28 अक्तूबर 2010

संत मध्वाचार्य ( Sant madhvacharya )

संत मध्वाचार्य  जी का जन्म विक्रम संवत 1295 में माघ शुक्ल पक्ष सप्तमे के दिन माता वेदवती के गर्भ से हुआ. मतात्तर से आश्विन शुक्ल दशमी को इनका जन्मदिन माना जाता है. इनके पिता का नाम नारायण भट्ट था. कहा जाता है कि स्वयं भगवान नारायण की आज्ञा से वायुदेव ने भक्ति सिद्धांत की रक्षा के लिये आचार्य माधव के रूप में अवतार ग्रहण किया था. आचार्य मध्व बचपन से ही अलौकिक शक्ति से परिपूर्ण थे. इनका मन पढाई के प्रति कम था. यज्ञोपवीत होने पर भी ये दौड़ने, कूदने, तिरने और कुश्ती लड़ने में ही लगे रहते थे, अतः लोग इन्हें 'भीम' नाम से पुकारते थे. ये वायुदेव के अवतार थे. इसलिए यह नाम भी सार्थक ही था. भावत कृपा से इन्हें अल्पकाल में ही सम्पूर्ण विहा का ज्ञान अनायास ही प्राप्त हो गया था. इन्होने 11 वर्ष की अवस्था में अद्वैत मत के सन्यासी अच्युतपक्षाचार्य जी से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की. इनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि ये अपने गुरूजी से शास्त्रों पर प्रतिवाद किया करते थे. बहुत ही अल्प गुरू अनन्तेश्वर  जी से इनका इतना स्नेह था कि एक बार इन्होने गुरूजी से स्नान और दिग्विजय करने की आज्ञा माँगी, तो ऐसे सुयोग्य शिष्य के विरह की संभावना से उन्होंने कहा कि भक्तों के उद्धारार्थ गंगा जी को वहीं पर एक सरोवर में ला दिया. आज भी वर्तमान में हर 12वें वर्ष में एक बार इस स्थान पर गंगा जी का प्रादुर्भाव होता है मध्वाचार्य जी ने अनेक स्थानों पर विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किये. इनके शास्त्रात का उद्देश्य भगवतभक्ति का प्रह्चार, वेदों की प्रामाणिकता का स्थापन, मायावाद का खंडन और मर्यादा का संरक्षण था. एक जगह पर तो इन्होने  और वेद, महाभारत और विष्णुसहस्त्रनाम के क्रमशः तीन, दस और सौ अर्थ बताकर और उनकी व्याख्या करके विद्वानों को आश्चर्यचकित कर दिया. इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि इन्होने गीता पर ही महाभाष्य लिख दिया और बद्रीनारायण पवित्र धाम की यात्रा की. वहां पर इन्होने महर्षि वेदव्यास को अपना लिखा हुआ भाष्य दिखाया. अनेक विद्वानों ने इनसे पराजित होकर इनके मत को स्वीकार किया. मध्वाचार्य जी बड़े ही चामत्कारिक थे. उन्होंने अनेक प्रकार की योग सिद्धियाँ प्राप्त कर रखी थीं. एक बार किसी व्यापारी का जहाज द्वारका से मालाबार तट को जा रहा था कि बीच रस्ते में वह डूब गया. उस जहाज में भगवान श्रीकृष्ण की सुन्दर मूर्ती राखी थी. मध्वाचार्य जी ने उस मूर्ती को जल से निकालकर उदूपी में स्थापित किया. ऐसे परमकल्याणी सम्पूर्ण मानव जाती का हित चाहने वाले मध्वाचार्य जी ने सरिदन्तर नामक स्थान पर अपनी देह का त्याग किया.