सुख में सुमिरन न किया, दुःख में किया याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद।। - संत कबीरसुख में तो कभी याद किया नहीं और दुःख में याद करने लगे, कबीरदास कहते हैं की उस दास की प्रार्थना कौन सुने।
विमर्श - हमारे अन्दर प्रार्थना सदैव सुखी परिस्थितियों में ही उत्पन्न होती है, सुख के समय तो हमें इश्वर की याद ही नहीं आती। समस्या यह है की दुःख का स्वभाव परमात्मा के स्वभाव से बिलकुल मेल नहीं खाता क्योंकि दुःख तो उससे ठीक विपरीत दशा है, फिर दुःख में इश्वर को इसलिए याद किया जाता है ताकि दुःख हट जाए यानी वह परमात्मा की याद नहीं है, सुख की याद है, सुख की आकांशा है। जब हम दुःख में इश्वर को पुकारते हैं तब उसे नहीं सुख को पुकारते हैं इसलिए जब सुख मिल जाता है तो इश्वर विस्मृत हो जाता है क्योंकि अब उसकी क्या जरूरत रही। सुख की आकांशा से प्रार्थना का कोई सम्बन्ध नहीं होता बल्कि सुख में की गयी प्रार्थना में ही परमात्मा की आकांशा होती है और जब हम उसी के लिए प्रार्थना करते हैं तभी प्रार्थना सुनी जाती है, अन्यथा नहीं। कवि रहीम ने कहा है- 'बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून '। परमात्मा के द्वार पर जो बिना मांगे खडा हो जाता है उसे सब मिल जाता है, मोती बरस जाते हैं और जो भिखारी की तरह खडा होता है उसे कुछ नहीं मिलता। कहने का तात्पर्य यह है की प्रार्थना में मांग नहीं होना चाहिए क्योंकि मांग रहित धन्यवाद रूपी प्रार्थना ही इश्वर तक पहुँचती है। दुखी व्यक्ति बिना मांगे प्रार्थना कर नहीं सकता और फिर दुखी अवस्था में हम सिकुड़ जाते हैं और परमात्मा है विस्तार, जो फैला हुआ है सब ओर इसलिए दुखी व्यक्ति और परमात्मा के बीच कोई तालमेल नहीं बैठता। हिन्दू संस्कृति में परमात्मा के लिए 'ब्रह्म' शब्द को चुना गया है जिसका अर्थ होता है विस्तीर्ण; जो फैलता ही चला जाता है। सिर्फ सुखी अवस्था ही ऐसी होती है जिसमें हम थोड़ा फैलते हैं यानी बहुत ही छोटे अर्थों में हम परमात्मा जैसे हो जाते हैं। यही यह अवसर है जब प्रार्थना की जा सकती है या की जानी चाहिए क्योंकि इस संसार में सुख झलक है परमात्मा की और जब उसकी झलक मिले तभी पुकारना उचित है क्योंकि वह कहीं आसपास ही है। जब भी इस झलक से हम भरें यानी सुख और आनंद का अनुभव हो वही अवसर प्रार्थना करने का सही अवसर होता है।
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