भारतीय विचारकों एवं मनीषियों ने व्यक्ति एवं समाज के उदात्त स्वरुप तथा सर्वाड्गीण विकास के लिये पुरूषार्थों का विधान किया है।
सामान्य रूप में पुरूषार्थ का शाब्दिक अर्थ है 'पुरूषार्रथ्यर्ते इति पुरूषार्थ:' अर्थार्थ पुरूष के द्वारा इष्ट होता है, वही पुरूषार्थ है। पुरूषार्थ शब्द पुरूष एवं अर्थ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। पुरूष से तात्पर्य है; विवेकशील प्राणी' और अर्थ से तात्पर्य है 'लक्ष्य'। उक्त लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास जब सचैतान्य किया जाता है, तो यह पुरूषार्थ कहलाता है। ये चार्पुरूशार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। ये चारों पुरूषार्थ मानव जीवन के आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आदि विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध है। इनमें से अर्थ और काम प्रवृत्ति मूलक पुरूषार्थ हैं। मोक्ष निवृत्ति मूलक पुरूषार्थ है एवं धर्म प्रवृत्ति-निव्रत्तिमूलक पुरूषार्थ है अर्थात धर्म ही एकमात्र ऐसा पुरूषार्थ है, जो संसार में प्रवृत्त कराते हुए मोक्ष की ओर प्रेरित कर्ता है। इससे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उन्नति सम्भव है।
हमारा वैदिक साहित्य उक्त चारों पुरुषार्थों के विषय में क्या कहता है - इस विषय को प्रस्तुत करना ही इस शोध लेक का उद्देश्य है।
'धर्म शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत एवं व्यापक है। धर्म शब्द का सबसे व्यापक अर्थ उसके व्याकरंगत मूल धातु 'धृञ्' पर आश्रित है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - धारण करना. अतः धर्म उन सब नियमों एवं वावास्थाओं का नाम है, जो समाज और व्यक्ति को धारण करती है।
वस्तुतः देखा जाए तो धर्म मानव की अनवारी आवश्यकता है। आज समाज में जो हिंसा, क्रूरता, क्रोध, अहंकार, परस्पर ईर्ष्या एवं वैचारिक भिन्नता के बाव पनप रहे हैं उसका एक कारण हमारे धर्म विमुखता भी है। धर्म, कर्म के अभाव में हम अपने नैतिक मूल्य छोड़ते जा रहे हैं। अतः हमें आवश्यकता है स्वहित की भावना के ऊपर उठकर सर्वहित की भावना अपने मन में विकसित करने कि तथा वेदोक्त धर्म को समझने की, क्योंकि ऋग्वेद में धर्म का प्रयोग विश्व को धारण करने के अर्थ में हुआ है।
धर्म का उद्देश्य समाज को संतुलन में रखना है। यह संतुलन तभी रह सकता है। जब हम अपनी वैचारिक संकीर्णताओं को छोड़कर प्राणिमात्र को ईश्वर की सृष्टि समझ कर सबके प्रति समानता का व्यवहार करें तथा परस्पर मिलकर अपने कर्तव्य का पालन करें। इसी उदात भावना का उल्लेख हमें ऋग्वेद के अंतिम मंडल से प्राप्त होता है--
संगच्छध्वं संवदध्वं संवै मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ॥
समानो मंत्र: समिति: समानी, समानं मन: सहचित्तमेषाम् ।
समानं मंत्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि । ऋ. 10.191.3
वैदिक धर्म की पहचान हेतु मनु ने अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में वैदिक धर्म के दस लक्षण बताते हुए कहा है---
धृति: क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्वीघा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनु. 6.91
अर्थात धैर्य, क्षमा, दं, असते, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं, जिन्हें ऋग्वेद के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है --
1. धृति --- धृति अर्थात धैर्य से तात्पर्य है मानव का सुख-दुःख, सफलता-असफलता, गरीबी-अमीरी आदि द्वंद्वात्मक अवस्थाओं में भी विचलित न होना। ऋग्वेद में धीर पुरूषों के द्वारा ही सफलता का विधान किया गया है -- धीरा इच्छेकुर्धरूणेष्वारभम्।
2. क्षमा - क्षमा को भी वैदिक धर्म का लक्षण माना गया है. अपने प्रति किसी व्यक्ति द्वारा भूल या अज्ञानतावश किये गए अपराधों के लिये क्षमा करने की भावना धर्म का लक्षण होती है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है.
3. दम - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि आतंरिक शत्रुओं का दमन कर आत्म संयम रखना कहलाता है. इस संबंध में उल्लेख मिलता है - योग्निं तत्वो दमे देवं मर्त सपयर्ति। तस्मा इद्दीयद् वसु॥ अर्थात जो साधक मन को वशीभूत करके उपासना में निरत होता है, उसके समक्ष वासवी शक्तियां प्रदीप्त हो उठाती हैं.
4. असते - दूसरों के अधिकार, संपत्ति एवं परिक्श्रम की चोरी न करना असते कहलाता है. चोरी नैतिक अपराध है. ऋग्वेद उसके नाश की प्रार्थना कर्ता है.
5. शुद्ध - बाह्य एवं आतंरिक पवित्रता एवं स्वच्छता शौच कहलाती है. ऋग्वेद मानसिक शुद्धि पर ज्यादा जोर देता है, क्योंकि वहां परमात्मा से भावों को पवित्र बनाने के लिये खा गया है.
6. इन्द्रिय निग्रह - पञ्च ज्ञानेन्द्रियों एवं पञ्च कर्मेन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें कुत्सित विषयों से हटाकर सद्विश्यों में लगाना इन्द्रिय निग्रह है. वेदों में अच्छा देखें, अच्छा सुने आदि के भाव परिलक्षित होते हैं.
7. धी: - 'धी:' शब्द का शाब्दिक अर्हत है 'बुद्धि', अर्थात हमें बुद्धि और विवेक के सहारे ही सत्य-असत्य, पाप-पुण्य आदि का विचार कर धर्माचरण करना चाहिए. ऋग्वेद में भी 'धियो यो नः प्रचोदयात अर्थात ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाए, जैसी भावनाएं प्राप्त होती हैं.
8. विद्या - अविद्या का नाश या विद्या की प्राप्ति धर्म का साधन है. वेदानुसार विद्या मनुष्यों की बुद्धि को प्रकाशित करती है. महोअर्ण - धियो विश्वा विराजति।
9. सत्य - सत्याचरण धर्म का प्रमुख लक्षण है, इसलिए सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग धर्म का लक्षण माना है. वेद में इसे ऋत भी कहा गयाः है. ऋग्वेद के अनुसार राष्ट्र की प्रतिष्ठा का आधार ऋत ही है. "
10. आक्रोश - राग द्वेशादी के वशीभूत होकर किसी पर क्रोध न करना धर्म का दसवां लक्षण है 'उलूकयांतु शुशुलूकयातुं' के माध्यम से उल्लू, भेदिये आदि की वृत्ति को त्यागने का आदेश दिया गया है.
धर्म को आधार बनाकर न केवल ऋग्वेद में अपितु यजुर्वेद, अथर्वेद एवं उपनिषद ग्रंथों में भी प्रचुर ज्ञान प्राप्त होता है. मनुष्य की व्यक्तिगत और सामजिक उन्नति एवं व्यवस्था को बनाए रखें एक उद्देश्य से यजुर्वेद कहता है कि किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और न किसी के धन का लालच करना चाहिए.
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किज्च् जगत्याञ्जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: मागृध: कस्यस्विद्धनम्॥
वाजसनेयी संहिता में धर्म निश्चित नियम और आचरण नियम अर्थों में प्रयुक्त हुआ है.
अथर्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग धार्मिक क्रिया एवं संस्कार से अर्जित गुण के अर्हत में प्रयुक्त हुआ है. इसके अतिरिक्त अथर्वेद से ही हमें विविध मानवीय धर्मों की भी शिक्षा प्राप्त होती है.
छान्दोग्योपनिषद में सबके प्रति उद्दार विचार रखना, किसी से भी अशिष्ट व्यवहार न करना, विद्वानों का अनादर न करना जैसे उदात्त भावों का उल्लेख धर्म के रूप में मिलता है.
धर्म का हमारे जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष से सीधा संबंध है, जैसा कि कहा भी है.
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान॥
इस प्रकार वैदिक धर्म मानव समाज की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति कर उसे सुख, शांति एवं परमानंद प्राप्ति कराने वाले कर्मों का नाम है.
अर्थ से तात्पर्य धन-संपदा के साथ-साथ प्रयोजनादी भी लिया गया है. श्रुतियां भी अर्थ का निषेध नहीं करती है. इसी कारण ब्रह्मा, विष्णु भी हिरण्यगर्भ और लक्ष्मीश होते हुए भी श्रेष्ट रूप को धारण करते हैं.
वेद में कहा गया है कि वैदिक आर्य
वेदों में काम को सारी सृष्टि का मूल कहा गया है. ऋग्वेद में इसे मन का प्रथम तेतास कहा गया है जो आरम्भ से ही विद्यमान था.
ऋग्वेद में काम के माध्यम से'बहु स्याम बहु प्रजायेयम' इस रूप में आत विस्तार की कामना की गई है. वेद के अनुसार पति-पत्नी को एवं संयमशील विद्वान् को उपयुक्त अवस्था में काम भाव प्राप्त होता है. ऋग्वेद का अगस्त्य - लोपामुद्रा आख्यान भी काम रूप पुरूषार्थ को पुष्ट करता है.
हमारा प्रथम पुरूषार्थ धर्म है, परन्तु उपनिषदों के अनुसार धर्मपालन के लिये संतति आवश्यक थी. यही कारण था कि गृहस्थाश्रम को सर्व आश्रमों में श्रेष्ठ आश्रम माना है. स्नातक बने सिष्य को उपदेश देते हुए आचार्य स्पष्ट रूप में कहते हैं कि प्रजा रूपी तंतु को कभी विचिन्न मत करना. बृहदारणयकोपनिषद में स्पष्ट उल्लिखित है कि जैसे कोई अपनी प्रिय पत्नी से मिलते हुए बाहर के जगत में कुछ नहीं जानता और न आतंरिक जगत को ही जानता है, उसी प्रकार प्राग्य आत्मा से जुडा हुआ पुरूष न बाहर की वास्तु जानता है और न ही अंदर की किसी वास्तु को.
बृहदारणयक उपनिषद में रति को सबसे बड़ा आनंद माना है एवं उसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा है.
सामान्य रूप में पुरूषार्थ का शाब्दिक अर्थ है 'पुरूषार्रथ्यर्ते इति पुरूषार्थ:' अर्थार्थ पुरूष के द्वारा इष्ट होता है, वही पुरूषार्थ है। पुरूषार्थ शब्द पुरूष एवं अर्थ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। पुरूष से तात्पर्य है; विवेकशील प्राणी' और अर्थ से तात्पर्य है 'लक्ष्य'। उक्त लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास जब सचैतान्य किया जाता है, तो यह पुरूषार्थ कहलाता है। ये चार्पुरूशार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। ये चारों पुरूषार्थ मानव जीवन के आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आदि विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध है। इनमें से अर्थ और काम प्रवृत्ति मूलक पुरूषार्थ हैं। मोक्ष निवृत्ति मूलक पुरूषार्थ है एवं धर्म प्रवृत्ति-निव्रत्तिमूलक पुरूषार्थ है अर्थात धर्म ही एकमात्र ऐसा पुरूषार्थ है, जो संसार में प्रवृत्त कराते हुए मोक्ष की ओर प्रेरित कर्ता है। इससे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उन्नति सम्भव है।
हमारा वैदिक साहित्य उक्त चारों पुरुषार्थों के विषय में क्या कहता है - इस विषय को प्रस्तुत करना ही इस शोध लेक का उद्देश्य है।
धर्म
सामाजिक एवम पार्लौकित दोनों की दृष्टियों से धर्म को परम पुरूषार्थ माना गया है। बिना धर्म के न तो सुव्यवस्थित समाज का निर्माण हो सकता है और न पारलौकिक सुख की प्राप्ति हो सकती है। अतः कहा गया है कि 'यतोsभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:।''धर्म शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत एवं व्यापक है। धर्म शब्द का सबसे व्यापक अर्थ उसके व्याकरंगत मूल धातु 'धृञ्' पर आश्रित है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - धारण करना. अतः धर्म उन सब नियमों एवं वावास्थाओं का नाम है, जो समाज और व्यक्ति को धारण करती है।
वस्तुतः देखा जाए तो धर्म मानव की अनवारी आवश्यकता है। आज समाज में जो हिंसा, क्रूरता, क्रोध, अहंकार, परस्पर ईर्ष्या एवं वैचारिक भिन्नता के बाव पनप रहे हैं उसका एक कारण हमारे धर्म विमुखता भी है। धर्म, कर्म के अभाव में हम अपने नैतिक मूल्य छोड़ते जा रहे हैं। अतः हमें आवश्यकता है स्वहित की भावना के ऊपर उठकर सर्वहित की भावना अपने मन में विकसित करने कि तथा वेदोक्त धर्म को समझने की, क्योंकि ऋग्वेद में धर्म का प्रयोग विश्व को धारण करने के अर्थ में हुआ है।
धर्म का उद्देश्य समाज को संतुलन में रखना है। यह संतुलन तभी रह सकता है। जब हम अपनी वैचारिक संकीर्णताओं को छोड़कर प्राणिमात्र को ईश्वर की सृष्टि समझ कर सबके प्रति समानता का व्यवहार करें तथा परस्पर मिलकर अपने कर्तव्य का पालन करें। इसी उदात भावना का उल्लेख हमें ऋग्वेद के अंतिम मंडल से प्राप्त होता है--
संगच्छध्वं संवदध्वं संवै मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ॥
समानो मंत्र: समिति: समानी, समानं मन: सहचित्तमेषाम् ।
समानं मंत्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि । ऋ. 10.191.3
वैदिक धर्म की पहचान हेतु मनु ने अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में वैदिक धर्म के दस लक्षण बताते हुए कहा है---
धृति: क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्वीघा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनु. 6.91
अर्थात धैर्य, क्षमा, दं, असते, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं, जिन्हें ऋग्वेद के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है --
1. धृति --- धृति अर्थात धैर्य से तात्पर्य है मानव का सुख-दुःख, सफलता-असफलता, गरीबी-अमीरी आदि द्वंद्वात्मक अवस्थाओं में भी विचलित न होना। ऋग्वेद में धीर पुरूषों के द्वारा ही सफलता का विधान किया गया है -- धीरा इच्छेकुर्धरूणेष्वारभम्।
2. क्षमा - क्षमा को भी वैदिक धर्म का लक्षण माना गया है. अपने प्रति किसी व्यक्ति द्वारा भूल या अज्ञानतावश किये गए अपराधों के लिये क्षमा करने की भावना धर्म का लक्षण होती है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है.
3. दम - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि आतंरिक शत्रुओं का दमन कर आत्म संयम रखना कहलाता है. इस संबंध में उल्लेख मिलता है - योग्निं तत्वो दमे देवं मर्त सपयर्ति। तस्मा इद्दीयद् वसु॥ अर्थात जो साधक मन को वशीभूत करके उपासना में निरत होता है, उसके समक्ष वासवी शक्तियां प्रदीप्त हो उठाती हैं.
4. असते - दूसरों के अधिकार, संपत्ति एवं परिक्श्रम की चोरी न करना असते कहलाता है. चोरी नैतिक अपराध है. ऋग्वेद उसके नाश की प्रार्थना कर्ता है.
5. शुद्ध - बाह्य एवं आतंरिक पवित्रता एवं स्वच्छता शौच कहलाती है. ऋग्वेद मानसिक शुद्धि पर ज्यादा जोर देता है, क्योंकि वहां परमात्मा से भावों को पवित्र बनाने के लिये खा गया है.
6. इन्द्रिय निग्रह - पञ्च ज्ञानेन्द्रियों एवं पञ्च कर्मेन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें कुत्सित विषयों से हटाकर सद्विश्यों में लगाना इन्द्रिय निग्रह है. वेदों में अच्छा देखें, अच्छा सुने आदि के भाव परिलक्षित होते हैं.
7. धी: - 'धी:' शब्द का शाब्दिक अर्हत है 'बुद्धि', अर्थात हमें बुद्धि और विवेक के सहारे ही सत्य-असत्य, पाप-पुण्य आदि का विचार कर धर्माचरण करना चाहिए. ऋग्वेद में भी 'धियो यो नः प्रचोदयात अर्थात ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाए, जैसी भावनाएं प्राप्त होती हैं.
8. विद्या - अविद्या का नाश या विद्या की प्राप्ति धर्म का साधन है. वेदानुसार विद्या मनुष्यों की बुद्धि को प्रकाशित करती है. महोअर्ण - धियो विश्वा विराजति।
9. सत्य - सत्याचरण धर्म का प्रमुख लक्षण है, इसलिए सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग धर्म का लक्षण माना है. वेद में इसे ऋत भी कहा गयाः है. ऋग्वेद के अनुसार राष्ट्र की प्रतिष्ठा का आधार ऋत ही है. "
10. आक्रोश - राग द्वेशादी के वशीभूत होकर किसी पर क्रोध न करना धर्म का दसवां लक्षण है 'उलूकयांतु शुशुलूकयातुं' के माध्यम से उल्लू, भेदिये आदि की वृत्ति को त्यागने का आदेश दिया गया है.
धर्म को आधार बनाकर न केवल ऋग्वेद में अपितु यजुर्वेद, अथर्वेद एवं उपनिषद ग्रंथों में भी प्रचुर ज्ञान प्राप्त होता है. मनुष्य की व्यक्तिगत और सामजिक उन्नति एवं व्यवस्था को बनाए रखें एक उद्देश्य से यजुर्वेद कहता है कि किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और न किसी के धन का लालच करना चाहिए.
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किज्च् जगत्याञ्जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: मागृध: कस्यस्विद्धनम्॥
वाजसनेयी संहिता में धर्म निश्चित नियम और आचरण नियम अर्थों में प्रयुक्त हुआ है.
अथर्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग धार्मिक क्रिया एवं संस्कार से अर्जित गुण के अर्हत में प्रयुक्त हुआ है. इसके अतिरिक्त अथर्वेद से ही हमें विविध मानवीय धर्मों की भी शिक्षा प्राप्त होती है.
छान्दोग्योपनिषद में सबके प्रति उद्दार विचार रखना, किसी से भी अशिष्ट व्यवहार न करना, विद्वानों का अनादर न करना जैसे उदात्त भावों का उल्लेख धर्म के रूप में मिलता है.
धर्म का हमारे जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष से सीधा संबंध है, जैसा कि कहा भी है.
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान॥
इस प्रकार वैदिक धर्म मानव समाज की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति कर उसे सुख, शांति एवं परमानंद प्राप्ति कराने वाले कर्मों का नाम है.
अर्थ
जीवन का द्वितीय पुरूषार्थ अर्थ धन और भौतिक कल्याण से सम्बंधित है. अर्थ से अभिप्राय है विद्या और क्षमता के अनुसार परिक्श्रम से धन प्राप्ति और धर्म के अनुसार उसका उपयोग एवं उपभोग. अर्थ से तात्पर्य धन-संपदा के साथ-साथ प्रयोजनादी भी लिया गया है. श्रुतियां भी अर्थ का निषेध नहीं करती है. इसी कारण ब्रह्मा, विष्णु भी हिरण्यगर्भ और लक्ष्मीश होते हुए भी श्रेष्ट रूप को धारण करते हैं.
वेद में कहा गया है कि वैदिक आर्य
काम
मानव जीवन को उदात्त एवं संयमित बनाने के लिये काम रूप तीसरे पुरूषार्थ की स्थापना की गई. काम एक जैविक प्रवृत्ति है जो मानव स्वभाव में प्रधान होती है. यदि मनुष्य को उसके संवेगात्मक जीवन से वंचित कर दिया जाए तो वह जंगलियों के समान आचरण करने लगेगा. यह स्थिति उसके शारीरिक एवम मानसिक स्वास्थ्य के लिये लाभकारी नहीं होती. अतः काम मानावे जीवन हेतु अनिवार्य पुरूषार्थ है जिसकी पूर्ती के लिये हमारी संस्कृति में गृहस्थाश्रम का विधान किया गया है. काम का सामान्य अर्हत उन सब इच्छाओं से है जिनकी पूर्ती करके मनुष्य सांसारिक सुख प्राप्त कर्ता है. काम के माध्यम से मनुष्य की सौन्दर्य प्रियता की प्रत्ति तुष्ट होती है.वस्तुतः देखा जाए तो काम और अर्थ साधन हैं, साध्य नहीं. वेदों में काम को सारी सृष्टि का मूल कहा गया है. ऋग्वेद में इसे मन का प्रथम तेतास कहा गया है जो आरम्भ से ही विद्यमान था.
ऋग्वेद में काम के माध्यम से'बहु स्याम बहु प्रजायेयम' इस रूप में आत विस्तार की कामना की गई है. वेद के अनुसार पति-पत्नी को एवं संयमशील विद्वान् को उपयुक्त अवस्था में काम भाव प्राप्त होता है. ऋग्वेद का अगस्त्य - लोपामुद्रा आख्यान भी काम रूप पुरूषार्थ को पुष्ट करता है.
हमारा प्रथम पुरूषार्थ धर्म है, परन्तु उपनिषदों के अनुसार धर्मपालन के लिये संतति आवश्यक थी. यही कारण था कि गृहस्थाश्रम को सर्व आश्रमों में श्रेष्ठ आश्रम माना है. स्नातक बने सिष्य को उपदेश देते हुए आचार्य स्पष्ट रूप में कहते हैं कि प्रजा रूपी तंतु को कभी विचिन्न मत करना. बृहदारणयकोपनिषद में स्पष्ट उल्लिखित है कि जैसे कोई अपनी प्रिय पत्नी से मिलते हुए बाहर के जगत में कुछ नहीं जानता और न आतंरिक जगत को ही जानता है, उसी प्रकार प्राग्य आत्मा से जुडा हुआ पुरूष न बाहर की वास्तु जानता है और न ही अंदर की किसी वास्तु को.
बृहदारणयक उपनिषद में रति को सबसे बड़ा आनंद माना है एवं उसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा है.
मोक्ष
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