति किसी व्यक्ति द्वारा भूल या अज्ञानतावश किये गए अपराधों के लिये क्षमा करने की भावना धर्म का लक्षण होती है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है.
3. दम - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि आतंरिक शत्रुओं का दमन कर आत्म संयम रखना कहलाता है. इस संबंध में उल्लेख मिलता है - योग्निं तत्वो दमे देवं मर्त सपयर्ति। तस्मा इद्दीयद् वसु॥ अर्थात जो साधक मन को वशीभूत करके उपासना में निरत होता है, उसके समक्ष वासवी शक्तियां प्रदीप्त हो उठाती हैं.
4. असते - दूसरों के अधिकार, संपत्ति एवं परिक्श्रम की चोरी न करना असते कहलाता है. चोरी नैतिक अपराध है. ऋग्वेद उसके नाश की प्रार्थना कर्ता है.
5. शुद्ध - बाह्य एवं आतंरिक पवित्रता एवं स्वच्छता शौच कहलाती है. ऋग्वेद मानसिक शुद्धि पर ज्यादा जोर देता है, क्योंकि वहां परमात्मा से भावों को पवित्र बनाने के लिये खा गया है.
6. इन्द्रिय निग्रह - पञ्च ज्ञानेन्द्रियों एवं पञ्च कर्मेन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें कुत्सित विषयों से हटाकर सद्विश्यों में लगाना इन्द्रिय निग्रह है. वेदों में अच्छा देखें, अच्छा सुने आदि के भाव परिलक्षित होते हैं.
7. धी: - 'धी:' शब्द का शाब्दिक अर्हत है 'बुद्धि', अर्थात हमें बुद्धि और विवेक के सहारे ही सत्य-असत्य, पाप-पुण्य आदि का विचार कर धर्माचरण करना चाहिए. ऋग्वेद में भी 'धियो यो नः प्रचोदयात अर्थात ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाए, जैसी भावनाएं प्राप्त होती हैं.
8. विद्या - अविद्या का नाश या विद्या की प्राप्ति धर्म का साधन है. वेदानुसार विद्या मनुष्यों की बुद्धि को प्रकाशित करती है. महोअर्ण - धियो विश्वा विराजति।
9. सत्य - सत्याचरण धर्म का प्रमुख लक्षण है, इसलिए सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग धर्म का लक्षण माना है. वेद में इसे ऋत भी कहा गयाः है. ऋग्वेद के अनुसार राष्ट्र की प्रतिष्ठा का आधार ऋत ही है. "
10. आक्रोश - राग द्वेशादी के वशीभूत होकर किसी पर क्रोध न करना धर्म का दसवां लक्षण है 'उलूकयांतु शुशुलूकयातुं' के माध्यम से उल्लू, भेदिये आदि की वृत्ति को त्यागने का आदेश दिया गया है.
धर्म को आधार बनाकर न केवल ऋग्वेद में अपितु यजुर्वेद, अथर्वेद एवं उपनिषद ग्रंथों में भी प्रचुर ज्ञान प्राप्त होता है. मनुष्य की व्यक्तिगत और सामजिक उन्नति एवं व्यवस्था को बनाए रखें एक उद्देश्य से यजुर्वेद कहता है कि किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और न किसी के धन का लालच करना चाहिए.
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किज्च् जगत्याञ्जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: मागृध: कस्यस्विद्धनम्॥
वाजसनेयी संहिता में धर्म निश्चित नियम और आचरण नियम अर्थों में प्रयुक्त हुआ है.
अथर्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग धार्मिक क्रिया एवं संस्कार से अर्जित गुण के अर्हत में प्रयुक्त हुआ है. इसके अतिरिक्त अथर्वेद से ही हमें विविध मानवीय धर्मों की भी शिक्षा प्राप्त होती है.
छान्दोग्योपनिषद में सबके प्रति उद्दार विचार रखना, किसी से भी अशिष्ट व्यवहार न करना, विद्वानों का अनादर न करना जैसे उदात्त भावों का उल्लेख धर्म के रूप में मिलता है.
धर्म का हमारे जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष से सीधा संबंध है, जैसा कि कहा भी है.
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान॥
इस प्रकार वैदिक धर्म मानव समाज की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति कर उसे सुख, शांति एवं परमानंद प्राप्ति कराने वाले कर्मों का नाम है.
अर्थ से तात्पर्य धन-संपदा के साथ-साथ प्रयोजनादी भी लिया गया है. श्रुतियां भी अर्थ का निषेध नहीं करती है. इसी कारण ब्रह्मा, विष्णु भी हिरण्यगर्भ और लक्ष्मीश होते हुए भी श्रेष्ट रूप को धारण करते हैं.
वेद में कहा गया है कि वैदिक आर्य
वेदों में काम को सारी सृष्टि का मूल कहा गया है. ऋग्वेद में इसे मन का प्रथम तेतास कहा गया है जो आरम्भ से ही विद्यमान था.
ऋग्वेद में काम के माध्यम से'बहु स्याम बहु प्रजायेयम' इस रूप में आत विस्तार की कामना की गई है. वेद के अनुसार पति-पत्नी को एवं संयमशील विद्वान् को उपयुक्त अवस्था में काम भाव प्राप्त होता है. ऋग्वेद का अगस्त्य - लोपामुद्रा आख्यान भी काम रूप पुरूषार्थ को पुष्ट करता है.
हमारा प्रथम पुरूषार्थ धर्म है, परन्तु उपनिषदों के अनुसार धर्मपालन के लिये संतति आवश्यक थी. यही कारण था कि गृहस्थाश्रम को सर्व आश्रमों में श्रेष्ठ आश्रम माना है. स्नातक बने सिष्य को उपदेश देते हुए आचार्य स्पष्ट रूप में कहते हैं कि प्रजा रूपी तंतु को कभी विचिन्न मत करना. बृहदारणयकोपनिषद में स्पष्ट उल्लिखित है कि जैसे कोई अपनी प्रिय पत्नी से मिलते हुए बाहर के जगत में कुछ नहीं जानता और न आतंरिक जगत को ही जानता है, उसी प्रकार प्राग्य आत्मा से जुडा हुआ पुरूष न बाहर की वास्तु जानता है और न ही अंदर की किसी वास्तु को.
बृहदारणयक उपनिषद में रति को सबसे बड़ा आनंद माना है एवं उसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा है.
Posted by Udit bhargava at 12/15/2010 07:15:00 pm 0 comments
14 दिसंबर 2010
पितरों का श्राद्ध आवश्यक है
1. नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं.
2. नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है.
3. काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है.
4. वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं.
5. पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो आश्विन मास के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं.
6. सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है.
7. गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं.
8. शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं.
9. कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं.
10. दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं.
11. यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं.
12. पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं.
13. श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं.
1. आश्विन मास के पितृपक्ष के 16 दिन.
2. वर्ष की 12 अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या.
3. वर्ष की 12 संक्रांतियां.
4. वर्ष में 4 युगादी तिथियाँ.
5. वर्ष में 14 मन्वादी तिथियाँ.
6. वर्ष में 12 वैध्रति योग
7. वर्ष में 12 व्यतिपात योग.
8. पांच अष्टका.
9. पांच अन्वष्टका
10. पांच पूर्वेघु.
11. तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा.
12. एक कारण : विष्टि.
13. दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी.
14. ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण.
15. मृत्यु या क्षय तिथि.
1. श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है.
2. श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है.
3. महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है.
4. मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं.
5. अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है.
6. यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है.
7. ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है.
2. श्राद्ध में दूध, गंगाजल, मधु, तसर का कपड़ा, दोहित्र, कुतप, कृष्ण तिल और कुश ये आठ बड़े महत्व के प्रयोजनीय हैं.
3. श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिये हाथ से बने हुए मिटटी के (चाक से बने हुए न हों और कच्चे हों) बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए. मिट्टी के बने हुए बर्तनों के अलावा लकड़ी के बर्तन, पत्तों के दोने (केले के पत्ते का नहीं हों) का भी प्रयोग किया जा सकता है.
4. श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिये चांदी के बर्तनों का महत्व विशेष है. सोने, ताम्बे और कांसे के बर्तन भी ग्राह्य हैं. इसमें लोहे के बर्तनों का कदापि प्रयोग न करें.
5. श्राद्ध में सफ़ेद पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए. कमल का भी प्रयोग किया जा सकता है. श्राद्ध में कदंब, देवड़ा, मौलश्री, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के पुष्प, तीक्ष्ण गंध वाले पुष्प आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
6. श्राद्ध में तुलसीदल का प्रयोग आवश्यक है.
7. श्राद्ध में गाय के दूध एवं उससे बनी हुई वस्तुएँ, जौ, धान, तिल, गेहूं, मूंग, आम, बेल, अनार, आंवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, चिरौंजी, बेर, इन्द्रजौ, मटर, कचनार, सरसों, सरसों का तेल, तिल्ली का तेल आदि का प्रयोग करना चाहिए. श्राद्ध में उरद, मसूर, अरहर, गाजर, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों, चना, मांस, अंडा आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
8. श्राद्ध बिना आसन के नहीं करना चाहिए. आसन में भी कुश, तृण, काष्ठ (लोहे की कील लगी हुए ना हो), ऊन, रेशम के आसन प्रशस्त हैं.
9. श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मण को भोजन करते समय आवश्यक रूप से मौन रहना चाहिए.
10. श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण को भोजन कराने से पूर्व उनको बिठाकर श्रद्धापूर्वक उनके पैर धोने चाहिए.
11. श्राद्धकर्ता को श्राद्ध के दिन दातुन, पान का सेवन, शरीर पर तेल की मालिश, उपवास, स्त्री संभोग, दवाई का सेवन, दूसरे का भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए.
12. श्राद्ध के दिन भोजन करने वाले ब्राह्मण को पुनर्भोजन (दुबारा खाना), यात्रा, भार ढोना,शारीरिक परिक्श्रम करना, मैथुन, दान, प्रतिग्रह तथा होम नहीं करना चाहिए.
13. श्राद्ध में श्रीखण्ड, सफ़ेद चन्दन, खस, गोपीचन्दन का ही प्रयोग करना चाहिए. श्राद्ध में कस्तूरी, रक्त चन्दन, गोरोचन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
14. श्राद्ध में अग्नि पर अकेले घी नहीं डालना चाहिए.
15. निर्धनता की स्थिति में केवल शाक से श्राद्ध करना चाहिए. यदि शाक भी न हो, तो घास काटकर गाय को खिला देने से श्राद्ध सम्पन्न हो जाता है. यदि किसी कारणवश घास भी उपलब्ध न हो, तो किसी एकांत स्थान पर जाकर श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अपने हाथों को ऊपर उठाते हुए पितरों से प्रार्थना करें-
न मेsस्ति वित्तं न धनं नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नोsस्मि।
तृष्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वत्मर्नि मारूतस्य!!
हे मेरे पितृगण! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि. हाँ, मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति है. मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ. आप तृप्त हो जाएं. मैनें दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है.
16. गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में श्राद्ध किये जाने का विशेष महत्व है.
17. श्राद्ध ऐसी भूमि पर किया जाना चाहिए जिसका ढाल दक्षिण दिशा की ओर हो.
18. पितरों के उद्देश्य से किये जाने वाले दान में -- गाय, भूमि, तिल, सोना, घी, वस्त्र, धान्य, गुड, चांदी तथा नमक में से एक या अधिक या सभी वस्तुएँ होनी चाहिए. इस सभी वस्तुओं का दान इस महादान कहलाता है.
19. धान्य में सप्तधान्य देने का विधान भी है. सप्तधान्य में जौ, गेहूं (कंगनी), धान, तिल, टांगुन(मूंग), सांवा और चना होता है.
20. मृत्यु के समय जो तिथि होती है, उसे ही मरण तिथि माना जाता है और श्राद्ध उसी तिथि को करना चाहिए. मरण तिथि के निर्धारण में सूर्यदयकालीन तिथि ग्राह्य नहीं है.
21. अर्ध्यप्रदान करने के बाद एकोदिष्ट श्राद्ध में पात्र को सीधा रखना चाहिए, जबकि पार्वण श्राद्ध में उलटा रखना चाहिए.
22. पति के रहते मृत नारी के श्राद्ध में ब्राह्मण के साथ सौभाग्यवती ब्राह्मणी को भी भोजन कराना चाहिए.
23. श्राद्ध के समय श्राद्ध कर्ता को पवित्री धारण अवश्य करनी चाहिए.
Posted by Udit bhargava at 12/14/2010 10:38:00 pm 0 comments
12 दिसंबर 2010
भगवान गणेश के विभिन्न अवतार
4. श्री धूम्रकेतु
श्री गणेश जी का कलियुगीय भावी अवतार धूम्रकेतु के नाम से विख्यात होगा. कलि के अंत में घोर पापाचार बढ़ जाने पर, वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाने पर, देवताओं की प्रार्थना पर सदधर्म के पुनः स्थापन के लिये वे इस पृथ्वी पर अवतरित होंगे और कलि का विनाश कर सतयुग की अवतारना करेंगे.
पूर्व में गणेशपुराण में वर्णित भगवान् के चार लीलावतारों का स्वल्प परिचय दिया गया है. आगे मुद्गलपुराण पर आधारित गणेश जी के अनंत अवतारों में से मुख्य आठ अवतारों का यहाँ स्थानाभाव के कारण नामोल्लेख मात्र किया जा रहा है -
1. वक्रतुंग - इनका वाहन सिंह है तथा ये मत्सरासुर के हंता हैं.
2. एकदन्त - ये मूषकवाहन एवं मदासुर के नाशक हैं.
3. महोदर - इनका वाहन मूषक है, ये ज्ञानदाता तथा मोहासुर के नाशक हैं.
4. गजानन - इनका वाहन मूषक है, ये सान्ख्यों को सिद्धि देने वाले एवं लोभासुर के हंता हैं.
5. लम्बोदर - इनका वाहन मूषक है तथा ये क्रोधासुर का विनाश करने वाले हैं.
6. विकट - इनका वाहन मयूर है तथा ये कामसुर के प्रहर्ता है.
7. विध्नराज - इनका वाहन शेष है और ये ममासुर के प्रहर्ता है.
8. धूम्रवर्ण - इनका वाहन मूषक है तथा ये अहंतासुर के नाशक हैं.
तरूणगणपति- रक्तवर्ण, अस्टहस्त
भक्तगणपति - श्वेतवर्ण, चतुर्हस्त
वीरगणपति - रक्तवर्ण, दशभुज
शक्तिगणपति - सिन्दूरवर्ण, चतुर्भुज
द्विजगणपति - शुभ्रवर्ण, चतुर्भुज
सिद्धगणपति - पिंगलवर्ण, चतुर्भुज
विध्नगणपति - स्वर्णवर्ण, दशभुज
क्षिप्रगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
हेरम्बगणपति - गौरवर्ण, अस्टहस्त, पंचमातंगमुख, सिंहवाहन
लक्ष्मीगणपति - गौरवर्ण, दशभुज
महागणपति - रक्तवर्ण, दशभुज
विजयगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
नृत्तगणपति - पीतवर्ण, चतुर्हस्त
ऊर्ध्वगणपति - कनकवर्ण , षड्भुज
एकाक्षरगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
वरगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
त्रयक्षगणपति - स्वर्णवर्ण, चतुर्बाहू
क्षिप्रप्रसादगणपति - रक्तचंदनाडिकत, षड्भुज
हरीद्वागणपति - हरिद्वर्ण, चतुर्भुज
एकदंतगणपति - श्यामवर्ण, चतुर्भुज
सृष्टिगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
उद्दण्डगणपति - रक्तवर्ण, द्वादशभुज
ऋणमोचनगणपति - शुक्लवर्ण, चतुर्भुज
ढुण्ढिगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
द्विमुखगणपति - हरिद्वर्ण, चतुर्भुज
त्रिमुखगणपति - रक्तवर्ण, षड्भुज
सिंहगणपति - श्वेतवर्ण, अष्टभुज
योगगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
दुर्गागणपति - कनकवर्ण , अस्टहस्त
संकष्टहरणगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
Posted by Udit bhargava at 12/12/2010 06:00:00 pm 1 comments
11 दिसंबर 2010
सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है मानव: कर्णसिंह
सौलधा के सत्संग भवन में प्रवचन सुनाते हुए पंडित कर्ण सिंह ने कहा कि मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सुधारने के लिए अच्छे कर्म करने के साथ-साथ रामनाम का जाप करे। राम नाम का जाप करने से जहां मनुष्य का मन शुद्ध होता है। वहीं मनुष्य इससे परोपकारी भी हो जाता है।
पंडित जी ने कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को त्याग कर दूसरों के भला ही सोचे और अपने मन को स्थिर करे। इस प्रकार सत्कर्म करने का फल उसे अवश्य मिलेगा और उसका जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।
उन्होंने कहा कि मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आना स्वाभाविक है, परंतु मनुष्य अध्यात्म के बल पर सभी बाधाओं को आसानी से पार कर लेता है। अध्यात्म की शक्ति मनुष्य को प्रेरणा देती है कि वह कर्म फल की प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण कर दे। साधना करने के परिणाम काफी सुखद होते हैं। हालांकि प्रारंभ में साधना करते हुए मनुष्य को कुछ परेशानियों का सामना करना पडता है परंतु आखिरकार इसके परिणाम काफी सुखद होते है।
उन्होंने कहा कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है और धर्म के सेवन से ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक ऊर्जा का आविर्भाव होता है। ईश्वर की उपासना समर्पण भाव से की जानी चाहिए और मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर के रोग-द्वेष को अपने विवेक की कैची से काट डाले तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए मानव को इंद्रियों पर काबू पाना सीखना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों का संचालन करना मानव को सिखाया है। इंद्रियों का संचालन ही हृदय का गोकुल है।
उन्होंने कहा कि भोजन थाली में होगा तो पेट में भी होगा और अगर थाली ही खाली हो तो पेट भरने की आश छोड देनी चाहिए। कुछ लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन इस पूजा से ही अंदर की पूजा तक पहुंचा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि अंदर की पूजा को जानने से पहले यानी भगवान को जानने के लिए अंदर की पूजा से पहले बाहर की पूजा बहुत जरूरी है। आंखे जो बाहर देखती है उसी का ध्यान अंदर करती है। इसी प्रकार से कान बाहर से सुनकर उसका अंदर चिंतन करते है इसलिए पूजा की जोत की ज्वाला शरीर के बाहर तक ही नहीं बल्कि अंदर तक भी जानी बहुत जरूरी है।
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Posted by Udit bhargava at 12/11/2010 09:50:00 pm 0 comments
09 दिसंबर 2010
होम्योपैथी क्षेत्र में अपार संभावनाएँ
आज की आपाधापी वाली जिंदगी में बीमारियों ने मनुष्य के शरीर में अपनी पैठ बना ली है, तो लोग भी उनका जड़ से इलाज चाहते हैं। इसके लिए वह होम्योपैथी का सहारा लेते हैं। यह एक ऐसी पद्धति है जिसमें उपचार में तो समय लगता है लेकिन यह बीमारी को जड़ से मिटाती है। यही कारण है जिसके कारण यह पद्धति तेजी से लोकप्रिय हो रही है। अगर आप चाहें तो इस क्षेत्र में अपना भविष्य देख सकते हैं।
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Labels: मनपसंद करियर
Posted by Udit bhargava at 12/09/2010 05:30:00 pm 0 comments
आपके अंदाज में है सेक्स अपील
हिन्दी सिनेमा के सबसे सेक्सी दृश्यों को याद करें। शायद आपके आंखों के आगे बारिश में भीगती नायिका की झलक कौंध जाएगी। जिसके कपड़े भीगकर बदन से चिपक गए हों। पारदर्शी कपड़ों से शरीर बाहर झांक रहा हो। इससे भी ज्यादा सेक्सी आपको लगी होंगी शायद उस अभिनेत्री की अदाएं। यह साफ बताता है कि हमारी सेक्सुअल फैंटेसी में शारीरिक भाव-भंगिमाएं यानी कि बॉडी लैंग्वेज की क्या भूमिका है।
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जो दीवाना बना दे...
पुरुषों के अंदाज
Labels: सेक्स रिलेशन
Posted by Udit bhargava at 12/09/2010 05:02:00 pm 0 comments
क्रोध में मनुष्य स्वयं को भूल जाता है
रघुनाथ मंदिर में प्रवचन सुनाते हुए पंडित गोविन्दरामने कहा कि क्रोध में मनुष्य सही निर्णय नहीं कर पाता क्योंकि क्रोध की अग्नि में वह सब अच्छाई बुराई को भूलकर केवल अपने स्वार्थ को देखता है।
पंडित जी ने कहा कि जब भक्त प्रह्लाद ने दैत्य बालकों को संकीर्तन में लगा दिया तो गुरु पुत्र भयभीत होकर हिरण्य कश्यप के पास पहुंचे और उसे कहा कि महाराज प्रह्लाद ने तो सारे बच्चों को ही बिगाड दिया है। यह बात हिरण्य कश्यप से सहन हुई और क्रोधित होकर उसने निश्चय किया कि मैं अपने हाथों से प्रह्लाद का वध करूंगा। वह काला नाग की तरह फुंकारता हुआ उसके विद्यालय पहुंचा।
प्रह्लाद ने अपने पिता को साष्टांग प्रणाम किया और कहा कि पिता जी आप स्वाभाविक नहीं लग रहे हो। आपकी परेशानी का क्या कारण है? क्या मैं आपकी कुछ सहायता करूं? उसने त्रिलोकी कांपती हैं, वृक्षों में फल आ जाते हैं, सागर रत्नों के साथ खडा हो जाता है, उसका तुम किसकी शक्ति और साहस से विरोधी कर रहे हो। प्रह्लाद ने कहा कि पिता जी शक्ति तो एक ही है। आपके जिस शक्ति से त्रिलोकी कांपती है उस नारायण की शक्ति से।
वहीं, शक्ति सभी का संचालन करती है। आप भी दैवी भाव ग्रहण कर मेरे साथ संकीर्तन कीजिए, आपको शांति मिलेगी। हरण्यकश्पने कहा कि मुझे पता लग गया है कि तेरी मौत नजदीक आ गई है, इसलिए तेरी बुद्धि काम नहीं कर रहीं। प्रह्लाद ने कहा कि नारायण की इच्छा के बिना कोई किसी को नहीं मार सकता। उसने कहा कि जो नारायण मेरे भय से सामने नहीं आती पहले मैं उससे ही निपटूं। बता तेरा नारायण कहां है? मेरे अंदर, तेरे अंदर, मेरे तलवार में, इस खंभे में भी। प्रह्लाद ने बडी विनम्रता से कहा कि सकारात्मक जवाब दिया और कहा कि नारायण तो सभी जगह विद्यमान हैं। हिरण्य कश्यप ने खंभे में पूरी शक्ति से मुक्का मारा। जोर की आवाज हुई,उसने सोचा इसकी बात सच है। तभी भगवान नरसिंह का रूप धारण कर प्रकट होते हैं। प्रह्लाद शांत खडे हैं। उन्हें देखते ही भगवान आवेश में आ जाते है और जोर से हंसते हैं। उनके दांतों से तीव्र प्रकाश निकलता है जिससे हिरण्य कश्यप की आंखें बंद हो जाती है और भगवान उसे पकड लेते हैं।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 12/09/2010 04:46:00 pm 0 comments
मुक्तिदायिनी है बाबा विश्वनाथ की काशी
काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-काशिरित्ते॥ आप इवकाशिनासंगृभीता:।पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवरबन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधवके नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने कु्रद्ध होकर ब्रह्माजीका पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थकहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजीसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई।
एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगातटपर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रियलगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदासअपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणोंको काशी छोडने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन:बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों,सूर्यदेव, ब्रह्माजीऔर नारायण ने बडा प्रयास किया। गणेशजीके सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्गकी स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।
काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बडे पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन,महाश्मशान,रुद्रावास,काशिका,तप:स्थली,मुक्तिभूमि,शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरीहैं।
स्कन्दपुराणकाशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है-
भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया
या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:।
या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥
भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली(मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनीगङ्गाके तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवितहै, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे।
सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत:प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्रसुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूपप्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है-
यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।
जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥
काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्रसुनकर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-
अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।
काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।।
ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिíलंगका स्वरूप मानता है-
अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं<न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:पञ्चक्रोशपरीमितम्।">पञ्चक्रोशपरीमितम्।
ज्योतिíलङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥
पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिíलंग-स्वरूपमानना चाहिए।
अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत का समर्थन करते हुए बहुत कुछ लिखा और कहा है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजीद्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग नामक पुस्तक में श्रीरामकृष्णपरमहंसदेवका इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वíणत है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्रप्रदान करने की सत्यता उजागर करता है। लेकिन यहां यह भी बात ध्यान रहे कि काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकरभैरवी यातना भी भोगनी पडती है। सहस्रोंवर्षो तक रुद्रपिशाचबनकर कुकर्मो का प्रायश्चित करने के उपरांत ही उसे मुक्ति मिलती है। किंतु काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता।
फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है।
मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है-यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।
पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥
विश्वनाथजी की अतिश्रेष्ठनगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है।
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Posted by Udit bhargava at 12/09/2010 04:22:00 pm 0 comments
03 दिसंबर 2010
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (126 - 150)
126 सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है.
127 मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना जरूरी है. जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती.
128 किसी का बुरा मत सोचो; क्योंकि बुरा सोचते-सोचते एक दिन अच्छा भला व्यक्ति भी बुरे रास्ते पर चल पड़ता है.
129 सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं. अतः समझौतावादी बनो.
130 महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत कष्ट सहना पड़ता है, जो तप के समान होता है; क्योंकि ऊंचाई पर स्थिर रह पाना आसान काम नहीं है.
131 जैसे प्रकृति का हर कारण उपयोगी है, ऐसे ही हमें अपने जीवन के हर क्षण को परहित में लगाकर स्वयं और सभी के लिये उपयोगी बनाना चाहिए.
132 हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की लकीर की भांति होता है.
133 जहाँ भी हो जैसे भी हो कर्मशील रहो, भाग्य अवश्य बदलेगा; अतः मनुष्य को कर्मवादी होना चाहिए, भाग्यवादी नहीं.
134 सभी मन्त्रों से महामंत्र है कर्म मंत्र. कर्म करते हुए भजन करते रहना ही प्रभु की सच्ची भक्ति है.
135 जूँ, खटमल की तरह दूसरों पर नहीं पलना चाहिए, बल्कि अंत समय तक कार्य करते जाओ; क्योंकि गतिशीलता जीवन का आवश्यक अंग है.
136 बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान व उत्तम प्राप्ति है.
137 भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्रा सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे बढ़ते जाते हैं.
138 सन्यासी स्वरुप बनाने से अहंकार बढ़ता है. कपडे मन रंग्वाओ, मन को रंगों तथा भीतर से सन्यासी की तरह रहो.
139 जीवन चलते का नाम है. सोने वाला सतयुग में रहता है, बैठने वाला द्वापर में, उठ खडा होने वाल त्रेता में, और चलने वाला सतयुग में इसलिए चलते रहो.
140 अपनों व अपने प्रिय से धोखा हो या बीमारी से उठो हो या राजनीति में हार गया हो या शमशान घर में जाओ; तब जो मन होता है, वैसा मन अगर हमेशा रहे तो मनुष्य का कल्याण हो जाए.
141 मनुष्य का मन कछुए की भांति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे मंजिल पर पहुँच जाता है.
142 हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर सवेरे में नए जीवन की शुरूरात होती है.
143 भगवान् को अनुशाशन एवं सुव्यवस्थितपना बहुत पसंद है. अतः उन्हें ऐसे लोग ही पसंद आते हैं, जो सुव्यवस्था व अनुशाशन को अपनाते हैं.
144 आज का मनुष्य अपने अभाव से इतना दुखी नहीं है, जितना दूसरे के प्रभाव से होता है.
145 जानकारी व वैदिक ज्ञान का भार तो लोग सिर पर गधे की तरह उठाये फिरते हैं और जल्द अहंकारी भी हो जाते हैं, लेकिन उसकी सरलता का आनंद नहीं उठा सकते हैं.
146 जहाँ सत्य होता है, वहां लोगों की भीड़ नहीं हुआ करती; क्योंकि सत्य जहर होता है और जहर को कोई पीना या लेना नहीं चाहता है. इसलिए आजकल हर जगह मेला लगा रहता है.
147 दिन में अधूरी इच्छा को व्यक्ति रात को स्वप्न के रूप में देखता है. इसलिए जितना मन अशांत होगा, उतने ही अधिक स्वप्न आते हैं.
148 कई बच्चे हजारों मील दूर बैठे भी माता-पिता से दूर नहीं होते और कई घर में साथ रहते हुई भी हजारों मील दूर होते हैं.
149 जो व्यक्ति हर स्थिति में प्रसन्न और शांत रहना सीख लेता है, वह जीने की कला प्राणी मात्रा के लिये कल्याणकारी है.
150 जो व्यक्ति आचरण की पोथी को नहीं पढता, उसके पृष्ठों को नहीं पलटता, वह भला दूसरों का क्या भला कर पायेगा.
Posted by Udit bhargava at 12/03/2010 09:24:00 pm 1 comments
02 दिसंबर 2010
वास्तुदोष निवारण के आसान उपाय
1 अपने घर के उत्तरकोण में तुलसी का पौधा लगाएं
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2 हल्दी को जल में घोलकर एक पान के पत्ते की सहायता से अपने सम्पूर्ण घर में छिडकाव करें. इससे घर में लक्ष्मी का वास तथा शांति भी बनी रहती है.
4 घर में सफाई हेतु रखी झाडू को रस्ते के पास नहीं रखें. यदि झाडू के बार-बार पैर का स्पर्थ होता है, तो यह धन-नाश का कारण होता है. झाडू के ऊपर कोई वजनदार वास्तु भी नहीं रखें.
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5 अपने घर में दीवारों पर सुन्दर, हरियाली से युक्त और मन को प्रसन्न करने वाले चित्र लगाएं. इससे घर के मुखिया को होने वाली मानसिक परेशानियों से निजात मिलती है.
6 वास्तुदोष के कारण यदि घर में किसी सदस्य को रात में नींद नहीं आती या स्वभाव चिडचिडा रहता हो, तो उसे दक्षिण दिशा की तरफ सिर करके शयन कराएं. इससे उसके स्वभाव में बदलाव होगा और अनिद्रा की स्थिति में भी सुधार होगा.
7 अपने घर के ईशान कोण को साफ़ सुथरा और खुला रखें. इससे घर में शुभत्व की वृद्धि होती है.
8 अपने घर के मन्दिर में देवी-देवताओं पर चढ़ाए गए पुष्प-हार दूसरे दिन हटा देने चाहिए और भगवान को नए पुष्प-हार अर्पित करने चाहिए.
9 घर के उत्तर-पूर्व में कभी भी कचरा इकट्ठा न होने दें और न ही इधर भारी मशीनरी रखें.
10 अपने वंश की उन्नति के लिये घर के मुख्यद्वार पर अशोक के वृक्ष दोनों तरफ लगाएं.
11 यदि आपके मकान में उत्तर दिशा में स्टोररूम है, तो उसे यहाँ से हटा दें. इस स्टोररूम को अपने घर के पश्चिम भाग या नैऋत्य कोण में स्थापित करें.
12 घर में उत्पन्न वास्तुदोष घर के मुखिया को कष्टदायक होते हैं. इसके निवारण के लिये घर के मुखिया को सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए.
13 यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिणमुखी है, तो यह भी मुखिया के के लिये हानिकारक होता है. इसके लिये मुख्यद्वार पर श्वेतार्क गणपति की स्थापना करनी चाहिए.
14 अपने घर के पूजा घर में देवताओं के चित्र भूलकर भी आमने-सामने नहीं रखने चाहिए इससे बड़ा दोष उत्पन्न होता है.
15 अपने घर के ईशान कोण में स्थित पूजा-घर में अपने बहुमूल्य वस्तुएँ नहीं छिपानी चाहिए.
16 पूजाकक्ष की दीवारों का रंग सफ़ेद हल्का पीला अथवा हल्का नीला होना चाहिए.
17 यदि आपके रसोई घर में रेफ्रिजरेटर नैऋत्य कोण में रखा है, तो इसे वहां से हटाकर उत्तर या पश्चिम में रखें.
18 दीपावली अथवा अन्य किसी शुभ मुहूर्त में अपने घर में पूजास्थल में वास्तुदोशनाशक कवच की स्थापना करें और नित्य इसकी पूजा करें. इस कवच को दोषयुक्त स्थान पर भी स्थापित करके आप वास्तुदोषों से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं.
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19 अपने घर में ईशान कोण अथवा ब्रह्मस्थल में स्फटिक श्रीयंत्र की शुभ मुहूर्त में स्थापना करें. यह यन्त्र लक्ष्मीप्रदायक भी होता ही है, साथ ही साथ घर में स्थित वास्तुदोषों का भी निवारण करता है.
20 प्रातःकाल के समय एक कंडे पर थोड़ी अग्नि जलाकर उस पर थोड़ी गुग्गल रखें और 'ॐ नारायणाय नमन' मंत्र का उच्चारण करते हुए तीन बार घी की कुछ बूँदें डालें. अब गुग्गल से जो धूम्र उत्पन्न हो, उसे अपने घर के प्रत्येक कमरे में जाने दें. इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा ख़त्म होगी और वातुदोशों का नाश होगा.
21 घर में किसी भी कमरे में सूखे हुए पुष्प नहीं रखने दें. यदि छोटे गुलदस्ते में रखे हुए फूल सूख जाएं, तो उस्मने नए पुश्व लगा दें और सूखे पुष्पों को निकालकर बाहर फेंक दें.
22 सुबह के समय थोड़ी देर तक निरंतर बजने वाली गायत्री मंत्र की धुन चलने दें. इसके अतिरिक्त कोई अन्य धुन भी आप बजा सकते हैं.
23 सायंकाल के समय घर के सदस्य सामूहिक आरती करें. इससे भी वास्तुदोष दूर होते हैं.
Posted by Udit bhargava at 12/02/2010 06:19:00 pm 1 comments
24 नवंबर 2010
आयुर्वेद और कामसूत्र दे सेक्स पावर
एरंड पाक का सेवन करने से शारीरिक दुर्बलता नष्ट होती है, पाचन शक्ति तीव्र होने से भोजन शीघ्र पचता है और शारीरिक यौनशक्ति विकसित होती है. शीतऋतु में एरंड पाक का सेवन करने से मुंह का रोग नष्ट होता है तथा अन्य वात विकारों में भी यह बहुत गुणकारी होता है. इसे 10 से 20 ग्राम की मात्रा में दूध के साथ सेवन करना चाहिए.
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आम्र-पाक वीर्यवर्धक होता है, अतः शुक्र (वीर्य) विकार से पीड़ित पुरूषों के लिये इसका सेवन बहुत लाभप्रद है. आम्र-पाक से रक्त का निर्माण होता है तथा वीर्य की वृद्धि होने से यौनशक्ति विकसित होती है. भोजन से पहले 20 से 25 ग्राम की मात्रा में दूध या जल के साथ आम्र-पाक सेवन करने से शारीरिक शक्ति विकसित होती है.
छुहारे में खजूर के सभी गुण विघमान रहते हैं तथा इनका यौन शक्ति व क्षमता पर बेहद चमत्कारी प्रभाव पड़ता है. वीर्य का अभाव होने पर छुहारे को दूध में उबालकर सेवन करने से वीर्य वृद्धि होती है तथा शारीरिक शक्ति बढ़ती है.
बादाम पाक का सेवन करने से बल, वीर्य और ओजा की वृद्धि होती है. बादाम पाक रस-रक्तादी धातुओं की वृद्धि करके शरीर की शक्ति और कांटी बढ़ा देता है. नपुंसकता और स्नायु दुर्बलता में बादाम पाक का सेवन बेहद फायदेमंद है. 10 से 20 ग्राम की मात्रा में बादाम पाक प्रतिदिन दूध के साथ सेवन करने से मस्तिष्क और ह्रदय की निर्बलता नष्ट होती है तथा शरीर हष्ट-पुष्ट होता है.
सौंठ पाक का सेवन करने से स्त्रियों के कई रोग नष्ट होते हैं. यह शारीर की निर्बलता को नष्ट करके शरीर को सुन्दर बनाता है तथा ऋतुस्त्राव संबंधी विकारों में भे बेहद फायदेमंद है. ऋतुस्त्राव में होने वाले कष्ट को यह पाक नष्ट करता है तथा योनि विकारों में भी इसके सेवन से लाभ मिलता है.
सर्दी के दिनों में इसे हलवे, दूध, अन्य पेयों अथवा खाघ पदार्थों में मिलाकर खाने की प्रथा है. केसर शरीर के विभिन्न अंगों को शक्ति देने में उपयोगी है. इसके प्रयोग से वृद्ध शरीर में भी जान पड़ जाती है. केसर का स्वभाव कुछ अधिक गर्म होता है, इसलिए इसे गर्भवती महिलाएं और उच्च रक्तचाप वाले रोगियों को प्रयोग में नहीं लाना चाहिए, परन्तु जिन महिलाओं को मासिक धर्म आने में कष्ट हो वे यदि इसका प्रयोग करें तो लाभ होगा.
का सेवन करने से सभी तरह के विकार दूर होते हैं तथा शारीरिक निर्बलता, अतिसार, मस्तिष्क के रोग और धातु स्नान में बहुत लाभ मिलता है. दिन में दो-तीन बार 6 से 10 ग्राम की मात्रा में जल के साथ अनार का सेवन करने से काफी लाभ होता है. इसका अवलेह बनाने के लिये चाशनी में जावित्री, काली मिचर, जायफल, पीपल, सौंठ, दाल-चीनी और लौंग का चूर्ण प्रयोग में लाया जाता है.
गुग्गलु का प्रयोग समस्त वायुरोगों में किया जाता है. गुग्गलु की विशेषता यह है की यदि इसे एक लाख बार मूसली से कूटा जाए तो इसमें समस्त रोगों का नाश होता है और शारीरिक शक्ति में बढ़ोत्तरी होती है. इसके प्रयोग से प्रमेह, प्रदर वीर्य दोष संबंधी रोग दूर होते हैं. हरद, सौंठ और गुग्गलु चूर्ण से बने दो से चार गोली सुबह-शाम गर्म जल या दूध के साथ लेने से धातुओं की वृद्धि होती है और यौन शक्ति मजबूत होती है.
लहसुन पाक का सेवन लिंग दुर्बलता और नपुंसकता को दूर करता है. अपनी शक्ति के अनुसार 10 से 20 ग्राम तक लहसुन की कलियाँ शहद के साथ सुबह-शाम खाने पर कामशक्ति जाग्रत होती है और नपुंसकता का दमन करती है. स्त्रियों के लिये भी लहसुन काफी फायदेमंद है.
सुपारी पाक स्त्रियों के स्वस्थ्य सौंदर्य के लिये बहुत गुणकारी होती है तथा पुरूषों को इसके सेवन से शारीरिक शक्ति विकसित होती है. सुपारी पाक का सेवन करने से स्त्रियों के सभी योनि विकार नष्ट होते हैं तथा इस पाक से गर्भाशय को शक्ति मिलाती है.
के सेवन से काम शक्ति की कमी, प्रमेह रोग, दुर्बलता हस्तमैथुन आदि पुरूष रोग दूर होते हैं. एक चम्मच शहद और एक चम्मच ताजा प्याज का रस मिलाकर सुबह-शाम पीने से कामभाव का ठहराव कम होता है और इससे काम भावना में जादू सा असर होता है.
दाल-चीनी में औषधीय गुण पाए जाते हैं. प्रोटीन, वसा, रेशा, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, विटामिन बी एवं सी काफी मात्रा में पाए जाते हैं. रात को सोते समय दाल-चीनी का बारीक चूर्ण 4 ग्राम की मात्रा में शहद के साथ लेकर दूध पीने से वीर्य की वृद्धि होती है एवं पाचन संबंधी दोष दूर होते हैं.
Posted by Udit bhargava at 11/24/2010 06:46:00 pm 4 comments
14 नवंबर 2010
क्या हो सेक्स की सही उम्र
सहमति के आधार पर सेक्स करने की मिनिमम उम्र कितनी होनी चाहिए, यह एक बहस का विषय है, लेकिन हाल ही में लॉ कमिशन ने इस मुद्दे पर अपनी बेबाक राय जाहिर की। आइये जानते हैं, इस बारे में एक्सर्पट्स क्या सोचते हैं:-
पिछले दिनों लॉ कमिशन ने लड़कियों के लिए सहमति के आधार पर सेक्स की उम्र 16 साल करने की सिफारिश की। कमिशन की इस सिफारिश ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। कई एक्सपर्ट का मानना है कि सेक्स के लिए 16 साल की उम्र बहुत कम है। सेक्स एंड मैरिज थेरेपिस्ट डॉक्टर विनोद छब्बी कहते हैं, '18 साल से कम उम्र में सेक्स करने की छूट देना ठीक नहीं है। वैसे भी उम्र को सेक्स करने की छूट देने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या 16 साल की उम्र में लड़की सेक्स के लिए इमोशनली तैयार होती है?'
देखा जाए तो इन मामलों में इमोशंस बहुत बड़ा रोल निभाते हैं। सोशल वर्कर और काउंसिलर निवेदिता कश्यप बताती हैं, '13 साल की उम्र से बच्चों में सेक्स के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ जाती है। ऐसे में अगर उन्हें छूट दे दी जाए, तो वे इसे सिर्फ एक खेल की तरह लेंगे। लड़कों पर भले ही इस बात का कोई फर्क न पड़े, लेकिन लड़कियां हर चीज से इमोशनली जुड़ जाती हैं। ऐसे में उनकी स्टडी और फैमिली रिलेशन प्रभावित हो सकते हैं।'
अगर लड़कियां सेक्स से इमोशनली जुड़ जाएं तो उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। 18 वर्षीय स्टूडेंट मंजूषा अपनी फ्रेंड का उदाहरण देती हैं, 'मेरी फ्रेंड ने अपने बॉयफ्रेंड के साथ फिजिकल रिलेशन बनाए थे। उसका मानना था कि यह बॉयफ्रेंड के साथ की जाने वाली सबसे कूल एक्टिविटी है। वह अपने बॉयफ्रेंड से भावनात्मक रूप से भी जुड़ गई थी। उसे भरोसा था कि उसका बॉयफ्रेंड उसके अलावा किसी और लड़की से रिलेशन नहीं बनाएगा, लेकिन जब उसे पता चला कि उसके बॉयफ्रेंड के किसी और लड़की के साथ भी रिलेशन हैं, तो उसे काफी झटका लगा।' डॉ विनोद के मुताबिक, इस उम्र के लड़के और लड़कियां गर्भधारण से बचने के साधनों का इस्तेमाल करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि यह सब झंझट है। ऐसे में उन्हें सेक्सुअल डिजीज होने का खतरा भी बना रहता है।
20 साल के रितिक भी 16 की उम्र में सेक्स की छूट देने से सहमत नहीं हैं। वह कहते हैं, 'ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब डीपीएस एमएमएस कांड को लेकर हंगामा हुआ था। उसमें सभी लड़के-लड़कियों की उम्र 16 से कम ही रही होगी।' उधर निवेदिता कहती हैं, 'हमारे यहां के गांवों में आज भी बाल विवाह का चलन काफी जोरों पर है। वहां के बच्चे टेलिविजन, नेट, किताबों और दोस्तों के माध्यम से सेक्स के बारे में काफी तेजी से जान रहे हैं। अगर हमारे लॉ मेकर्स उन्हें ध्यान में रखकर सेक्स की उम्र निर्धारित कर रहे हैं, तो इसे कम से कम 18 साल किया जाना चाहिए।'
ऐसा भी नहीं है कि सभी एक्सपर्ट सेक्स की उम्र को 16 साल किए जाने के खिलाफ हैं। फर्टिलिटी एक्सपर्ट डॉक्टर कामिनी राव कहती हैं, '16 साल का कोई भी बच्चा अपनी जरूरतों के बारे में अच्छी तरह जानता है। वह काफी मैच्योर होता है और अपने फैसले खुद ले सकता है। जरूरी नहीं कि इस उम्र के बच्चों के बीच होने वाले सेक्स का रिजल्ट प्रेग्नेंसी ही हो।' ब्रिटनी स्पियर्स की बहन जैमी लिन के कम उम्र में प्रेग्नेंट होने की घटना याद दिलाने पर वह कहती हैं, 'इतनी कम उम्र में इस तरह के कदम वही बच्चे उठाते हैं, जो अपनी वैल्यूज को भूल चुके हैं। हमें अपने बच्चों को संस्कारी बनाना चाहिए। पैरंट्स को कभी भी अपने टीनएज बच्चों को जरूरत से ज्यादा फ्रीडम नहीं देनी चाहिए।'
Labels: सेक्स रिलेशन
Posted by Udit bhargava at 11/14/2010 10:28:00 am 1 comments
11 नवंबर 2010
रामसेतु आध्यात्मिक महत्व का महातीर्थ
वर्तमान समय में श्रीरामसेतु सर्वत्र चर्चा का विषय बना हुआ है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा 8 अक्टूबर 2002 को रामेश्वरमके समीप भारत और श्रीलंका के मध्य समुद्र में एक सेतु खोज लेने के बाद श्रीरामसेतु को काल्पनिक कहकर इसके अस्तित्व को नकार सकना संभव नहीं है। सीताहरण के बाद श्रीराम की वानर सेना ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर सेतु बनाया था। राम-नाम के प्रताप से पत्थर पानी पर तैरने लगे।
रामसेतु का धार्मिक महत्व केवल इससे ही जाना जा सकता है कि स्कन्दपुराण के ब्रह्मखण्ड में इस सेतु के माहात्म्य का बडे विस्तार से वर्णन किया गया है। नैमिषारण्य में ऋषियों के द्वारा जीवों की मुक्ति का सुगम उपाय पूछने पर सूत जी बोले-
दृष्टमात्रेरामसेतौमुक्ति: संसार-सागरात्।
हरे हरौचभक्ति: स्यात्तथापुण्यसमृद्धिता।
रामसेतु के दर्शन मात्र से संसार-सागर से मुक्ति मिल जाती है। भगवान विष्णु और शिव में भक्ति तथा पुण्य की वृद्धि होती है। इसलिए यह सेतु सबके लिए परम पूज्य है।
सेतु-महिमा का गुणगान करते हुए सूतजी शौनक आदि ऋषियों से कहते हैं- सेतु का दर्शन करने पर सब यज्ञों का, समस्त तीर्थो में स्नान का तथा सभी तपस्याओं का पुण्य फल प्राप्त होता है। सेतु-क्षेत्र में स्नान करने से सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा भक्त को मरणोपरांत वैकुण्ठ में प्रवेश मिलता है। सेतुतीर्थका स्नान अन्त: करण को शुद्ध करके मोक्ष का अधिकारी बना देता है। पापनाशक सेतु तीर्थमें निष्काम भाव से किया हुआ स्नान मोक्ष देता है। जो मनुष्य धन-सम्पत्ति के उद्देश्य से सेतु तीर्थ में स्नान करता है, वह सुख-समृद्धि पाता है। जो विद्वान चारों वेदों में पारंगत होने, समस्त शास्त्रों का ज्ञान और मंत्रों की सिद्धि के विचार से सर्वार्थसिद्धिदायक सेतु तीर्थ में स्नान करता है, उसे मनोवांछित सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। जो भी सेतुती र्थमें स्नान करता है, वह इहलोक और परलोक में कभी दु:ख का भागी नहीं होता। जिस प्रकार कामधेनु, चिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष समस्त अभीष्ट वस्तुओं को प्रदान करते हैं, उसी प्रकार सेतु-स्नान सब मनोरथ पूर्ण करता है।
रामसेतु के क्षेत्र में अनेक तीर्थ स्थित हैं अत: स्कन्दपुराण में सेतु यात्रा का क्रम एवं विधान भी वर्णित है। सेतु तीर्थमें पहुंचने पर सेतु की वन्दना करें-
रघुवीरपदन्यासपवित्रीकृतपांसवे।
दशकण्ठशिरश्छेदहेतवेसेतवेनम:॥
केतवेरामचन्द्रस्यमोक्षमार्गैकहेतवे।
सीतायामानसाम्भोजभानवेसेतवेनम:॥
श्रीरघुवीर के चरण रखने से जिसकी धूलि परम पवित्र हो गई है, जो दशानन रावण के सिर कटने का एकमात्र हेतु है, उस सेतु को नमस्कार है। जो मोक्ष मार्ग का प्रधान हेतु तथा श्रीरामचन्द्रजी के सुयश को फहराने वाला ध्वज है, सीताजी के हृदय कमल के खिलने के लिए सूर्यदेव के समान है, उस सेतु को मेरा नमस्कार है।
श्रीरामचरितमानस में स्वयं भगवान श्रीराम का कथन है-
मम कृत सेतु जो दरसनुकरिही।
सो बिनुश्रम भवसागर तरिही॥
जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह कोई परिश्रम किए बिना ही संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड के 22वें अध्याय में लिखा है कि विश्वकर्मा के पुत्र वानरश्रेष्ठनल के नेतृत्व में वानरों ने मात्र पांच दिन में सौ योजन लंबा तथा दस योजन चौडा पुल समुद्र के ऊपर बनाकर रामजी की सेना के लंका में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। यह अपने आप में एक विश्व-कीर्तिमान है। आज के इस आधुनिक युग में नवीनतम तकनीक के द्वारा भी इतने कम समय में यह कारनामा कर दिखाना संभव नहीं लगता।
महíष वाल्मीकि रामसेतु की प्रशंसा में कहते हैं- अशोभतमहान् सेतु: सीमन्तइवसागरे। वह महान सेतु सागर में सीमन्त(मांग) के समान शोभित था। सनलेनकृत: सेतु: सागरेमकरालये।शुशुभेसुभग: श्रीमान् स्वातीपथइवाम्बरे॥ मगरों से भरे समुद्र में नल के द्वारा निíमत वह सुंदर सेतु आकाश में छायापथ के समान सुशोभित था। नासा के द्वारा अंतरिक्ष से खींचे गए चित्र से ये तथ्य अक्षरश:सत्य सिद्ध होते हैं।
स्कन्दपुराणके सेतु-माहात्म्य में धनुष्कोटितीर्थ का उल्लेख भी है-
दक्षिणाम्बुनिधौपुण्येरामसेतौविमुक्तिदे।
नुष्कोटिरितिख्यातंतीर्थमस्तिविमुक्तिदम्॥
दक्षिण-समुद्र के तट पर जहां परम पवित्र रामसेतु है, वहीं धनुष्कोटिनाम से विख्यात एक मुक्तिदायक तीर्थ है। इसके विषय में यह कथा है-भगवान श्रीराम जब लंका पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त भगवती सीता के साथ वापस लौटने लगे तब लंकापति विभीषण ने प्रार्थना की- प्रभो! आपके द्वारा बनवाया गया यह सेतु बना रहा तो भविष्य में इस मार्ग से भारत के बलाभिमानीराजा मेरी लंका पर आक्रमण करेंगे। लंका-नरेश विभीषण के अनुरोध पर श्रीरामचन्द्रजी ने अपने धनुष की कोटि (नोक) से सेतु को एक स्थान से तोडकर उस भाग को समुद्र में डुबो दिया। इससे उस स्थान का नाम धनुष्कोटि हो गया। इस पतित पावनतीर्थ में जप-तप, स्नान-दान से महापातकों का नाश, मनोकामना की पूर्ति तथा सद्गति मिलती है। धनुष्कोटिका दर्शन करने वाले व्यक्ति के हृदय की अज्ञानमयी ग्रंथि कट जाती है, उसके सब संशय दूर हो जाते हैं और संचित पापों का नाश हो जाता है। यहां पिण्डदान करने से पितरोंको कल्पपर्यन्त तृप्ति रहती है। धनुष्कोटि तीर्थ में पृथ्वी के दस कोटि सहस्र(एक खरब) तीर्थो का वास है।
वस्तुत: रामसेतु महातीर्थहै। विद्वानों ने इस सेतु को लगभग 17,50,000 साल पुराना बताया है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में निर्दिष्ट काल-गणना के अनुसार यह समय त्रेतायुगका है, जिसमें भगवान श्रीराम का अवतार हुआ था। सही मायनों में यह सेतु रामकथा की वास्तविकता का ऐतिहासिक प्रमाण है। समुद्र में जलमग्न हो जाने पर भी रामसेतु का आध्यात्मिक प्रभाव नष्ट नहीं हुआ है।
स्कंदपुराण, कूर्मपुराण आदि पुराणों में भगवान शिव का वचन है कि जब तक रामसेतु की आधारभूमि तथा रामसेतु का अस्तित्व किसी भी रूप में विद्यमान रहेगा, तब तक भगवान शंकर सेतु तीर्थमें सदैव उपस्थित रहेंगे।
अत: श्रीरामसेतु आज भी दिव्य ऊर्जा का स्रोत है। पुरातात्विक महत्व की ऐसी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षण प्रदान करते हुए हमें उसकी हर कीमत पर रक्षा करनी चाहिए। यह सेतु श्रीराम की लंका- विजय का साक्षी होने के साथ एक महा तीर्थ भी है।
Labels: धार्मिक स्थल
Posted by Udit bhargava at 11/11/2010 08:20:00 am 0 comments
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