हमारे जीवन में जब भी कष्ट या दुःख आते हैं या जब हम अपने आसपास इस दुनिया के लोगों को कष्टों या दुखों से त्रस्त देखते हैं तब अक्सर हमारे मन-मस्तिष्क में यह विचार आता है कि परमात्मा यह क्या कर रहा है। परमात्मा है भी या नहीं, क्योंकि अगर दुनिया में इतना दुःख और कष्ट है तो परमात्मा नहीं हो सकता और अगर परमात्मा है तो लोग इतने कष्ट और दुखों से पीड़ित कैसे हो सकते हैं। यदि परमात्मा दयालु है, रहमान है, रहीम है, कृपालु है और परम पिता है तो वह कैसे अपने बच्चों को दुखों और कष्टों में डाल सकता है, देख सकता है। इसी तर्क के कारण नास्तिक लोग परमात्मा के अस्तित्व को ही नकार देते हैं, क्योंकि अगर दुनिया में इतने दुःख और कष्ट हैं तो शैतान का अस्तित्व तो हो सकता है पर भगवान् का अस्तित्व नहीं हो सकता। जब माता-पिता , अपने बच्चों को ना तो दुःख दे सकते हैं और ना ही उन्हें दुख में देख सकते हैं तो फिर यह परमात्मा तो परमपिता है वह अपने बच्चों को कैसे इतने दुःख दे सकता है और उन्हें दुःख में देख सकता है?
असली बात जानने के लिए यहाँ क्लिक करें. हमारी दृष्टि और हमारा दृष्टिकोण दुखों और कष्टों से विचलित हो हमें ऐसा विचारने पर मजबूर कर देते हैं। अच्छे और जिम्मेदार माता-पिता भी अपने बच्चों को उसी तरह कष्ट और दुःख में डाल देते हैं जिस तरह वह परमपिता परमात्मा अपने दुनियाभर के बच्चों को कष्ट और दुःख देता है। बच्चे अगर कुछ गलत कार्य करने को अग्रसर होते हैं या कार्य कर देते हैं तो माता-पिता उन्हें डांटते ही नहीं मारते भी हैं। बच्चों की सुरक्षा, उनका समुचित विकास, उनके जीवन को सही दिशा देने और उनके भविष्य को सुनिश्चित रूप से सुखी और सम्पन्न बनाने के लिये माता-पिता को अपने बच्चों को कष्ट और दुःख में डालना ही पड़ता है। क्या इसका अर्थ यह होगा कि वे माता-पिता हैं ही नहीं या वे शैतान हैं, कदापि नहीं। ऐसे ही परम पिता परमात्मा अपने बच्चों को बिना वजह कष्ट या दुःख नहीं देता। यह दुःख या कष्ट हमारे निखार के लिये होता है। यह औषधि रूप होता है और औषधियां तो कडवी ही होती हैं। जैसे एक स्वर्णकार जब सोने को आग में तपाता है तो उसका यह कष्ट ही उसे निखार कर इस योग्य बना देते हैं कि वह वस्त्र बन किसी सम्राट के अंग जा लगता है। दरअसल दुःख और कष्ट के बिना कोई भी निखरता नहीं।
जिस कष्ट या दुःख को हम सहना नहीं चाहते और अस्वीकार कर देते हैं वह हमारे जीवन को तोड़ने लगता है जिस कष्ट या दुःख को हम स्वीकार कर लेते हैं, अंगीकार कर लेते हैं उससे हमारा जीवन निर्मित होने लगता है यानी कष्टों या दुखों को स्वीकारने से वे कष्ट या दुःख, जो हमारा विध्वंस कर सकते थे, सृजनात्मक हो जाते है। हमारे जीवन के कष्टों एवं दुखों का सकारात्मक उपयोग(स्वीकार) कर परमपिता में असीम श्रद्धा रखते हुए हमें धैर्य और साहस के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए ताकि सोने और कपास की तरह हम भी अपने आप को निखार कर इस दुनिया में अपनी उपयोगिता और श्रेष्ठा सिद्ध कर सकें। इस सन्दर्भ में वृन्द्कवि कहते हैं।
कष्ट परेहूँ साधुजन, नैकु न होत मलान।
ज्यों ज्यों कंचन तैये, त्यों-त्यों निर्मल जान॥
ज्यों ज्यों कंचन तैये, त्यों-त्यों निर्मल जान॥
अर्थात सत्पुरुष कष्ट में भी दुखी नहीं होते हैं। सोना त्यों त्यों निर्मल होता है, ज्यों ज्यों उसे तपाया जाता है।
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