भारतीय संस्कृत विभिन्न मान्यताओं, परम्पराओं, विश्वासों और सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों से परिपूर्ण है। इसके सामान कोई अन्य मिसाल सम्पूर्ण विश्व में मिलना मुश्किल है। इसी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है स्वास्तिक चिह्न। भारतीय संस्कृति में स्वास्तिक शब्द और इसके मूर्त रूप स्वास्तिक चिह्न का व्यापक प्रयोग होता है। इस शब्द की अभिव्यक्ति को सुखदोई, कल्याणकारी और मंगलमय आदि शुभ भावों को लेकर आशीष देने के प्रयोग में लाया जाता है। यह शब्द अतीत काल से ही विश्व की मंगल कामना का सूचक बना हुआ है। ऋग्वेद सबसे प्राचीन साहित्य है। इसमें स्वास्तिक शब्द कई स्थानों पर मिलता है। वैसे तो वैदिक ऋचाएं विश्व कल्याण के भावों को ही व्यक्त करती हैं क्योंकि कोई भी स्तुतिकर्ता स्वयं के लिए कोई इच्छा प्रकट नहीं करता है। सभी जगह बहुवचन का प्रयोग कर सृष्टि की समस्त मानव जाती की भलाई के लिए स्तुतियाँ की गई हैं। ऋग्वेद का निम्नलिखित श्लोक समाज कल्याण के भाव को प्रदर्शित करने में पूर्ण रूप से समर्थ है :-
स्वस्ति नः पुत्र कृशेष योनिशु स्वस्ति रामे मरुतो द्वातन।।'
इस श्लोक में मार्ग मरूभूमि युद्ध आदि में सभी मनुष्यों के कल्याण की शुभकामना की गई है। यहाँ तक कि धन उपलब्धि में सफलता और गर्भस्थ शिशुओं तक की मंगलमय स्थिति के लिए भी प्रार्थना की गयी है। इसी तरह यजुर्वेद में भी स्वस्तिक की व्यापक भावना मिलती है : -
'स्वस्ति नः इन्द्रों वृद्ध श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदा।
स्वस्ति नः स्ताक्ष्यों अरिष्ट नेमी स्वस्तिने वृहस्पतिर्दधातु।।'
इस ऋचा को सभी शुभ अवसरों पर कार्य के आरम्भ में ही उच्चारित किया जाता है, ताकि विश्व की मंगलमय भावनाओं के साथ कार्य संपन्न हो जाए। हिन्दू धर्मानुयायिओं के लिए 'स्वस्तिक' या 'सतीए' का चिह्न अज्ञात अथवा नया नहीं है। श्री गणपति का चिह्न होने से यह मंगल सूचक माना जाता है। लग्नादिक शुभ कार्यों में गणपति का पूजन होता है। फिर कहीं कार्यारंभ होता है। कर्मकांडी ब्राह्मण या आचार्य एक पट्टे पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसको गणपति का चिह्न मान कर उसका पूजन करते हैं। यघपि यह चिह्न हिन्दू मात्र का जाना माना है फिर भी इसका गूढ रहस्य बहुत कम लोग जानते हैं। योग दर्शन में हठयोग की क्रिया का ज्ञान रखने वाले जानते हैं कि मानव देह में योगमार्ग में 6 स्थान हैं, जिन्हें पटचक्र भी कहते हैं। पहला स्थान मूलाधार चक्र या आधार चक्र का है। इस एक चक्र में एक-एक कमल और एक-एक अधिष्ठात देवता का स्थान है। आधार चक्र में चतुर्दल कमल है और ये चक्र स्वस्तिकाकार है, जिसके अधिष्ठात देवता श्री गणपति है। गणपति जिनके स्थान तक पहुंचे बिना योगी आगे गति नहीं कर सकते, एक मंगल कारक देवता है। अतः प्रत्येक कार्य में प्रथम श्री गणपति पूजे जाते हैं। इसलिए उनके चिन्ह स्वास्तिक को मंगल सूचक माना जाता है।
बंगाल तथा मद्रास में आज भी स्वस्तिक के चिह्न अनेक रूपों में सजावट के मौके पर व्यवहृत होते है। इन दोनों प्रांतों में कल्पना (स्वस्तिक का एक रूप) का चिह्न तो बहुत ही प्रचलित है। गुजरात के घरों में दीवारों की वन्दनवारों को इस चिह्न द्वारा मोतियों से अलंकृत किया जाता है। हिन्दू घरों में प्रत्येक उत्सव पर यह चिह्न द्वारा की चौखट पर या आँगन में बनाया जाता है। हिन्दुओं के विवाहोत्सव में ये चिह्न उस दीवार पर अंकित किये जाते हैं जिस पर कुल देव चित्रित रहते हैं। प्रत्येक शुभ अवसरों पर पुरोहित स्वास्तिक के चिह्न कुमकुम द्वारा अंकित करते हैं। विवाह के मौके पर वर-वधु के मुकुट पर स्वास्तिक चिह्न अंकित किया जाता है जो शुभ माना जाता है। हिन्दू दुकानदार अपने हिसाब-किताब के बहीखाते दीपावली के दिन बदलते हैं। बहीखाते की क्रिया उत्सव के साथ संपन्न होती है। बहीखाते के प्रथम पृष्ट पर स्वास्तिक का चिह्न कुमकुम से अंकित किया जाता है। इस चिह्न से यही अर्थ निकाला जाता है कि सिद्धिदाता भगवान श्री गणेश जी उन्हें आशीर्वाद दें और अपनी कृपा दृष्टि की नजर डालते हुए, ऐसे हालात उत्पन्न करें जिससे उनके व्यापार में उन्नति हो। इसके अलावा स्त्रियों के आभूषणों एवं गहनों में भी इस चिह्न की प्रधानता काफी पाई जाती है। गले की चेन के लाँकेट पर, अंगूठी में, चाबी के छल्ले पर, कानों के बुन्दों में, चूड़ियों पर और यहाँ तक कि स्त्री, पुरूष के एवं बच्चों के वस्त्रों पर व अन्य कई रूपों में यह चिह्न अलंकारों की शोभा में वृद्धि करता है। मंदिर में पुजारी की धोती पर भी यह चिह्न देखा जा सकता है।
स्वास्तिक के चिह्न बौद्ध और जैन धर्मानुयायियों के यहाँ भी सहज रूप में देख जा सकते हैं। बौद्ध लामा पवित्रता तथा भगवान गौतम बुद्ध का आशीर्वाद पाने के अभिप्राय से स्वास्तिक चिह्न व्यवहार में लाते थे। दार्जिलिंग की वेधशाला पहाडी के ऊपर स्थानीय लामाओं के देवता महाकाल की बलिवेदी पर स्वास्तिक के दो विशाल चिह्न अंकित हैं। बौद्ध तथा जैन अनुयायी अपने त्योहारों पर इस चिह्न का प्रयोग करते हैं।
स्वस्तिक चिह्न का व्यवहार अनेक अभिप्रायों से किया जाता है। जन साधारण की धारणा है की यह एक चिह्न है और सूर्य की चाल को चित्रित करता है। ऐसा माना जाता है की यह चिह्न पहले-पहल सूर्य पूजा का चिह्न था। भारतीय लोगों का विचार है की यह चिह्न 'ॐ' तथा स्वास्ति(कल्याण) से सम्बन्ध रखता है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह चिह्न प्राचीन वैदिक काल में बनाए जाने वाले अग्नि कुण्ड से निकला है जिसका ढांचा लगभग ऐसा ही होता था। जाति विज्ञान के जर्मन पंडित स्वस्तिक की उत्पत्ति पांच हजार वर्ष पूर्व आर्यों द्वारा बतलाते हैं। कहा जाता है की आर्य लोग अनार्यों से भिन्नता रखने के लिए इस चिन्ह का प्रयोग करते थे। एक विद्वान का मानना है की यह बलिदान सूचक चिन्ह है तथा बलिवेदी के प्रदक्षिणा की और संकेत करता है। आर्यों के प्राचीन गावों में चौराहों पर स्वस्तिक के चिह्न बने रहते थे। ऐसा कहा जाता है की स्वस्तिक के चिह्न आर्यों की सैनिक छावनी के प्रवेश द्वारों पर बने रहते थे। विशवास यह था की ये चिह्न छावनियों की विपत्तियों से रक्षा करते थे। ब्रहम ज्ञानी वेदांती जन स्वास्तिक को पर ब्रहम का ही चिह्न बतलाते हैं। वे कहते हैं कि 'ॐ' का ही विंकृत चिह्न स्वस्तिक हो गया है। चित्र 'क' 'ख' से उनकी इस उक्ति की पुष्टि होती है। इन चित्रों की लकीरों को गिनने से पता चलता है की दोनों ही 8 मात्राओं से बनाए गए हैं।
'स्वस्तिक' श्री महालक्ष्मी जी का भी चिह्न है। शाक्त धर्मानुयायी एवं तांत्रिक भी अपने कार्य सिद्धि अनुष्ठान में स्वस्तिक को प्रथम स्थान देते हैं। ईसाई धर्म का क्रास भी स्वास्तिक का ही सूक्ष्म रूप सिद्ध माना जाता है। अतः इसकी धार्मिक महत्ता है। इसके अलावा यह चिह्न हमारे कुशल एवं निपुण इंजीनियरों एवं मिस्त्रियों के लिए भी नगर-निर्माण का एक ढांचा है। जयपुर नगर स्वास्तिकाकार ढांचे पर ही बना हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भी अपने नगर स्वास्तिकाकार ही बसाए थे। राजा-महाराजाओं के महलों पर पर्याप्य संस्कृत में स्वस्तिक ही कहा जाता है। सामुद्रिक शास्त्रानुसार जिस मनुष्य की देह पर स्वास्तिक का चिह्न हो, वह परम भाग्यशाली माना जाता है। माना जाता है कि ऐसा मनुष्य जहाँ भी जाता है, उसका अनुकूल प्रभाव दूसरों पर पड़ता है जिससे दूसरे लाभान्वित होते हैं। युद्ध शास्त्र के अनुसार स्वस्तिक व्यूह में फंसा हुआ शत्रु कठिनाई से ही निकल सकता है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए स्वस्तिक एक परम मांगलिक चिह्न है। यहाँ तक कहा जाता है कि ये चिह्न यदि स्वप्न में दीखे तो मंगल होता है। इसी प्रकार स्वस्तिक शब्द का प्रयोग उत्तरोत्तर अनेक ग्रंथों में वैदिक काल के पश्चात बराबर मिलता है। इस चिह्न की चार भुजाएं केंद्र बिंदु के समकोणों पर आधारित हो कर विश्व की चार दिशाओं की घोतक हैं। भुजाओं का दायीं और को मुड़ना सूर्य पथ का प्रतीक बनाता है। इस प्रकार इस मंगलमय चिह्न में सूर्य, पृथ्वी, दिशाएं और समस्त विश्व मैत्री और कल्याण की भावनाएं केन्द्रित की गयी हैं। यही कारण है कि इस चिह्न को शुभ सूचक मान कर युग-युगांतर से हर मंगलमय वस्तु व मंगलमयी बेला पर कार्यारम्भ में ही प्रयोग लाया जाता है।
भारतीय मुद्रा प्रणाली द्वारा भी स्वस्तिक की भावना को विस्तृत रूप से व्यक्त किया गया है। वैदिक काल में गाय आदन-प्रदान का माध्यम थी। गाय को सर्वाधिक कल्याणमयी समझ कर युग से ले कर अब तक इस देश का सर्वोपरि जीव माना गया है। इसके बाद सिक्कों पर सर्व-सम्पन्नता की अभिव्यक्ति कई मंगलमय चिह्न द्वारा की गयी है। तक्षशिला, मथुरा, उज्जैन, अयोध्या, मालवा आदि गणराज्यों के सिक्कों पर हाथी, गाय और स्वास्तिक चिह्न मुद्रा संचालन में निहित मंगलमयी भावना के प्रत्यक्ष प्रतीत हैं। राजस्थान में पुत्र जन्मोत्सव पर बच्चे की बुआ गोबर व पिसे हुए चावल से द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक या सातिर रखती है ताकि श्री गणपति समस्त प्रकार की विध्न-बाधाओं को बच्चे से दूर रखे। यह उत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाता है।
भारत की इस कल्याणकारी भावना का प्रसार विश्व के अन्य देशों में भी पाया जाता है। चीन की साम्राज्ञी 'वू' ने स्वास्तिक चिह्न को सूर्य का प्रतीक मानने की राजाज्ञा घोषित कर दी थी। वहां के रेशम व अन्य वस्तुओं पर इस चिह्न का प्रयोग मिलता है। जापान, मिश्र व यूनान आदि देशों में भी स्वास्तिक की व्यापकता के प्रमाण कम नहीं मिलते। अमरीका के पाषाण युग में भी स्वास्तिक के चिह्न मिलते है। ये चिह्न अमरीका के प्राचीन समाधि स्थलों पर तथा मैक्सिको और पेरूविया के प्राचीन कीर्ति-स्तंभों पर पाए जाते हैं। एशिया में पहले-पहल इस चिह्न का पर्दापण वेविलोनिया की प्राचीन राजधानी 'सूसा' में हुआ था। जापान, चीन तथा तिब्बत में यह प्राचीन काल से अब तक व्यवह्र्त होता आ रहा है। इंगलैंड में लोग इसे फ्लाई फुट कहते हैं जिसका अर्थ चौपाया होता है। स्केंडेनेविया में इसे लोग 'थौर की हथौड़ी' कहते हैं। यूरोप की एक दंत कथा के अनुसार 'थौर' सूर्य का पुत्र तथा वर्षा का देवता है। यह मानी हुई तथा प्रमाणिक बात है कि स्वस्तिक चिह्न बहुत प्राचीन है परन्तु विश्व में यह इतना प्रसिद्ध नहीं था। एक शक्तिशाली राष्ट्र का राष्ट्रीय चिह्न होने के कारण इसकी सर्वप्रियता तथा प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी है। यह चिह्न हिटलर के नाजी दल के बैज का चिह्न बनकर विख्यात (या कुख्यात?) हो गया है। आज भी जर्मनी में हिटलर की जेल (संग्रहालय) में स्वास्तिक चिह्न बना हुआ देखा जा सकता है। नाजियों के झंडे पर यह चिह्न तिरछा अंकित किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि तिरछा अंकित करने से ये चिह्न एक ख़ास एवं विशेष ढंग से लाभ पहुंचाता है। भारत में इस चिह्न को अंकित करने की दूसरी ही रीति अथवा परम्परा है। कभी-कभी स्वस्तिक के चतुष्कोणों पर केवल चार बिन्दुओं का निशान भर ही दिया जाता है।
आज के इस अति आधुनिक समय में भी स्वस्तिक शब्द व चिह्न का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। पुरानी पीढी के लोग तथा हमारे देहात में बसे परिवार आज भी पत्रों का आरम्भ 'स्वास्तिक' या 'ॐ' से करते हैं। संस्कृत या उससे सम्बन्ध रखने वाले लोग अब भी 'स्वास्ति भवः' से ही आशीष देते हैं। ये सब हमारे समाज में व्याप्त विश्व कल्याण की भावना को दर्शाता है।
एक टिप्पणी भेजें