1। पश्चिम की सांस्कृतिक आलोचना ने भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के बारे में समीक्षा दृष्टि के देशी स्रोत सुखा दिए हैं। रस, ध्वनि, वक्रोक्ति, औचित्य ,गुण, सौन्दर्य दर्शन , व्याकरण दर्शन का पूरा प्रवाह इस मरूस्थल ने पी लिया है। वह भी महात्मा गांधी , टैगोर, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही, निर्मलवर्मा आदि के प्रयासों के बावजूद!
तकनीक के विकास ने मानव के अंतर्जगत को खोखला कर दिया है और बाहरी जगत पर चेतना का नहीं, देहवादी उपभोक्तावाद का कब्जा है। सिनेमा, थिएटर,रेडियो, दूरदर्शन अब क्लासरूम नहीं रहे, न इनमें साहित्य को स्थान है और न कला, शास्त्रीय संगीत को। संस्कृति उद्योग का जोर 'प्रभाव' पर है। प्रभाव का केवल स्टाइल पर । स्टाइल में कथ्य गायब है- केवल क्षणभंगुर चमत्कार है। इस चमत्कारिक स्टाइल से अतृप्ति का तनाव उपजता है। संतोष, तृप्ति या मूल्यवान स्मृति का जन्म नहीं होता। इस चेतना से महात्मा गांधी की कृति हिन्द स्वराज नहीं पढ़ा जा सकता। हिन्द स्वराज पढ़ने के लिए आम आदमी के सामान्य जिन्दगी में संगीत और उत्सव को खोज पाने की दृष्टि चाहिए। सनसनी की खोज में रहने की आदत से अतृप्ति और बदहवासी मिलती है। इस आदत से लाचार लोगों को हिन्द स्वराज पढ़ने में ऊब महसूस होती है, समझ में आना तो दूर की बात है। हिन्द स्वराज में जिन्दगी के दिव्य स्वरूप का कथ्य है, सनसनी फैलाने वाले उद्योग का स्टाइल नहीं है।
2. 13 नवम्बर से 22 नवम्बर 1909 के बीच हिन्द स्वराज की रचना महात्मा गांधी ने की थी। बीस अध्यायों में विभक्त यह पुस्तिका गांधी जी के दर्शन का बीज -पाठ है। लगभग 39 साल तक महात्मा गांधी अपने जीवन एवं कर्म को इसी दर्शन के अनुसार जीते रहे। समय के साथ इसमें उनका विश्वास और गहरा होता चला गया। इस पुस्तक में गांधी जी के संपूर्ण सरोकारों की अभिव्यक्ति हो गई है। 20 मार्च 1910 को हिन्द स्वराज के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में उन्होंने माना कि मूल गुजराती पाठ में कुछ खामियां रह गई थीं। परन्तु वक्त के साथ गांधी जी का इसमे विश्वास इतना बढ़ गया था कि उन्हे हिन्द स्वराज के मूल पाठ को संशोधित करने की भी जरूरत नहीं महसूस हुई। वे अन्त तक हिन्द स्वराज के मूल पाठ को एक बुनियादी ग्रंथ मानते रहे। एक ऐसा ग्रंथ जो आधुनिक औद्योगिक सभ्यता को संहारकारी मानकर एक वैकल्पिक सभ्यता की रूपरेखा और उसकी वांछनीयता प्रस्तुत करता है। विरोधियों के अनुसार 'हिन्द स्वराज एक मूर्ख की रचना है। इसमें व्यक्त विश्व-दृष्टि न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि किसी भी आधुनिक समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी भी है।'
1945 में पहली और आखिरी बार देश में हिन्द स्वराज के बरते जाने का प्रस्ताव आया और एक ही झटके में ठुकरा दिया गया। उनके पुराने और अंतरंग सहयोगी भी हिन्द स्वराज को गांधी की आंख से नहीं देख सके।
इक्कीसवीं सदी की बदहाली ऐसी है कि आज विकल्प की बात गांधी जी के समय से भी ज्यादा आकर्षक लगती है। पर हिन्द स्वराज में विकल्प का जो तर्क है अथवा जिस आमूल चूल परिवर्तन की अनिवार्य शर्त है उसमें यह ग्रंथ बहुत लोगों को आज भी अव्यवहारिक और काल बाह्य लगता है । वर्तमान आधुनिक चेतना के पास वैकल्पिक भाषा और भावबोध का न साहस है न सामर्थ्य।
हिन्द स्वराज में एक वैचारिक समग्रता है। आधुनिक सभ्यता अब तक अपनी जड़ें काफी गहराई तक जमा चुकी है। इससे मोहभंग होने के बाद भी लोग अपनी आधुनिक चेतना में हिन्द स्वराज को सिर्फ आंशिक तरीके से हीं समझ या मान सकने के स्थिति में हैं। समग्रता में हिन्द स्वराज को स्वीकारने के लिए पारम्परिक दृष्टि एवं चेतना चाहिए वर्ना जिन्दगी का दिव्य स्वरूप कायम नहीं रह पाएगा।
12 जून 2010
जिन्दगी का दिव्य स्वरूप और हिन्द स्वराज ( Divine nature of life and Hind Swaraj )
Posted by Udit bhargava at 6/12/2010 06:39:00 am
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राजीव जी, आप ने जो कहा वह आप के विचार हैं, परन्तु श्री राम , श्री कृष्ण भगवन विष्णु जी के अवतार हैं अथवा उन्ही के प्रतिनिधि ही हैं इसका प्रमाण श्रीमद भगवत पुराण दशम स्कन्ध उन्यान्यवे अध्याय में भी मिलता हैं जहाँ भगवन स्वयं कहते हैं की हे श्री कृष्ण और अर्जुन तुम दोनों मेरी ही कलाओं के साथ पृथ्वी पर गए हो....धर्मसंस्थापन हेतु......और शीघ्र ही मेरे पास लौट आओगे !! दूसरा जो आपने कहा की तीनो क्रमशः ब्रह्मा
जवाब देंहटाएंविष्णु महेश ..निरंजन और आध्याशक्ति की संतान हैं । मैं सहमत नहीं हूँ वह उनकी संतान नहीं उनका व्यक्त रूप हैं क्रमशः तीन रूपों में......अत्रि मुनि और ब्रह्मा
विष्णु महेश .. संवाद भी देखें!!! धन्यवाद्