15 अगस्त 2011

भारतवर्ष का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम और उर्दू


यह एक सर्वविदित तथ्य है कि किसी भी देश को गुलामी के बंधन से मुक्ति दिलाने में उस देश की भाषा और वहां के साहित्य का बहुत बड़ा योगदान होता है। भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का यदि अवलोकन किया जाए तो यह देखकर सुखद अनुभूति होती है कि यहाँ की विभिन्न भाषाओं के कवियों एवं साहित्यकारों ने कलम से तलवार का काम लेकर देशवासियों को यह प्रेरणा दिलाई कि अंग्रेजों को, जिन्होंने जबरदस्ती उनके देश पर कब्जा करके उन्हें परतंत्रता की बेड़ियों में जकड रखा है, देश से निकाल बाहर करें और अपनी मातृभूमि को विदेशी आधिपत्य से मुक्ति दिलाने के लिए किसी भी प्रकार की आहुति देने में संकोच न करें।

जिस समय देश में स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चल रहा था, उस समय भारतीय भाषाओं में उर्दू एक ऐसी भाषा थी जो देश के कोने-कोने में समझी और बोली जाती थी. उर्दू के शायरों और साहित्यकारों ने भी देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझा और उसका निर्वाह भी किया. यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी की उर्दू ने पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास को अपने आप में समाहित कर लिया है। यदि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू भाषा के योगदान को ही लिपिबद्ध किया जाए तो केवल यही अवलोकन कई वृहद ग्रंथों पर आधारित होगा।
उर्दू के कवि और साहित्यकार देशवासियों के ह्रदय में अंग्रेजी के प्रति विरोध की भावना भड़काने की चेष्टा उसी समय से कर रहे थे जब से अंग्रेज व्यापार के बहाने इस देश पर अपना अधिकार जमाने का प्रयास कर रहे थे। आसिफुददौला की मृत्यु के बाद अंग्रेज किस प्रकार अपने अधिकारों को विस्तृत करने लगे इस तथ्य से देशवासियों को अवगत कराते हुए अकबर अली खां 'अकबर' ने अपनी मसनवी 'सारा मुल्क तहोबाला' में कहा:-

बस इसमें असिफुददौला ने रहलत 
जूँ ही की वूँ ही सर पर आई आफत 
तहो बाला हुआ वह मुल्क सारा
दखील इसमें हुआ आकर नसारा 
यह वीरा आह हिन्दोस्तान हुआ सब 
जहाँ सारा फिरगिस्तान हुआ सब    

उस समय देश की स्थिति क्या थी इस पर शाह कमालुद्दीन 'कमाल' ने इस प्रकार प्रकाश डाला:-
वही यह शहर है और वही यह हिन्दोस्तां
कि जिसको रश्के जिना जानते हैं सब इन्सां
फिरंगियों की सो कसरत से हो सब वीराँ
नजर पड़े हैं बस अब सूरते फिर्गिस्तान 
नहीं सवार या सिवाए तुर्क सवार 
जहाँ की नौबतो शहनाई झांझ की थी सदा 
फिरंगियों का है उस जा पे टमटम अब बजता 
इसी से समझो रहा सल्तनत का क्या रूतबा 
हो जब कि महल सराहो में गौरों का पहरा 
न शाह है न वजीर अब फिरंगी है मुख्तार
न होवे देख के क्यों कर दिल अपना अब मगमूम
हो जब कि जाए हुआ आज आश्यानाएं बूम
वह चहचहे तो बस इस मुल्क में हैं सब मादूम 
फिरंगियों के जो हाकिम थे हो गए महकूम
तो हम गरीबों का फिर क्या है या कतारो-शुमार।

की उर्दू शायरों को यह दुःख था उनकी मातृभूमि विदेशियों के कब्जे में है और फिरंगी दोनों हाथों से उनके देश की धन संपत्ति लूट कर उन्हें कंगाल बना रहे हैं। उनकी रचनाओं में अंग्रेजों के आधिपत्य से मुक्ति पाने की जो छटपटाहट है उसे भलीभांति महसूस किया जा सकता है-
है दुश्मन दकन वह कुलह पोश जिसने फैज
गारत किया है तख़्तए हिन्दोस्तान को 
                                 (शमसुद्दीन "फैज" हैदराबादी)
हिन्दोस्तां की दौलतों-हशमत जो कुछ कि थी 
जालिम फिरंगियों ने बतदबीर खींच ली
                                 ("मुसहफ़ी")
दिल मुल्क अंग्रेज़ी में जीने से तंग है
रहना बदन में रूह को कैदे फिरंग है 
                                 ("नासिख")
हवाए दहर अगर इन्साफ पर आये तो सुन लेना
गुलो बुलबुल चमन में होंगे बाहर बागबां होगा
                                 ("आतिश")
अंग्रेजों के विरूद्ध पकता हुआ नफरत का लावा 1857 में ज्वालामुखी बन कर फूटा तो उर्दू का शायर मूकदर्शक नहीं बना रहा। उसने अंग्रेजों के विरूद्ध अपनी भावनाएं खुलकर व्यक्त कीं, जिसकी उसे सजा भी मिली, किसी ने अंग्रेजों के अत्याचार सहे तो कैद की काल कोठरी किसी का ठिकाना बनी. बहुत बड़ी संख्या ऐसे शायरों की भी थी जिन्हें इस हंगामें में अपनी जान तक से हाथ धोना पडा। जिन शायरों ने उस समय अपनी जान गंवईं उनमें मिर्जा अब्बास बेग बरेलवी "अब्बास" और बदरूल इस्लाम अब्बासी बदायूनी मशहूर थे। अब्बास बेग बरेलवी 'अब्बास' ने 1857 में बाँदा के नवाब का साथ दिया था। जिस शेर के कहने पर उन्हें फांसी की सजा हुई वह शेर था:-
अख्तर झपक गए तेरे खालों के सामने
गोरों के पाँव उठ गए कालों के सामने 
बदरूल इस्लाम अब्बासी बदायूनी की जो नज्म उनकी मौत का कारण बनी उसका एक मिसाल था:
सर कंपनी का कट के बिका एक आने में
1857 के स्वतन्त्रता आन्दोलन में उर्दू के शायरों ने अपनी कविताओं से आन्दोलनकारियों का उत्साह-वर्धन भी किया। 2 अगस्त को बहादुर शाह ने एक ऐसी ही रचना वख्त खाँ को लिख कर भेजी, जो 3 अगस्त 1857 के "सादिकुल" अखबार में प्रकाशित हुई। 1 अगस्त 1857 को बकरीद का त्यौहार था, अंग्रेजों ने प्रयास किया की किसी प्रकार इस अवसर पर दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगा हो जाए लेकिन बहादुर शाह ने अपनी कूटनीति से अंग्रेजों की इस साजिश को नाकाम कर दिया। यह बात अंग्रेजों ने अपनी चिट्ठियों में भी स्वीकार की. एक और तो बहादुर शाह जफ़र ने ऐसे फरमान जारी किए जो हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों को प्रगाढ़ करने में सहायक सिद्ध हुए तो दूसरी तरफ उन्होंने अपनी कविताओं से आन्दोलनकारियों का उत्साह भी बढाया - 
लश्करे आदा इलाही आज सारा क़त्ल हो
गोरखा गूजर से लेकर ता नसारा क़त्ल हो
आज का दिन ईद-ए-कुर्बान का जभी जागेंगे हम 
ऐ जफ़र तहे तेग जब कातिल तुम्हारा क़त्ल हो
इसी सम्बन्ध में मुंशी गुलाम अली मुश्ताक ने भी दो कते कहे जो 3 अगस्त के ही 'सादिकुल' अखबार में प्रकाशित हुए:
ईद हर साल तुम्हें तहानियत आमेज रहे
गर्के खून जाने उर्दू खंजरे खूँ-रेज रहे  
क़त्ल कुफ्फार हों और फतह मुबारक हों जफ़र
नाम को भी न जहाँ में सरे अंग्रेज रहे
जिस समय प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था उस समय मुहम्मद हुसैन आजाद ने एक नज्म 'तारीखे इन्कलाब इबरत 'अफ्जा' कही जिसकी एक-एक पंक्ति अंग्रेजों से नफरत के जहर में बुझी थी-
है कल का अभी जिक्र कि जो कौन नसारा
थी साहबे इक्बालो जहाँ बख्शो जहाँ दार 
थी साहबे इल्मो हुनर हिवमतो फितरत  
थी साहबे जाहो हशम लश्करे जर्रार 
सब जौहरे अक्ल उनके रहे टाक पे रखे
सब नाखुने तदबीर खिरद हो गए बेकार 
उर्दू को यह श्रेय भी प्राप्त है कि इसी भाषा में भारत का पहला कौमी तराना लिखा गया जिसे नाना साहब के सहयोगी अजीमुल्ला खाँ ने लिखा था। यह तराना ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में सुरक्षित है। यह तराना उस समय के अखबार 'पयामे आजादी' में प्रकाशित हुआ, जिसमें 1857  के स्वतंत्रता संग्राम से सम्बंधित साहित्य प्रकाशित होता था। देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत इस तराने के कुछ शेर प्रस्तुत हैं:
हम हैं इसके मालिक हिन्दोस्तां हमारा
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा
कितना कदीम कितना नईम सब दुनिया से न्यारा 
करती है जरखेज जिसे गंगोजमन की धारा 
इसकी खानें उगल रही हैं सोना हीरा पारा
इसकी शानों शौकत का दुनिया में जैकारा
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा 
लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा
आज शहीदों ने हैं तुमको अहले वतन ललकारा 
तोड़ गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा 
हिन्दू मुस्लमाँ सिख हमारा भाई-भाई प्यारा 
ये है आजादी का झण्डा इसे सलाम हमारा       

1857  में उर्दू के शायरों ने अपनी कविताओं से भारतवासियों के ह्रदय में देश प्रेम की भावना जगाई तो उलेमाओं ने अपने फताबों और पंडितों ने अपने उपदेशों से देशवासियों के दिलों में अंग्रेजों के प्रति घृणा की ज्वाला धधकाई। अंग्रेजों के विरोध दी गए फतवों की जबान भी उर्दू ही थी। बख्तखां बरेली से दिल्ली आए तो उन्होंने एक फतवा लिखवा कर वितरित करवाया। इस फतवे पर चौंतीस उलेमाओं के हस्ताक्षर थे। 1857 में न केवल दिल्ली वरन देश के दूसरे भागों में फतवा प्रकाशित कराकर लोगों को लड़ाई में भाग लेने के लिए प्रेरित किया गया। अंग्रेजों ने फतवा जारी करने वाले उलेमाओं पर जमकर गुस्सा निकाला। मौलवी लियाकत अली जिन्होंने इलाहबाद में और मौलवी इनायत अली जिन्होंने रूहेलखण्ड में अंग्रेजों के विरूद्ध फतवा दिया, इन दोनों को स्वंतंत्रता संग्राम कुचलने के बाद काला पानी भेज दिया गया।

अंग्रेजों के विरूद्ध विरोध की भावना उन एलानों और पोस्टरों ने भी भड़काई जो प्रकाशित करके देश के विभिन्न भागों में वितरित किए गए या जगह-जगह चिपकाए गए। इन पोस्टरों की भाषा भी उर्दू थी। ये इश्तेहार गुप्त रूप से लगाए जाते थे और लगाने वाले पकड़ में भी नहीं आते थे। इसका कारण यह था की इस प्रकार की गतिविधियों में स्वयं पुलिस भी मिली होती थी। लखनऊ में लगाए गए एलान में लिखा था-
"हिन्दू, मुसलामानों मुत्तहिद (एकजुट) होकर उठो और एक ही बार मुल्क की किस्मत का फैसला कर दो क्योंकि अगर मौक़ा हाथ से निकल गया तो तुम्हारे लिए जान बचाने का भी मौक़ा हाथ न आएगा। ये आख़िरी मौक़ा है, अब या कभी नही"

इसी प्रकार मद्रास में भी अंग्रेजों के खिलाफ नफरत का प्रचार एक एलान के द्वारा किया गया। इसके बारे में मशहूर हुआ कि इसे मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने प्रकाशित कराया था। इस एलान में लिखा था-

"देशवासियों और धर्म के मानने वालो तुम एक साथ उठो फिरंगियों को बर्बाद करने के लिए, जिन्होंने हमारे मुल्क को ख़ाक में मिलाने का इरादा किया है। सिर्फ एक ही इलाज है और वह यह कि रक्त-रंजित जंग की जाए। यह आजादी के लिए जिहाद है - यह हक़ और इंसाफ़ के लिए धर्म युद्ध है"

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू ने पग-पग पर साथ दिया। दिल्ली पर आन्दोलनकारियों का कब्जा हुआ तो लोकतंत्र पर आधारित एक कोर्ट का गठन हुआ। इस कोर्ट का क़ानून उर्दू में ही प्रकाशित किया गया आन्दोलनकारियों ने एक दूसरे से फ़ौजी सहायता प्राप्त करने के लिए जो पत्र भेजे उनकी भाषा भी उर्दू थी। प्रस्तुत है ऐसे ही एक पत्र का अंश जिसे धार के आन्दोलनकारियों, शाहजादा फिरोजशाह के नाम भेजा गया था-

"हमारे और अंग्रेजों के बीच लड़ाई हो रही है, जिसमें हम हार गए हैं। हमने धार के इलाके में पनाह ली है। आप हमें दो हजार से लेकर तीन हजार फ़ौज से मदद दीजिए, ताकि हम सफलता प्राप्त कर लें, खुदा के लिए पत्र देखते ही सहायता भेज दीजिए-हम क्या लिखें हमारी हार-हार है।"

दुर्भाग्यवश यह पत्र शहजादा फिरोजशाह तक नहीं पहुँच सका और इसे नवाब जावरा के आदमियों ने पकड़ लिया, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के वफादार थे, इसे इन्होने इंदौर में ब्रिटिश रेजिडेंट को सौंप दिया।

जिस समय खान बहादुर खान गिरफ्तार हुए उस वक्त अंग्रेजों ने उनके पास से 36  कागजात बरामद किए जिनकी भाषा उर्दू थी इनमें के पत्र बहादुर शाह का था, जिसे पढ़कर अंग्रेज आश्चर्यचकित रह गए की यह ख़त इतनी देखभाल के बाद खान बहादुर खान तक किस प्रकार पहुंचा। इन्हीं पत्रों में से एक पत्र हजरत महल का भी था जिसमें हजरत महल ने खान बहादुर खान से सहायता माँगी थी।

1857 में असंख्य आन्दोलनकारियों ने फांसी के फंदे को गले में डालने से पूर्व अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अपने ह्रदय के उदगारों को इसी भाषा में व्यक्त किया। नादिर खाँ जो नाना साहब के निकटतम साथी थे उन्हें जब फांसी के लिए ले जाया जाने लगा तो उन्होंने अपने देशवासियों को इन शब्दों से संबोधित किया :
अपनी तलवारें उस वक्त तक म्यान में न करना, 
जब तक अंग्रेजों को ख़त्म करके आजादी न प्राप्त हो जाए।
1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन में उर्दू के प्रेम और अखबार का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा। उर्दू के कवियों और साहित्यकारों की तरह उर्दू के पत्रकारों ने भी इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और इसके लिए उन्होंने कठोर यातनाएं भी सहन की।

अंग्रेजों ने ऐसे प्रेस और उनके मालिकों पर जमकर गुस्सा निकाला जिन्होंने 1857  के आन्दोलन में किसी भी प्रकार से हिस्सा लिया था। "देहली उर्दू अखबार" के एडीटर मौलवी मुहम्मद बाकर को गोली मार दी गयी। "सादिकुल अखबार" के एडीटर जमीलुद्दीन को तीन साल के कठोर कारावास का दंड मिला और उनकी जायदाद जब्त कर ली गयी। कलकत्ता के अखबार "गुलशने नौबहार" की प्रेस को भी अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। अंग्रेजों के विरूद्ध भावनाएं भड़काने में जिस प्रेस की भूमिका सबसे अधिक सराहनीय रही वह था बरेली का "बहादुरी प्रेस"। इस प्रेस के संस्थापक मौलवी क़ुतुब शाह ने 'बहादुरी प्रेस' की स्थापना 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की थी। 1857 का हंगामा हुआ तो कुतुबशाह बरेली कालेज में उर्दू फारसी के अध्यापक थे, उन्होंने इस लड़ाई में भाग लेने के लिए बरेली कालेज की नौकरी छोड़ दी और बरेली कालेज लाइब्रेरी और दूसरे सामानों को नीलाम करके उन्हीं पैसों से 'बहादुरी प्रेस' की स्थापना की और रूहेलखंड में 1857 के आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले खान बहादुर खाँ के नाम पर इस प्रेस का नाम "बहादुरी प्रेस" रखा था। इस प्रेस से बड़ी संख्या में अंग्रेज विरोधी इश्तेहार प्रकाशित हुए। बहादुर शाह जफ़र, खान बहादुर खाँ और शाहजादा फिरोजशाह की अपीलें इसी प्रेस  हुईं। खान बहादुर खान के एलान में भारतवासियों को यह प्रेरणा दी गयी कि वे एक जुट होकर विदेशी आधिपत्य से अपनी मातृभूमि को मुक्ति दिलाएं और अंग्रेजों की हर साजिश को नाकाम कर दें।

"हिन्दू, मुसलमान भाइयो तुम्हें मालूम होना चाहिए की अगर तुमने अंग्रेजों को यहाँ रहने दिया तो यह तुम सब को ख़त्म करके तुम्हारे दीन और धर्म को तबाह कर देंगे। हिन्दोस्तानियों को इतनी लम्बी अवधि से अंग्रेज धोखा दे रहे हैं और उन्हीं की तलवार से उनका गला काट रहे हैं। वह फिर फूट डालने का अपना पुराना हथियार इस्तेमाल करेंगे लेकिन हिन्दू भाइयो उनके धोखे में न आना हमें यह बताने की जरूरत नहीं कि अंग्रेज कभी अपने वायदे पूरे नहीं करते। वे चालबाज और विश्वासघाती हैं। इस पवित्र लड़ाई में शामिल हो जाओ एक झंडे के नीचे लड़ो और खून की तलवार नदियों से अंग्रेजों का नाम और निशान हिन्दोस्तान से धो डालो।"

इसी प्रकार शहजादा फिरोजशाह के एलान में, जो इसी प्रेस से प्रकाशित हुआ, भारतवासियों को अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों से सचेत कराकर उन्हें इस बात के लिए तत्पर करने की चेष्टा की गयी कि वे देशहित में अपने तन, मन और धन की आहुति देने में संकोच न करें। स्वयं क़ुतुब शाह ने अपनी ओर से ऐसे एलान प्रकाशित कराए जिनमें अंग्रेजों की 'लड़ाओ ओर हुकूमत करो' की नीति से देशवासियों को होशियार कराने की कोशिश की गयी। अंग्रेजों के विरूद्ध नफरत की भावना भड़काने वाले सभी ऐलानों पर प्रकाशक एवं मुद्रक की हैसियत से मौलवी क़ुतुब शाह का नाम छापा होता था। अंग्रेज अपने ऐसे खुले दुश्मन को भला क्यों माफ़ कर देते रूहेलखंड पर कब्जे के बाद क़ुतुब शाह की तलाश शुरू हुई, वह मेरठ से गिरफ्तार हुए मेरठ से वह बरेली लाए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया। पहले उनके लिए फांसी की सजा देने का फैसला हुआ लेकिन बाद में यह सजा आजीवन कारावास में बदल दी गयी ओर उन्हें अंडमान भेज दिया गया। देशहित में कालापानी की सजा स्वीकार करके सैयद क़ुतुब शाह ने उर्दू साहित्य के इतिहास में ही नहीं वरन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में भी अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करा लिया।

जिस भाषा ने मातृभूमि के मस्तक से गुलामी का दाग छुड़ाने के लिए इतना महत्वपूर्ण योगदान दिया उसके इतिहास का अवलोकन किए बिना कुछ लोग इसे देश को तोड़ने वाली भाषा का आरोप मढ़ कर इसे तिरस्कृत करने की चेष्टा करते हैं, कुछ तो इसे वर्ग विशेष की भाषा बताकर लोगों को दिग-भ्रमित करने का कार्य करते हैं। जबकि उर्दू भाषा का इतिहास यह सिद्ध करता है कि इसने दिलों को तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम किया है इकबाल के शब्दों में उर्दू का कवि तो इस बात के लिए प्रतिज्ञाबद्ध था की
 पिरोना एक ही तस्बीह में इन बिखरे दोनों को 
जो मुश्किल है तो इस मुश्किल को आसाँ करके छोडुंगा 
उर्दू भाषा पर लगाया गया यह आरोप भी निराधार है कि यह ख़ास वर्ग या धर्म की भाषा है क्योंकि इसे सजाने संवारने ओर निहारने में हर वर्ग ने बराबर का योगदान दिया है। इस भाषा ने, जिसका जन्म ही इस देश में हुआ, एक भारतीय भाषा होने की हैसियत से अपने कर्तव्य को समझा भी है ओर निभाया भी है। भारतवर्ष के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू भाषा का योगदान देश की किसी भी दूसरी भाषा की तुलना में किसी प्रकार से कम नहीं है।