04 मई 2012

मुगालते अपने अपने


रूठे चेहरे अब हँसते नजर आते हैं,
बंजर वीरानियाँ भी खिलते गुलज़ार नजर आते हैं।

कोई कसर न छोडी जिन्होंने दुश्मनी निभाने में,
शुक्र है, अब उन्हीं से दोस्ती के आसार नजर आते हैं।

ताउम्र हम जिन की याद में तड़पते रहे, 
शाम ए सहर क्या बात है, वे भी आज बेकरार नजर आते हैं।

गमे मुफलिसी में जिंदगी गुजारी हम ने,
आज सपने खुशियों के बेशुमार नजर आते हैं।

उन से नजरें जो मिलीं, खिल उठा नसीबा अपना,
महफिलें ऐसी सजीं कईं त्योहार नजर आते हैं।

अपने मतलब के लिए हर किसी ने रिश्ते बनाए हम से,
शायद इस जहां में हम ही उन्हें बेकार नजर आते हैं।
                                                                 
       - एस. अहमद 




2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन प्रस्तुतियां।आभार

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  2. अच्‍छा लगा, कुछ इसी तरह से गुजर रहे हैं हम अपनी बात किससे कहे हम जब याद उनकी आती है, तो मुस्‍कुरा देते है और अकेले में रो देते है

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