13 अगस्त 2011

प्रखर व्यक्तित्व के धनी संत कबीर


संत कबीर ने अपनी एक साखी में लिखा है की संतों का लक्षण उनका निर्वैर और निष्काम होना, प्रभु प्रेम में मग्न और विषयों से विरक्त होना है -
नीरवैरो निहकामता साईं सेतो नेह।
विषयां सू न्यारा रहे संतान को अंग एह।।

इसी भाव से चौथे गुरू, गुरू रामदास ने व्यक्त करते हुए कहा था की जिसे श्वास-प्रश्वास में अपने ह्रदय से हरि का नाम विस्मृत नहीं होता, वह धन्य है, वही पूर्ण संत है -
जिना सासि गिरासि न वीसरै हरिनाम मणि मंत।।
धंनु सि सोई नानका पूरण सोई संत।।

 आदि ग्रन्थ में संग्रहीत 15 संत कवि विभिन्न प्रदेश, विभिन्न परिवेश, विभिन्न संस्कारों, विभिन्न समय में अवतरित व्यक्ति थे, फिर भी उनमें अनेक बातों में वैचारिक और मानसिक एकता थी। इन संतों को उनकी विचारधारा के अनुसार निर्गुण और सगुण में बांटने की प्रथा उतनी ही प्राचीन दिखती है। अधिसंख्य संतों का आग्रह परमात्मा के निर्गुण स्वरुप की ओर था। वे अवतारवाद के विरोधी थे। मूर्तिपूजा का खंडन करते थे, वर्ण व्यवस्था और जात-पात में उनका विशवास नहीं था। सगुणवादी धारा परम्परागत वैष्णव धारा से जुडी हुई थी। उसके प्रस्तोता अधिकतर सनातनी ब्रह्मण थे। निर्गुण संतों में अब्राह्मणों का बाहुल्य था। उनमें अत्यंत जातियों के ऐसे भक्त भी थे जिन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था समान पूजन का अधिकार नहीं देती थी। अवतारों की मूर्तियों से सज्जित मंदिर में उनका प्रवेश निषिद्ध था। मंदिर के बाहर खड़े रहकर उसके कलश मात्र के दर्शन से ही संतुष्ट हो जाना ही उनकी सीमा थी।

परमेश्वर की निर्गुण-निराकार अवधारणा उन्हें वर्ण और ऊंच-नीच की सीमाओं से मुक्त कर देती थी। सर्व्यापी, घट-घट वाली ब्रह्म की प्राप्ति के लिए उन्हें किसी मंदिर, किसी पुरोहित, किसी कर्मकांड, किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं थी। संत कबीर ने इस विभेद को अनेक स्थलों पर रेखांकित किया है -
जानसि काठ कथसि अयाना
हम निर्गुण तुम सरगुण जाना


माध्यमयुग के भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ दक्षिण के द्रविड़ प्रदेश से हुआ माना जाता है। यह भी कहा जाता है की उसे उत्तर में स्वामी रामानंद लाए और संत कबीर ने उसे चतुर्दिक फैला दिया -
भगती द्राविड ऊपजी लाए रामानंद
परगट किया कबीर ने सात दीप नव खंड 

आदि ग्रन्थ में संग्रहीत 15 संतों की वाणी में सबसे अधिक रचनाएं संत कबीर की हैं - 292 पद और 249 श्लोक। इनका योग 541 है। भारतीय साहित्य में कबीर का अनन्य स्थान है। जीवन भर काशी में रहकर वे कट्टर ब्राह्मणों और मुल्लाओं से जूझते रहे और उन्हें खरी-खोटी सुनाते रहे। उस समय परंपरागत मान्यता यह थी की काशी मोक्ष का द्वार है और उसके पास का नगर मगहर इस बात के लिए अभिशप्त है की वहां जिसकी मृत्यु होती है वह नरक का भागी होता है। संत कबीर ने इस चुनौती को स्वीकार किया था। जीवन भर काशी में रहकर वे अंत समय में मगहर चले गए थे। आदि ग्रन्थ में शामिल उनकी रचनाओं में ऐसे संकेत हैं-
अब कहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई थोरी।।
सगल-जनम शिवपुरी गवाया।।
मरती बार मगहरि उठि धाया।। 

संत कबीर के सम्बन्ध में यह बहुप्रचलित चर्चा है कि वे एक विधवा ब्रह्माणी के पुत्र थे। लोक लाज के डर से माँ ने उन्हें त्याग दिया था। उनका पालन-पोषण नीरू नाम के एक मुसलमान जुलाहे ने किया था। उनका परिवेश इस्लामी परिवेश था, इस बात का संकेत संत रविदास ने भी किया है जो काशी निवासी थे और कबीर के समकालीन थे। रविदास कहते हैं कि जिनके घर के लोग इर्द-बकरीद के अवसर पर गोवध करते हैं, शेख, शहीद और पीर मानते हैं, उन्हीं के पूत ने इसके बिलकुल विपरीत किया। इसी कारण कबीर तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गए-
जो कै ईद कबरीदि कुल गऊ रे बधु करहि
मानीअहि सेख, सहीद, पीरा।।
जा कै बाप वैसी करी, पूत ऐसी सरी।।
तिहू रे लोक परसिध कबीरा।।

मध्ययुगीन धर्म साधना के दो स्वरुप हमारे सम्मुख स्पष्ट से उभरते हैं। एक शास्त्रमार्गी और दूसरा लोकमार्गी। आधुनिक विद्वान् आठवीं शती को भारतीय साहित्य के पूर्व की अंतिम सीमा मानते हैं। आठवीं से अठारवीं शती तक को सामान्यतया मध्ययुग माना जाता है। इस काल के भी दो भाग हैं। आठवीं से तेरहवीं शती तक का काल पूर्व मध्य युग है और तेरहवीं से अठारहवीं शती तक का काल उत्तर मध्य युग है।

पूर्व मध्ययुग (गुप्तकाल) में हिन्दू धर्म का जो स्वरुप विक्सित हुआ था उसमें पूर्ववर्ती आर्य ग्रंथों को अकाट्य रूप से मानने के प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गयी थी। वेदों को स्वतः प्रमाण मानने के आग्रह से यह बद्धमूल हो गयी और वेदविरोधी सम्प्रदायों को नास्तिक और हेय माना जाने लगा। प्राय सभी सम्प्रदायों के उपास्य देवताओं की मूर्ती कल्पित की गयी और प्रत्येक देवता की शक्ति की भी कल्पना की गई। इन  देवियों और देवताओं की स्तुति में मनोहर काव्य रचे गए। यह चिंतन पूरी तरह शास्त्रमार्गी चिंतन था।

बौद्ध धर्म का चिंतन प्रारम्भ से ही लोकमार्गी चिंतन था। इस काल में यह चिंतन वैदिक-पौराणिक हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी प्रतिरोधी शक्ति था। महाभारत और भगवत आदि ग्रंथों में कलियुग का बड़ा ही चिंताजनक और उद्वेलित करने वाला रूप चित्रित किया गया है। प्रायः प्रत्येक पुराण में इस बात पर आग्रह किया गया है की कलियुग में लोगों का चरित्र पतित हो जाएगा। श्रुति-स्मृति में दिए गए निर्देश मिटने लगेंगे। वर्णाश्रम वयवस्था टूटने लगेगी। शूद्र लोग संन्यास लेकर उच्च वर्णों को उपदेश देने का ढोंग रचेंगे। स्त्रियाँ चरित्रहीन हो जाएँगी। अनेक पुरानों में ज्यों-का-त्यों पाया जाने वाला एक श्लोक मिलता है, जिसके अनुसार कलियुग में वे लोग धर्मोपदेश करेंगे जो शठतायुक्त बुद्धि के होंगे। उनके दांत सफ़ेद होंगे (भ-दन्त) वे जितेन्द्रिय होने का दावा करेंगे तथा मुंडित और काषाय वस्त्र धारण करने वाले होंगे-
शुक्ल दन्ता जिताक्षाशय मुण्डाः काषायावाससः।।
शुद्ध धर्म वदिष्यन्ति शाठ्य बुद्धयोप जीविनः ।। 
ये सभी संकेत बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए हैं। बुद्ध ने शूद्रों को भी सन्यासी बनाकर उपदेश देने की अनुमति दी थी। बौद्ध विहारों में स्त्रियों के प्रवेश को स्वीकार किया गया था। बौद्ध भिक्षु मुण्डित होते थे, काषाय वस्त्र धारण करते थे। भदन्त, बौद्धों में अति सम्मानित व्यक्ति को कहा जाता था। बुद्ध ने वेदों को अपौरूषेय और अकाट्य नहीं स्वीकार किया है। वैदिक धर्मी बुद्ध-दर्शन को नास्तिक दर्शन मानते थे।

उत्तर मध्य युग में शास्त्रमार्गी और लोकमार्गी भक्ति धाराएं समान्तर चलीं और टकराईं भी। सगुण धारा और निर्गुण धारा इनका प्रतिनिधत्व करती हैं। संत कबीर के समय निर्गुण और सगुण भक्तिधारा का टकराव बहुत मुखर हो जाता है। कबीर शास्त्र और ब्राह्मण की प्रभुता को पूरी तरह नकारते हैं। शास्त्र पढने वाले पंडित को संबोधित करते हुए वे कहते हैं - पोथियों को पढ़कर कोई पंडित नहीं हो जाता। जो प्रभु-प्रेम का एक अक्षर पढ़ लेता है, वह पंडित हो जाता है -

पोधी पढि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोइ।
एकै आखर प्रेम का पढै सो पंडित होइ।। 

संत कबीर शास्त्र अध्ययन की उपेक्षा अपने अनुभव, जो उन्होंने लोगों के बीच रह कर प्राप्त किया था, पर अधिक बल देते हैं -
तू कहता कागद की लेखी 
मैं कहता आँखिन की देखी।।

किन्तु शास्त्रमार्गी सगुण कवि यह स्वीकार नहीं करते की श्रुतियों द्वारा निर्धारित मार्ग से कोई विरत हो कर ईश्वर भक्त हो सकता है। वे शूद्रों का तत्व ज्ञानी होना स्वीकार नहीं करते। संत तुलसीदास की मान्यता थी की श्रुतियों ने वर्ण व्यवस्था के माध्यम से सभी वर्णों के धर्म और कर्तव्य निर्धारित कर दिए हैं। उनका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। शूद्रों को ब्राह्मणों से बराबरी का दावा नहीं करना चाहिए।

बादहिं सूद्र द्विजन सन हम तुम ते कछु घाटि।।
जानहि ब्रह्म सो विप्रवर आंखि देखावहि डांटि।। 

एक स्थान पर तुलसीस ने लिखा है -
सूद्र करहि जप तप ब्रत नाना। बैठी बरासन कहहि पुराना।।
सूद्र द्विजन उपदेसहि ज्ञाना। मेली जनेऊ लेई कुदाना।।

संत रविदास ने अपने एक पद में कहा था कि यदि कोई ब्राह्मण गुणहीन न हो तो वह पूज्य नहीं है। यदि कोई चांडाल ज्ञान में प्रवीण हो तो उसके पाँव पखारने चाहिए।

रैदास ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुनहीन।।
पाँव पूज चण्डाल के जो हो ज्ञान प्रवीन।। 

इसके उत्तर में गोवामी तुलासीदार ने कहा है की श्रुतिनीति तो यह है की सबसे पहले ब्राह्मण के पैर पखारने चाहिए। यदि कोई ब्रह्मण शील-गुण हीन हो तो भी वह पूज्य है। उसके सम्मुख यदि कोई शूद्र गुण-ज्ञान में प्रवीन हो तो वह तजे जाने योग्य है -

प्रथमहि विप्रचरन अति प्रीती। निज-निज करम निरत श्रुति नीती।
पूजहिं विप्र सील गुण हीना। तजयि सूद्र गुण ज्ञान प्रवीना।। 

किन्तु निर्गुण संतों में बहुतायत उनकी थी जिन्हें शूद्रों की श्रेणी में रखा जाता था। नामदेव छीपा थे, सैण नाई थे, सदना कसाई थे, रविदास चमार थे, धन्ना जाट थे और कबीर जुलाहा थे। गुरू नानक तथा उनके परवर्ती गुरू सवर्ण समाज के खत्री थे किन्तु उनकी प्रतिबद्धता उन संतों के साथ थी, जिन्हें शास्त्रमार्गी सगुण धारा स्वीकार नहीं करती थी।

मध्ययुगीन संतों में कबीर का अनन्य स्थान है। अपने जीवनकाल और उसके पश्चात अनेक शताब्दियों तक वे भक्ति-संसार पर पूरी तरह छाए रहे। समकालीन संतों में उनकी असीम प्रशंसा भी हुई और एक पक्ष द्वारा उनकी बरसक निंदा भी हुई। स्तुति-निंदा के मध्य किसी की चिंता न करते हुए एक फक्कड़ संत की भांति वे बीच बाजार में अपनी लुकाटी लिए उद्घोष करते रहे-
 कबिरा खडा बाजार में लिए लुकाटी हाथ।। 
जो घर जाले आपना सो चले हमारे साथ।।
 संत कबीर का समय अत्यंत संकट का समय था। तुर्की और पठानों का शासन स्थापित हुए चार सदियों से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। चारों और गहरा अवसस छाया हुआ था। स्वामी वल्लभाचार्य ने इस अवसाद को व्यक्त करते हुए कहा था : 'देश मलेच्छक्रांत है, गंगादि तीर्थ उनके द्वारा भ्रष्ट हो रहे हैं, आशंका और अज्ञान के कारण वैदिक धर्म नष्ट हो रहा है, सत्पुरुष पीड़ित तथा ज्ञान विस्मृत हो रहा है, ऐसी स्थिति में एकमात्र, कृष्णाश्रय में ही जीवन का कल्याण है।' किन्तु संत कबीर को ऐसे विकल्पहीन समर्पण में ही समस्या का पूर्ण निदान नहीं दिखाई दिया था। निराशा भरी स्थिति उन्हें उद्वेलित करती थी, आक्रोश से भरती थी। एक और वे अपने समय के पंडों, पुरोहितों, काजियों, मुल्लाओं को उनके पाखंडपूर्ण चरित्र के लिए खरी-खोटी सुनाते थे, तो दूसरी ओर भविष्य में उभरने वाले किसी संभावित प्रतिरोध और संघर्ष की मनोभूमिका भी तैयार करते थे। संत कबीर के जीवन पर चर्चा करते हुए उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष अनदेखा-सा रह जाता है। कबीर का एक पद है -  
गगन दमामा बाजियों, परयो निताने घाउ।
 खेत जो मंडियों सूरमा, अब जूझन को दाउ।। 
 सूरा सो पहचानी, जू लरै दीन के हेत।
पुरजा-पुरजा कटि मरै, कबहूँ न छाडे खेत।।

इस पद की शब्दावली पूरी तरह वीर रस से भरपूर दिखती है और भक्ति काल के अन्य संतों-भक्तों से बहुत भिन्न दिखाई देती है। यह शब्दावली किसी भी सूरमा को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वह दीन (गरीब और पीड़ित) जनों की रक्षा के लिए युद्ध करे। इस कार्य में चाहे उसके टुकडे-टुकडे हो जाएं, किन्तु वह रणभूमि त्यागने का भाव अपने मन में न आने दे।   

आकाश का नगाड़ों की ध्वनि में गुंजारित होना, शास्त्र-द्वारा ठीक निशाने पर घाव लगाना। सूरमा द्वारा रणभूमि को खेत की भाँती गोडना और उसमें जूझने का अवसर ढूंढना, दीन-दुनियाँ के लिए सूरमा  बनकर लड़ना और
टुकडे-टुकडे होकर मर जाना किन्तु रणभूमि को न छोड़ने के निश्चय पर दृढ रहना - ऐसी आकांशा है जो भक्ति काल की सम्पूर्ण मनोभूमिका से सर्वथा अलग दिखाई देती है। कबीर का व्यक्तित्व बहुत विरल था। उनके समकालीन संत उनसे बहुत प्रभावित हुए थे। अपनी भक्ति की अनंतता पर उन्हें पूरा विश्वास था। इसी विश्वास के आधार पर उन्होंने कहा था की जीवन रूपी सफ़ेद चादर ऋषियों-मुनियों ने भी ओढी, किन्तु वे भी उसे निष्कलुष नहीं रख सके थे, किन्तु कबीर दास ने उस पर कोई दाग नहीं लगने दिया। उन्होंने उसे पवित्र रख कर प्रभु को वापस कर दिया - 

सो चादर सुन नर मुनि ओढी।
ओढ़ी के मैली कीनी चदरिया।।
दास कबीर जतन से ओढी।
ज्यों का त्यों धर दीनी चदरिया।।